गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

शहीदों के खून पर अंतुले की सियासत

क्या आतंक के हमदर्द है भारत के नेता ?
हमारे देश में कुछेक राजनेताओं के कारण अक्सर चर्चा का माहौल बना रहता है और अभी सियासत के गलियारों में मुंबई में हुए आतंकी हमलों के मामले फिर से गहमागहमी का माहौल है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने फिर एक बार पलटी मारी है और वही घिसा-पीटा रेकर्ड बजाकर कहा है कि मुंबई पर हमला करने वाले आतंकी पाकिस्तानी थे इसके कोई पुख्ता सुबूत नहीं है। जरदारी ने पूरी जिंदगी कुछ नहीं किया है और वे पाकिस्तानी है। ऐसे में हम उनसे कौन सी उम्मीद कर सकते है? जरदारी ने आतंकी सरदार मौलाना मसूद अजहर के मामले भी अपना पल्ला झाड लिया है। अभी कुछ दिनों पहले ही मसूद को नजरकैद रक्खा गया है ऐसी घोषणा करने वाले जरदारी ने अचानक ही पलटी मारकर घोषणा कर दी कि हमारे पास मसूद का कोई अता-पता नहीं है।
एक ओर पाकिस्तान झूठ पे झूठ बोल रहा है वहीं हमारे देश के राजनेता भी उल्टे-पुल्टे निर्णय लेकर अपना मन मनाने में जुटे है। इसी कवायत के चलते सरकार ने भारतीय क्रिकेट टीम का पाकिस्तान प्रवास भी रद्द कर दिया है। दूसरी ओर रक्षा मंत्री ए.के.एन्टोनी ने सेना के तीनों दलों के अध्यक्षों की बैठक बुलाई जिसे देख हमें कुछ आशा बंधी थी कि चलो अब तो पाकिस्तान को सबक सीखाने के लिए हमने ठानी है वही एन्टोनी ने घोषणा कर दी कि पाकिस्तान के सामने युद्ध का कोई इरादा नहीं है और हमारा सारा जुनून यही चकनाचूर हो गया।
यह इस देश की बदनसीबी है कि इन जख्मों के चलते अल्पसंख्यक मामलों के केन्द्रीय मंत्री ए.आर.अंतुले ने मुंबई हमले के समय शहीद हुए एटीएस चीफ हेमंत करकरे की शहादत पर विवादास्पद बयान दिया है। कुछ अंतुले के बारे में जानें। अब्दुल रहमान अंतुले महाराष्ट्र के रायगढ जिले के मुस्लिम परिवार से है। पेशा वकीलात का है और मुंबई युनिवर्सिटी एवं लंदन में लिंकन इन्स्टीटयूट में पढे है। लेकिन उन्होंने वकीलात कम और नेहरु-गांधी परिवार की भक्ति ज्यादा की है और उनकी भक्ति का उन्हें अच्छी मात्रा में फल भी मिला है। जिस तरह श्रीराम का नाम लेकर समुद्र में डाले हुए पत्थर तैर गए थे उसी तरह इस देश में नेहरु-गांधी खानदान के नाम से बहुत सारे पत्थरों का बेडा पार हुआ है जिसमें अंतुले भी शामिल है। अंतुले 1962 में विधान परिषद के सदस्य चुने गए और यही से उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। 1976 तक वे विधान परिषद में चुनकर आते रहे और महाराष्ट्र सरकार में मंत्री पद पर रह चुके है। उस वक्त उनकी गिनती बडे नेताओं के तौर पर तो नहीं होती थी लेकिन 1977 में आपातकाल के बाद इन्दिरा गांधी हार गई थी तब शरद पवार सहित अन्य दिग्ग्ज इन्दिरा के डूबते जहाज को छोडकर भाग खडे हुए थे तब अंतुले ने इन्दिरा और संजय के साथ खडे रहकर उनकी तन, मन और धन से सेवा की थी। 1980 में इन्दिरा ने जबरदस्त पुन:आगमन किया तब उन्होंने अंतुले की तीन साल की सेवा बदले में उन्हें महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री पद देकर उनकी सेवा की कद्र की थी। उस वक्त क्वॉटा सिस्टम था और सिमेन्ट का आवंटन क्वॉटा के जरिये होता था। बिल्डरों को ज्यादा सिमेन्ट लेने के लिए राजनेताओं के आगे-पीछे घुमना पडता था। अंतुले ने इस मौके का भरपूर लाभ उठाया और इन्दिरा गांधी प्रतिष्ठान ट्रस्ट सहित कुछेक ट्रस्ट भी खडे कर दिये थे। जो बिल्डर इस ट्रस्ट को दान देता उसे अंतुले केन्द्र में से ज्यादा सिमेन्ट दिलवा देते। बाद में इस कारस्तान का भांडा फूटा और मुंबई हाइकोर्ट ने फिरौती वसूलने के आरोप में अंतुले को दोषी ठहराया। इस फैसले के चलते अंतुले को इस्तीफा देना पडा। उसके बाद अंतुले महाराष्ट्र की राजनीति में से गायब हो गए और लोकसभा में चुनकर आते रहे। बाद में केन्द्रीय मंत्री बनते रहे है लेकिन अब पहले वाला प्रभाव नहीं रहा।
देश जब दहशतगर्दी के खिलाफ जंग के नाजुक मोड पर है तब राजनीति कलाबाजी से सुर्खियों में छाये अंतुले संप्रदायवाद को बढावा दे रहे है। मुंबई विस्फोट में पूर्व एटीएस चीफ हेमंत करकरे की शहादत पर अंतुले ने जिस प्रकार जहर उगला है उससे सांप्रदायिकता की बू आती है। वह कह रहे है कि पाकिस्तानी आतंकवादियों को भला क्या जरूरत थी कि वे चुनकर हेमंत करकरे, अशोक कामटे और विजय सालस्कर को ही मारते? वह यही चुप नहीं रहे। अब वह राष्ट्रीय जांच एजेन्सी (NIA) के गठन की भी आलोचना कर रहे हैं।
अंतुले के मुताबिक हेमंत करकरे के मौत के पीछे हिन्दुवादी का हाथ है। अंतुले ने कुबूल किया है कि करकरे और उनके साथियों की मौत आतंकियों द्वारा हुई लेकिन इसके साथ वे यह भी कह रहे है कि उन्हें कामा अस्पताल की ओर किसने भेजा। करकरे और उनके साथी पुलिस डिपार्टमेन्ट में थे और पुलिस का फर्ज है कि वे लोगों की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास करे। कसाब और उसका साथी छत्रपति शिवाजी टर्मिनस की ओर भागकर टाइम्स ऑफ इन्डिया की ओर गए ऐसी खबर मिलते ही करकरे अपने साथियों को लेकर वहां जांच हेतु पहुंचे। करकरे एटीएस के चीफ थे और ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए यह उन्हें खुद तय करना था और उन्होंने वही किया। अंतुले करकरे जैसे जांबाज से क्या उम्मीद रखते है? यह कि वे भी इस देश के नेताओं की तरह अपने बिलों में छिप जाये और आतंकवादी निर्दोष लोगों को मारकर चले जाये तब फांके मारने के लिए बाहर निकले? एक सच्चे पुलिस अधिकारी की तरह वे खुद आतंकवादियों को ढूंढने गये लेकिन बदनसीबी से अंधेरे के कारण पेड के पीछे छिपे आतंकवादी उन्हें नहीं दिखे। अंतुले के बयान में कोई दम नहीं और न ही शक की कोई गुंजाइश है। अंतुले केन्द्रीय मंत्री है और अगर कल को पाकिस्तान उनके बयान से चौंककर ऐसा कहे कि भारत सरकार का ही एक मंत्री कह रहा है कि मुंबई में पुलिस अधिकारियों को मारनेवाला पाकिस्तानी आतंकवादी नहीं थे भारत के ही हिन्दुवादी थे तब क्या कहोगे आप? अंतुले तो अपना पल्ला झाडकर चले जायेंगे लेकिन हिन्दुवादियों को आतंकी दिखाने की चेष्टा की कीमत कांग्रेस को ही चुकानी पडेगी।
उनकी टिप्पणियों से तो ऐसा लगता है कि वे भारत के मंत्री न होकर पाकिस्तान के मंत्री है। अंतुले ने तो इस हद तक कहा था कि आतंकवादियों के पास करकरे की हत्या करने के लिए कोई कारण ही नहीं था इसलिए उन्हें करकरे की हत्या के पीछे आशंका है। वैसे देखा जाये तो आतंकवादियों के पास निर्दोष लोगों को मौत देने के लिए भी कोई वजह नहीं थी। इसका मतलब यह हुआ कि मुंबई के हमलों में जो लोग मरे है उनकी हत्या भी आतंकवादियों ने नहीं की?
अंतुले का बयान मनमोहन सिंह सरकार की धज्जियां उडाने वाला है। करकरे आतंकवादी हमले में मारे गए है ऐसा सरकार ने घोषित किया था और अब उनकी सरकार का एक मंत्री सरकार के सामने सवाल उठा रहा है और वो भी लोकसभा में। ऐसी गुस्ताखी के लिए मनमोहन सिंह को तो ऐसे अंतुले जैसे लोगों को लात मारकर भगा देना चाहिए। जो इन्सान अपनी सरकार की कही बात के खिलाफ आपत्ति उठाये ऐसे लोगों को पार्टी में रखकर करना क्या है। अंतुले का बयान देशद्रोही बयान है। अंतुले जैसे कुत्तों के भौंकने पर करकरे जैसे शहीदों की शहादत की कीमत कतई कम नहीं होगी।
जाहिर सी बात है कि अंतुले के दिल में इन दिनों अपनी कौम के लिए ज्यादा प्यार उमड रहा है। उनकी बयानबाजी से आतंकवाद के सामने हमारी जंग कमजोर होती जा रही है। करकरे की मौत पर सवाल उठाकर अंतुले पाकिस्तान के हाथ में खेल रहे है। हमारा पडोशी देश अंतुले से खुश है। पाकिस्तानी अखबार उनकी प्रशंसा में जुटे है।
इस देश के राजनेताओं को आतंकवाद जैसे गंभीर मसलों में भी वोटबैंक के लाभ के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देता इसका यह सुबूत है। अंतुले खुद मुस्लिम है इसलिए उन्हें मुस्लिम वोटों के अलावा कुछ दिखाई नहीं दे रहा। एक बात तो बताना ही भूल गई कि अंतुले ने ऐसा बयान पहली बार नहीं दिया है। वर्ष 2006 में कैबिनेट की बैठक में उन्होंने महाराष्ट्र के नांदेड में हिन्दुवादियों ने ब्लास्ट करवाया है ऐसी टिप्पणी की और उस वक्त भी उन्होंने सरकार की हालत पतली कर दी थी। कल तक इस शख्स को कोई नहीं जानता था। केन्द्र में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री है लेकिन अभी तक उन्होंने इस मंत्रालय में कोई काम नहीं किया। मुस्लिम समाज भी इस मंत्री से अनजान है। दूसरे शब्दों में कहे तो वे भी सिर्फ नाम के ही मंत्री है।
शाबाश मि. अंतुले! आपके दिमाग और इन्वेस्टीगेशन वकीलात के लिए सभी भारतीयों को आप पर नाज है। मुंबई में आतंकवादियों ने लोगों को खून से नहला दिया। पूरा मुंबई आतंक के बारूद पर बैठकर थर-थर कांप रहा था। लोग डरे हुए थे और ऐसी स्थिति में सिर्फ दस मिनट में ही किसी हिन्दुवादी संगठन ने करकरे को मौत की नींद सुलाने का प्लान बना लिया, कुछ ही मिनटों में हत्यारों की फौज तैयार कर दी और कुछ ही मिनटों में करकरे का लोकेशन ढूंढ लिया और पलभर में ही ए.के.47 की व्यवस्था कर करकरे के हेल्मेट के आरपार गोलीयां चला दी। ऐसी आपकी थियरी जानने के बाद सवाल पूछना चाहती हूं कि आपको वकील बनाया किसने?
मुंबई वारदात के बाद देश का बहुजन मुस्लिम समाज खुद दु:खी है। मृतकों के आत्मा की शांति के लिए मुस्लिमों ने जगह-जगह बंदगी की है। आपकी इस गंदी टिप्पणी से न ही कांग्रेस खुश हुआ है और न ही मुस्लिम समाज लेकिन हां! आपने पाकिस्तान को जरूरत से ज्यादा खुशी दे दी है।
मुझे तो लगता है अंतुले पाकिस्तान के आईएसएस के भारतीय एजेन्ट है। यह बेहद अफसोस की बात है। अंतुले को अगर मुस्लिमों का मसीहा बनना ही था तो उनके पास और भी मुद्दे थे। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद पर रहकर भ्रष्टाचार कर जो करोडों रुपये जमा किये है उन रुपयों को मुस्लिम बच्चों की पढाई में खर्च करना चाहिए था। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने कहा है कि हेमंत करकरे और उनके दो साथी पाकिस्तान से आए आतंकवादियों के गोलियों से शहीद हुए है। अब इन दोनों में से सही कौन? दिल्ली के मंत्री या महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री?
अब बात करते है जेठमलानी की। अंतुले ने जो बयान दिया उसे जेठमलानी ने कुछ ओर तरीके से पेश किया है। मुंबई में हुए आतंकी हमले के वक्त अनगिनत लोगों की लाशें बिछाकर भाग रहे अजमल कसाब नामक आतंकी पुलिस के हाथों पकडा गया। यह कसाब पाकिस्तानी है, हत्यारा है। और इस हत्यारे के सामने मुंबई की कोर्ट में आरोपपत्र दाखिल होनेवाला है लेकिन समस्या यह है कि उसकी ओर से कोर्ट में एक भी वकील मुकद्दमा लडने को तैयार नहीं है। इसबार इन वकीलों में देशप्रेम का जुनून सवार है। इसलिए मुंबई बार एसोसिएशन ने प्रस्ताव पारित किया है इसलिए कसाब का केस कोई वकील नहीं लडेगा। इस प्रस्ताव के कारण जेठमलानी ने अपना बयान देते हुए कहा है कि कसाब को अपना बचाव करने का पूरा हक है। जिसने बेरहमी से इतने सारे लोगों को मौत की नींद सुलाया हो। जो इस देश के सामने जंग छेडने की बात करता हो। जो इस देश के कानूनों को नहीं मानता क्या उसे अपने बचाव का हक है? मुस्लिम बिरादर को पूछे जाने पर कि कसाब को कैसी सजा देनी चाहिए पर उन्होंने क्या कहा पता है कि कसाब पर कोई मुकद्दमा न चलाकर उसे तुरंत फांसी दे देनी चाहिए। और मेरी इस बात में पूरा देश सहमत होगा। मुझे अफसोस रहेगा कि हमें आतंकवादियों के लिए हमदर्द ढूंढने ओर कही जाने की जरुरत नहीं है।
अंतुले से मेरी दरख्वास्त है कि वे हिन्दू-मुस्लिम आतंकवाद के चक्कर में न पडे। देश को धार्मिक आधार पर बांटने का प्रयास छोड दें। और जितनी जल्द हो सके वह अल्पसंख्यक मंत्रालय को किसी अच्छे, सच्चे, ईमानदार व्यक्ति के लिए छोड दें और पाकिस्तान चले जाये।
अंत में, जब अंतुले का सिमेन्ट कौभांड का भांडा फूटा था तब एक झुमला चला था...
कुछ सोने से तुले, कुछ चांदी से तुले
रह गये थे अन-तुले, वो सिमेन्ट से तुले
जय हिंद

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

आडवाणी को क्या हक है ?


मुंबई पर हुए आतंकी हमले से अभी देश पूरी तरह उभरा भी नहीं है। ऐसी स्थिति के चलते राजनैतिक तमाशा करने वाले कुछेक राजनेता अपना बनावटी गुस्सा दिखाने में मशगुल हो गये है। लगता है इन सभी की अंतरात्मा अचानक ही जाग गई हो। और इन नेताओं का इस्तीफों का दौर चल रहा है। मनमोहन सरकार द्वारा शिवराज पाटिल को चलता करना और पी. चिदंबरम को गृहमंत्री बनाना वही दूसरी और शरद पवार ने उनकी पार्टी के आर.आर.पाटिल को रवाना कर दिया है और अपने भतीजे अजित पवार को उपमुख्यमंत्री पद पर बिठाने की रणनीति बनाई है। अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख की बलि चढ गई है। देशमुख के स्थान पर किसे रखना है इसका निर्णय मेडम सोनिया तय करे इतनी ही देर है। सुशील कुमार शिंदे और पृथ्वीराज चौहान के नामों की चर्चा चल रही है। इस निर्णय से कोई ज्यादा फर्क पडने वाला नहीं है। यह तो राहु की जगह केतु को बिठाने जैसा हुआ। एक ओर कांग्रेस और मनमोहन सिंह यह अर्थहीन काम कर समय बरबाद करने में व्यस्त है तब भाजपा का ड्रामा शुरु हो गया है। अब जबकि लोकसभा चुनाव सिर पर है तब भाजपा की सोच है कि मनमोहन सरकार आतंकवाद के सामने लडने में पूरी तरह विफल गई है और उसे बैठे बिठाये अच्छा खासा मुद्दा मिल गया है और इस कारण वह पूरे जोश में इस मुद्दे पर कांग्रेस को घेरने में लगी है। भाजपा ने प्रधानमंत्री पद के लिए पहले ही आडवाणी का नाम घोषित किया है इसलिए स्वाभाविक है कि आडवाणी सबसे ज्यादा जोश में है और इस कारण सबसे ज्यादा फूदक रहे है।
आडवाणी को ऐसा लग रहा है मानो उन्हें अभी से ही प्रधानमंत्री पद मिल गया हो। यह बात सही है कि अभी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है और मुंबई में हुए हमले के लिए वह जिम्मेदार है लेकिन भाजपा को और खासकर आडवाणी को आतंकवाद के मुद्दे पर कुछ भी कहने का अधिकार है ? जर्रा सा भी नहीं। आडवाणी और भाजपा के नेतागण आज चाहे इतने फाके मारते हो और मर्दानगी दिखा रहे हो लेकिन वास्तविकता तो यह है कि अभी देश में आतंकवाद के लिए जितनी कांग्रेस सरकार जिम्मेदार है उतनी ही जिम्मेदार मनमोहन सिंह के पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी सरकार भी है और अगर देश में हुए आतंकवाद के लिए हम शिवराज पाटिल को पेट भरकर गालियां दे सकते है तो आडवाणी भी उतने ही नहीं बल्कि उससे भी ज्यादा गालियां खाने के हकदार है क्योंकि शिवराज पाटिल के कार्यकाल के दौरान जितने आतंकवादी हमले हुए उससे भी ज्यादा हमले आडवाणी के गृहमंत्री पद के कार्यकाल के दौरान हुए थे। सबसे ज्यादा शर्मनाक तो यह है कि शिवराज पाटिल ने नैतिकता का नाटक कर गृहमंत्री पद छोड दिया जबकि आडवाणी तो एक के बाद एक हमले होने के बावजूद भी गृहमंत्री पद से चिटके रहे थे। बेशर्मी की हद तो वह थी कि उन्होंने प्रमोशन लिया था और गृहमंत्री में से उपप्रधानमंत्री बन गए थे। आज वही आडवाणी अपनी चतुराई दिखाकर आतंकवाद से लडने की सलाह दे रहे है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आडवाणी किस मुंह से यह बात कह रहे है। ऐसा कहा जाता है कि राजनीतिज्ञों की खाल मोटी होती है और आडवाणी इस बात का सबूत है।
आडवाणी छह साल तक गृहमंत्री पद पर रहे और इस देश के लिए यह समय आतंकवाद से मुकाबला करने में सबसे ज्यादा खराब समय रहा था। इस देश में काश्मीर, पंजाब या उत्तर-पूर्व के राज्यों में आतंकवाद था लेकिन गुजरात, महाराष्ट्र या उत्तर-दक्षिण भारत के राज्यों में आतंकवाद नहीं था। इन क्षेत्रों में आतंकवाद की शुरुआत 1998 में लोकसभा चुनाव से पहले कोयम्बतुर में सिरियल ब्लास्ट से हुई। यह हमला आडवाणी को टारगेट बनाकर किया गया था। इस हमले के बाद तुरंत केन्द्र में भाजपा की सरकार थी और आडवाणी गृहमंत्री थे और वास्तव में आडवाणी को आतंक का दानव उसी वक्त कुचल देना चाहिए था लेकिन आडवाणी ने उस वक्त हिम्मत नहीं दिखाई और उसकी किमत हम सब आज चुका रहे है। 1998 से 2004 के मई तक केन्द्र में भाजपा की सरकार थी और आडवाणी गृहमंत्री थे और इस समय के दौरान देश में आतंकवाद की 36 हजार से ज्यादा वारदातें हुई और 12 हजार से भी ज्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई। इन वारदातों को रोकने में आडवाणी पूरी तरह विफल गए थे।
आडवाणी के कार्यकाल में आतंकवाद की चरमसीमा देखने को मिली थी और इस देश की संसद पर हमला हुआ था, भारतीय सेना का जहा हेडक्वार्टर है उस लाल किले पर हमला हुआ था और बावजूद इसके आडवाणी ने हाथ पर हाथ धरे बैठने के अलावा कुछ भी नहीं किया था। मुंबई के हमले से वह हमला ज्यादा बडा था और वह हमला हमारे स्वाभिमान पर हुआ था। वास्तव में उस वक्त ही आतंकवादियों को पालनेवालों को मुंहतोड जवाब देना चाहिए था उन्हें उनकी नानी याद दिलाने की जरुरत थी। इस काम को अंजाम देने वाले आतंकवादी पाकिस्तानी थे और आईएसआई ने उन्हें भेजा था उसके सबूत मौजूद होने के बावजूद भी आडवाणी या भाजपा सरकार पाकिस्तान पर आक्रमण की बात तो दूर उनकी पूंछ पकडे रहने में मशगुल रही। उनके साथ दोस्ती के ख्वाब देखती रही।
भाजपा के शासनकाल के दौरान इस देश के लोगों का राष्ट्राभिमान चकनाचूर हो जाये ऐसी दो वारदातें भी हुई। 1998 में ही वाजपेयी उपप्रधानमंत्री थे तब पाकिस्तान ने आतंकवादियों के बलबूते पर कारगिल पर कब्जा करने की कोशिश की उस समय काश्मीर के अंदर घुस आए आतंकवादी सही सलामत पाकिस्तान पहुंचे इसकी व्यवस्था वाजपेयी सरकार ने की थी। उस समय इस देश में घुस आए आतंकवादियों की कब्र वही पर बनाने की जरुरत थी लेकिन वाजपेयी ने उन्हें जाने दिया। भारत के पास आतंकवाद से लडने की ताकत नहीं है इसका यह पहला सबूत था। ऐसी दूसरी वारदात कंदहार विमान कांड था। पांच आतंकवादियों ने हमारे विमान का अपहरण किया और प्रवासियों के बदले में तीन खूंखार आतंकवादियों की मांग की तब भी हमने घूटने टेक दिये थे। हमारे देश के विदेश मंत्री बैंडबाजे के साथ खास विमान में इन तीन आतंकवादियों को कंदहार ले गए और उन्हें सौंप कर हमारी इज्जत की धज्जियां उडा आए। उस वक्त भी आडवाणी उपप्रधानमंत्री थे। यह सब देखने के बाद आडवाणी को सोचना चाहिए कि क्या उन्हें आतंकवाद के सामने बोलने का हक है? आडवाणी और उनके जैसे भाजपा के नेता आज आतंकवाद के सामने लडने की बात आती है तब ‘पोटा’ और अन्य कहानियां शुरु कर देते है। भाजपा के छह साल के शासन काल के दौरान पोटा भी था और पावर भी था तब वाजपेयी सरकार आतंकवाद को क्यों रोक नहीं पाई?
आतंकवाद को रोकने के लिए इच्छाशक्ति चाहिए, आक्रमकता चाहिए उसके लिए जरुरी नहीं कि आप किस पार्टी से हो। और यह काम आडवाणी या मनमोहन जैसे नेताओं के बस की बात नहीं है। 1971 में स्व। इन्दिरा गांधी ने अमरिका के पश्चिम के दूसरे देशों की धमकियों को भूल कर पाकिस्तान पर हमला करवाया और एक साथ पाकिस्तान के दो टुकडे कर दिये थे। 1984 में स्व. इन्दिरा ने पलभर में निर्णय लेकर सुवर्ण मंदिर में सेना भेजकर आतंकवादी भिंडरानवाले और उनके साथियों की लाशें बिछा दी थी। मनमोहन उसी कांग्रेस के प्रधानमंत्री है फिर भी वह न पाकिस्तान पर हमला कर सकते है और न ही आतंकवादियों को उनकी नानी याद दिला सकते है क्योंकि उनके अंदर स्व.इन्दिरा जैसी मर्दानगी या जज्बा नहीं है। आडवाणी भी उसी केटेगरी के है। यह उन्होंने 1998 से 2004 के दौरान साबित कर दिखाया है। अफसरशाही से अलग आज तक न कोई मंत्री कुछ सोच पाया है और न सोच पाएगा। असल में देश में मंत्रियों की ऐसी फौज काम कर रही है जो किसी काम की नहीं। न उनमें सूझबूझ है और न ही योग्यता।
आतंक के आगे हिंदुस्तान कभी हारेगा नहीं
सत्य जीतता रहेगा सत्ता हारती रहेगी
जय हिंद

रविवार, 30 नवंबर 2008

इमेज नहीं देश बचाओ

मुंबई के आतंकवादी हमले से अवाक केन्द्र की मनमोहन सरकार अब धीरे-धीरे डेमेज कंट्रोल करने में जुट गई है। और इसकी शुरुआत हुई है शिवराज पाटिल से। पाटिल को गृहमंत्री पद से हटा यह पद चिदंबरम को सौंपा गया है। चिदंबरम आर्थिक बाबत में निष्णात है और उन्हें खुद भी मनमोहन सरकार के इस फैसले से झटका जरुर लगा होगा। अभी चहुओर आग ही आग है और शिवराज पाटिल ने उनके कार्यकाल के साढे चार साल में खाने-पीने और कपडे बदलने के अलावा कुछ नहीं किया उस कारण गृह मंत्रालय बिन मां का हो गया है। ऐसी स्थिति में चिदंबरम कोई कमाल कर दिखाये ऐसी उम्मीद रखना भी बहुत ज्यादा है। एक तरह से देखें तो मनमोहन सिंह ने उन्हें जलता हुआ घर सौंपा है। और इस जलते हुए घर की आग बुझाने में चिदंबरम खुद जल जाये ऐसी संभावना ज्यादा है। चूंकि इसमें कोई शक नहीं कि शिवराज पाटिल जैसे निकम्मे गृहमंत्री से तो चिदंबरम ज्यादा बेहतर गृहमंत्री साबित होंगे। लेकिन उनसे ज्यादा उम्मीद रखना नाइन्साफी है। जिस व्यक्ति ने पूरी जिंदगी अर्थशास्त्र की पोथियों के गुजारी हो वह आतंकवाद से मुकाबला कर पायेगा ? लेकिन कभी-कभार ऐसा भी देखा गया है कि जिससे हमें कोई उम्मीद नहीं होती वह नामुमकिन काम कर जाते है और चिदंबरम भी ऐसा कुछ कर दिखाए ऐसी उम्मीद हम रखते है।
शिवराज पाटिल को घर भेजना सही कदम है लेकिन इसके लिए मनमोहन सिंह या कांग्रेस को शाबाशी देना सही नहीं। शिवराज पाटिल को घर भेजने में मनमोहन सिंह ने बहुत देर कर दी और उसकी बडी किमत इस देश के लोगों ने चुकाई है। मैं मीन मेख नहीं निकाल रही हूं और अब गडे हुए मुरदों को उखाडने से कोई फायदा भी नहीं है। क्योंकि इससे दर्द के सिवा हमें कुछ नहीं मिलनेवाला। लेकिन इसका उल्लेख इसलिए जरुरी है कि यह मनमोहन की ढुलमुल नीति का प्रतिबिंब है। शिवराज पाटिल को बहुत पहेले ही घर भेज देना चाहिए था लेकिन मनमोहन सिंह यह नहीं कर सके और अभी भी वे वही रास्ता और नीति अपना रहे है। आतंकवादियों ने हमारे देश का नाक काट दिया बावजूद इसके वे वही ढुलमुल रणनीति चला रहे है।
मुंबई के हमले के बाद शिवराज पाटिल को पद से हटाने या अन्य दो-चार अधिकारियों को या महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को हटाने की जरुरत नहीं लेकिन आतंकवादियों को उनकी नानी याद आ जाये ऐसा कुछ करना चाहिए और मनमोहन सिंह से यही नहीं हो पा रहा। आतंकवादी हमारी ओर आंख उठाने की हिम्मत ना करे ऐसा कुछ करने के बजाय मनमोहन सिंह अभी गृहमंत्री बदलने और ऐसे कुछेक निर्णय लेकर संतोष मान रहे है। मनमोहन सिंह को फिलहाल कुछ ओर करने के बजाय आतंकवादियों को पालने वाले पाकिस्तान को मुंहतोड जवाब देना चाहिए जिससे पाकिस्तान हमारे देश को तबाह करने के लिए हजार बार सोचने को मजबूर हो जाये। और इसके लिए हिम्मत की जरुरत होती है। जो मनमोहन सरकार में दिखाई नहीं दे रही।
अभी के हालातों को देखते हुए पाकिस्तान द्वारा हजम किये काश्मीर पर हमला करने के अलावा ओर कोई विकल्प दिखाई नहीं देता। लेकिन यही समझ में नहीं आ रहा है कि मनमोहन सरकार किस सोच में डूबी हुई है। हमारे शासक के कानों तक शायद हम आम लोगों की आवाज ना पहुंचे लेकिन गांधी खानदान के लोगों की बात भी उनके कानों तक नहीं पहुच रही। मुंबई के आतंकवादी हमले के बाद राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के निवेदन कुछ इस प्रकार है। राहुल ने साफ शब्दों में कहा है कि इस आतंकवादी हमले में पाकिस्तान या अन्य किसी भी देश का हाथ हो, भारत को तमाचे का जवाब तमाचे से देना चाहिए। और इसमें प्रियंका दो कदम आगे है। उन्होंने कहा कि आज उनकी दादी इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री होती और इस तरह आतंकवादी हमला होता तो इन्दिरा ने उन्हें बहादुरी से जवाब दिया होता। राहुल और प्रियंका सार्वजनिक जीवन में है और सत्ता पे उनकी सरकार है। इसलिए उन्हें अपनी जुबान को लगाम देना पडता है लेकिन फिर भी उन्होंने थोडे से शब्दों में बहुत कुछ कह दिया है। राहुल और प्रियंका जो कुछ भी सोच रहे है यह उनकी सोच से ज्यादा जन आक्रोश है और यह बात मनमोहन सिंह की समझ में नहीं आ रहा। आज सामान्य कांग्रेसी भी मनमोहन सिंह की इस ढुलमुल नीति से नाखुश है और यह कहने लगे है कि यह आतंकवाद से लडने के चिह्न नहीं है। मनमोहन सिंह यह सब सुनने के बावजूद ना समझे तो उनके जैसा कमजोर प्रधानमंत्री ओर कोई नहीं।
मनमोहन सिंह नहीं समझते तो कोई बात नहीं लेकिन कांग्रेस में ओर भी समझदार लोग मौजूद है उन्हें मनमोहन सिंह को समझाना चाहिए और ना समझे तो उन्हें घर का रास्ता दिखा देना चाहिए और जिसका खून खौल उठा हो और जो आतंकवादी को मुंहतोड जवाब दे सके ऐसे अन्य किसी को यह जिम्मेदारी सौंप देनी चाहिए। और यह इस देश का और कांग्रेस का अस्तित्व के लिए बेहद जरुरी है। राजनैतिक तौर पर कांग्रेस को इस निर्णय से जितना फायदा होगा वह अन्य किसी निर्णय से नहीं हो सकता। राजनैतिक लाभ के लिए मैं किसी पर आक्रमण करने की तरफदारी नहीं कर रही हूं लेकिन इस देश को आतंक के चंगुल से मुक्त कराने के लिए यह बेहद जरुरी है और अगर इससे कांग्रेस को फायदा पहुंचता है तो यह गलत भी नहीं है। पहली बात यह कि लोकसभा चुनाव में छ माह से भी कम समय बचा है और आतंकवाद का मुद्दा जिस तरह सामने खडा है उसे देखते हुए कांग्रेस को इसका खामियाजा भुगतना पड सकता है। और दूसरी बात यह कि जिस तरह विपक्षी एवं अन्य लोगों ने कांग्रेस को आतंकवाद के लिए जिम्मेदार मुद्दे पर घेरा है उसे देखते हुए इसमें कुछ गलत भी नहीं क्योंकि जो सरकार उनकी हिफाजत करने में नाकाम रही हो और देश का दुश्मन कौन यह पता चलने के बावजूद हाथ पर हाथ धरे बैठी हो उसे लोग दोबारा क्यों चुनें ? लोगों को भी भरोसा दिलाना चाहिए कि इस सरकार में उनकी हिफाजत की ताकत है। फिलहाल इतना ही कहना चाहूंगी कि अभी जो स्थिति पैदा हुई है उसके चलते कांग्रेस को अपना इमेज बचाने के बजाय देश को बचाने के बारे में सोचना चाहिए।
Best of Luck Mr. Singh
जय हिंद

राजनीतिक दलों को वोट की चिंता है, देश की नहीं

मुंबई पर हुए आतंकी हमले पर बहुत कुछ लिखा गया है... बहुत कुछ सुना गया है। हमारा देश आतंकवादियों के लिए ‘खाला का घर’ हो गया है। तभी तो वे अपनी मर्जी से यहां आकर अपने नापाक इरादों पर अमल कर जाते है। हम एक अत्यंत लचर आंतरिक सुरक्षा तंत्र के साथ आर्थिक महाशक्ति बनने का ख्वाब देख रहे है। हमारे नाकारा रहनुमाओं ने देश को फिर से शर्मसार कर दिया। मुंबई के आतंकी हमलों ने देश के सुरक्षा व्यवस्था और खुफिया तंत्र के कामकाजों की पोल खोलकर रख दी है। हर आतंकी हमले के बाद अगली बार कडा रुख अपनाने का रटा रटाया जुमला फेंका जाता रहा है। आतंक से लडने के बजाय नेता फिर एक दूसरे पर कीचड उछालने में मसरुफ हो गये हैं। इन पोची बातों को सुनते-सुनते देश ने पिछले आठ महीनों में पैंसठ से ज्यादा हमले अपने सीने पर झेले है।
बयानबाजी के तीर एक दूसरे पर छोडने वाले नेताओं के लिए यह हमला वोटों के खजाने से ज्यादा कुछ नहीं। आतंकवाद के खिलाफ एकता की बस बातें हैं। एकजुटता प्रदर्शित करने को पार्टियां साथ नहीं आती। एकजुटता होनी चाहिए, कहने से आगे इनकी गाडी बढती ही नहीं है। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा इस दिशा में एकजुटता दिखाने के लिए कोई ठोस पहल करने की जगह, सरकार को घेरने के लिए अनुकूल समय तलाश रही है। राजनीतिक दलों को वोट की चिंता है देश की नहीं। देश की चिंता होती तो आतंकवाद के खिलाफ एकजुटता की कोशिश की बात ही नहीं होती। यह तो अपने आप होता। हमारी पूरी राजनीतिक जमात किस हद तक खोखली हो गई है, इसे रात के अंधेरे में भी साफ देखा जा सकता है।
सुना है कि मुसीबत के वक्त ही अपने पराए की पहचान होती है। भारत मां को तो निश्चित ही अपने इन लाडले सपूतों (नेताओं) की करतूतों पर शर्मिंदा होना पडा होगा। आतंकवादियों के गोला बारुद ने जितने जख्म नहीं दिए उससे ज्यादा तो इन कमजर्फों की कारगुजारियों ने सीना छलनी कर दिया।
ऐसा लगता है देश के सड गल चुके सिस्टम को बदलने के लिए अब लोगों को ही सडकों पर उतरना पडेगा। आतंकी हमारे सुरक्षा व्यवस्था की किरकिरी उडा रहे है जिससे लोगों का मनोबल टूट रहा है। लोग महसूस करने लगे हैं कि उनकी सरकार उनकी रक्षा करने में सक्षम नहीं है और यही आतंकवाद की सफलता है।
जो लोग (आतंकवादी) ‘बोट’ से आये थे उनसे ज्यादा खतरनाक तो वे लोग (नेता) है जो ‘वोट’ से आते है (चुने जाते है)। ऐसे नाजुक पल में भी नेताओं का महाभारत चल रहा है जो इस देश की लाचारी है।
मुंबई आतंक से मुक्त तो हो गया लेकिन सवाल यह है कि अब इसके बाद क्या ? इस मुक्ति के लिए हमने बहुत बडी किमत चुकाई है। हमारे जांबाज जवान, २०० निर्दोष भारतीय और करोडों का नुकसान। आतंकियों ने हमारे देश के स्वाभिमान को आत्मगौरव को चकनाचूर कर दिया। यह मुठ्ठीभर आतंकी भारत के १२० करोड लोगों के दिलों में दहशत पैदा कर गये। और हमें याद दिला गए कि हमारे पास रिढ की हड्डी नहीं है। इन आतंकियों को मार गिराने के बाद हम विजयोत्सव मना रहे है लेकिन क्या हम इसके काबिल है ? नहीं, क्योंकि हम नहीं वे जीते है। यह हर भारतीय के माथे पर कलंक है और इस कलंक को मिटाने के लिए जरुरी है आक्रमण। यहां बात पाकिस्तान ने हजम किए काश्मीर की हो रही है।
मुंबई में हुए आतंकी हमले में पाकिस्तान का हाथ था। यह हमला करने वाले भी पाकिस्तानी थे। इन आतंकियों ने पाकिस्तान द्वारा हजम किए काश्मीर में प्रशिक्षण लिया। यह हमला जिस तरह से किया गया उसे देखते यह पांच या पंद्रह लोगों का काम नहीं है। यह बात कुछ हजम नहीं हुई कि पाकिस्तानी आतंकी समुद्र मार्ग से भारी मात्रा में विस्फोटक लेकर भारत में घुसे और किसी को कानो कान खबर तक नहीं हुई। पाकिस्तान के सहयोग के बिना इन आतंकियों ने हमें डरा दिया यह संभव नहीं। जिसे देखते हुए साफ है कि यह हमला पाकिस्तान ने ही करवाया है। इसलिए इस समय भारत को कुछ भी न सोचते हुए ‘अभी नहीं वो कभी नहीं’ का रुख अपनाना चाहिए। वैसे देखा जाए तो आतंकवाद के सामने लडने में हमारे शासक निक्कमे साबित हुए है लेकिन मनमोहन सिंह का रेकर्ड सबसे खराब है। देश में पिछले एक साल में आतंकवाद खूब फूला-फला है। आतंकवाद हमारे लिए नया विषय नहीं है लेकिन अब सहनशीलता की सारे हदें समाप्त हो गई है। आतंकवादी भी हमारी सहनशीलता की स्थिति भांप गए है।
यह समय मनमोहन सरकार के लिए चुनौती से कम नहीं। पिछले साढे चार सालों में मनमोहन सरकार ने आतंकवाद के सामने घुटने टेकने के अलावा कुछ नहीं किया है। अगर इस समय वे अपने फर्ज से चुक गये तो इतिहास उन्हें कभी भी माफ नहीं करेगा। इस देश के १२० करोड लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी मनमोहन सरकार की है। और यह समय उस जिम्मेदारी को निभाने का है। जंग किसी समस्या का हल नहीं है लेकिन अगर कोई हमें बार बार ललकारे तो इसके अलावा कोई मार्ग नहीं बचता। पाकिस्तान वही कर रहा है और इस समय भारत को उसका मुंहतोड जवाब देना होगा। भारत पाकिस्तान पर हमला बोलेगा तो पाकिस्तान चुप्पी नहीं साध सकता इसके कारण काफी समस्याओं से मुकाबला करना पडेगा। और ऐसा न हो इसीलिए भारत को पाकिस्तान पर हमला करने के बजाय पाकिस्तान ने जिस काश्मीर को हजम कर लिया है वहीं जाकर हमला करना चाहिए। काश्मीर पाकिस्तान के बाप की जागिर नहीं है अगर पाकिस्तान ऐसा समझता है तो उसकी अकड को ठिकाने लाने की जरुरत है। भारतीय एयरफोर्स पाकिस्तान द्वारा हजम किए गए काश्मीर में घुसकर बमबारी करेगा उसके साथ ही पाकिस्तान और उसके दम पर उछलते आतंकवादी हरामजादों को भी एक मेसेज मिल जायेगा कि भारतीय शासकों ने अपने हाथों में चुडियां नहीं पहनी है। अगर वे भारत में घुसकर आतंक फैला सकते है तो भारत भी उनके घरों में घुसकर उन्हें सबक सिखाने की ताकत रखता है। भारत यह मर्दानगी बताये यह जरुरी है। देश के लोग जिस डर के बीच जी रहे है, सहमे हुए है और आतंकवादी का नाम सुनते ही उनके रौंगटे खडे हो जाते है उनके मनोबल को मजबूत करने और आत्मविश्वास जगाने के लिए ऐसा करना जरुरी है।
भारत हमला करेगा तो अन्य लोग क्या कहेंगे इसकी चिंता करने की भी जरुरत नहीं है। दूसरे देशों पर आतंकवादी हमले होते है तो क्या वे हमें पूछने आते है ? अलकायदा ने वल्ड ट्रेड सेन्टर पर हमला किया है ऐसी आशंका के चलते ही अमरिका ने अफघानिस्तान को तहस-नहस कर दिया था और आज भी अमरिका वही कर रही है। अलकायदा के आतंकी पाकिस्तान में पनाह ले रहे है ऐसी आशंका के चलते अमरिका पाकिस्तान में घुसकर बमबारी कर आई, पाकिस्तान में मिसाइल फेंक आई। क्या कर लिया पाकिस्तान ने। और जो करना हो करे उसके लिए भी हमें तैयार रहना चाहिए। यह रोज-ब-रोज कुत्ते की मौत मरने से तो अच्छा है एक बार यह जंग हो ही जाए। अंकुश रेखा पार और काश्मीर पर कब्जा।
मनमोहन सरकार के लिए यह इतिहास बनाने का समय है। नेहरु से लेकर वाजपेयी तक के प्रधानमंत्रियों ने की हुई गलती को सुधारने का मौका है। खास कर पाकिस्तानी आतंकवाद ने जिन निर्दोष भारतीयों की जान ली है उन तमाम को सच्ची श्रध्धांजलि देने का समय है। आज हम इन शहीदों की शहादत से नहीं सीखेंगे तो हमारी आजादी बेकार हो जायेगी। दिनकर जी ने बहुत पहले कहा था, क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो।
समझे !
जय हिंद

दिखावा करना पाप है राज !

सहनशील भारत... सार्वभौम भारत... धर्मनिरपेक्ष भारत !
जिसने जो चाहा कर के चला गया। मुंबई आज पहली बार नहीं दहली है और ना ही देश का कोई हिस्सा अब दहशतगर्द से अछूता है।
अब क्यों शतुरमुर्ग बने बैठे हो राज ? क्यों चुप्पी साध ली तुम्हारी महाराष्ट्रवादिता ने ? मेरे सवालों का जवाब दो राज ! आज तुम्हारी ‘आमची मुंबई’ बम-बारूद से तहस-नहस हो गई है। पूरी मुंबई अवाक बन गई है इस रक्तपात से। चारों ओर बस खून ही खून है यहां। मरने वालों के परिवारजनों के करूण विलाप की चीखों पर आतंकवादी अट्टहास कर रहे होंगे। जिस तरह तुमने बिहार से आये छात्रों को सडकों पर दौडा-दौडा कर मारा था। किसी ओर प्रांत के लोगों से नफरत के नाम पर कई लोगों की जानें तुमने पिछले दिनों ली है और मरनेवालों के परिवारजनों के करूण विलाप पर तुमने भी ऐसा ही अट्टहास किया होगा ना !
महाराष्ट्र के नाम पर लोगों की कोमल भावनाओं को बहकाकर सत्ता की तमाम सीढियां नापी है ना राज! कभी तो देश के असली काम आओ भाई। इस देश में सिर्फ तुम ही नहीं यहां के सारे नेताओं ने पिछले साठ सालों में नफरत का बीज रोपने के अलावा कुछ नहीं किया। राज! तुम तो जब-तब अपनी गर्जना से देश के अखबारों की सुर्खियों में छाते रहते हो ना! ऐसे वक्त में कहां छिप गये हो। अभी महाराष्ट्र को तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी ही जरूरत है।
हमारे मिलेट्री के जवान में ज्यादातर उत्तर भारतीय है। आज इन जवानों के कारण ही मुंबई आतंक से मुक्त हो पाया है। इन्होंने अपनी जान पर खेलकर इस मुंबई को बचाया है राज। ये जवान तुम्हारी तरह नहीं सोचते। इनके लिए देश का हर हिस्सा इनका अपना है। ये देश को चाहने वाले है सत्ता को नहीं। इसलिए आज इनकी बदौलत मुंबई फिर से चलने लगी है। तुम्हें तो इनका शुक्रगुजार होना चाहिए, है ना! सलाम करो उन जवानों को राज !
जय हिंद

सोमवार, 10 नवंबर 2008

राहुल राज एन्काउन्टर केस : आमची पुलिस ?

बेस्ट एन्काउन्टर में मारे गए अपहरणकर्ता राहुल राज की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उसको काफी करीब से गोली मारने की आशंका जताई जा रही है। इस रिपोर्ट की वजह से इस केस में जबरदस्त मोड आ गया है। जे जे अस्पताल में फोरेंसिक मेडिसिन के सहायक प्रोफेसर डॉ. बीजी चिकलकर के मुताबिक राहुल के सिर में लगी गोली के पास से गन पाउडर के निशान मिले है, जो इशारा करते है कि उसे नजदीक से गोली मारी गई। राहुल के शरीर पर गोली के पांच निशान थे और इसमें से चार गोली राहुल के शरीर के आर-पार निकल गई थी। पुलिस को राहुल के शरीर में से सिर्फ एक गोली मिली है इसका मतलब भी यही होता है कि पुलिस ने राहुल को एकदम करीब से गोली मारी थी। पुलिस राहुल से उसका पिस्तोल ले सकती थी इतने करीब होने के बावजूद उसे राहुल को पकडने में नहीं बल्कि उसे एन्काउन्टर कर वाह-वाही लुटने में दिलचस्पी थी। पोस्टमार्टम के इस रिपोर्ट ने मुंबई पुलिस का फांडा फोड दिया है।
अब कुछ राजनेताओं की बात करते है। मुंबई पुलिस ने यह एन्काउन्टर किया उसके बाद महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर.आर.पाटिल बहुत जोश में थे। उन्होंने मुंबई पुलिस की तारीफ में कसिदा पढने में कोई कसर नहीं छोडी। उन्होंने ऐसी घोषणा भी कर दी थी कि राहुल राज पागल था और कोई पागल इस तरह लोगों को परेशान करेगा तो उसका यही अंजाम होगा। राहुल का एन्काउन्टर सही है या गलत इस बारे में फैसला करने के लिए वह खुद ही अंतिम सत्ता पर है इस तरह पाटिल ने यह बात कह अपनी बेवकूफी को साबित किया है। यह बात ओर है कि एन्काउन्टर के एक हफ्ते बाद वे ठंडे हो गये है और महाराष्ट्र कैबिनेट बैठक में उन्होंने गुलांट मार कर कह दिया कि उन्होंने गोली का जवाब गोली से मिलेगा यह डायलोग आतंकवादियों के लिए कही थी, राहुल राज जैसे लडकों के लिए नहीं। पाटिल का यह ह्र्दय परिवर्तन क्यों हुआ यह समझना आसान है।
केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है और यह सरकार लालू जैसे लोगों के कारण टिकी हुई है। राहुल राज का एन्काउन्टर हुआ इसलिए लालू ने अपने तमाम सांसदों और विधायकों का इस्तीफा देने की घोषणा की इसके कारण कांग्रेसियों में भगदड मच गई है और वे लालू को मनाने में लग गये है। लालू को मनाने हेतु केन्द्र सरकार ने पाटिल को सूई चुभोई है और इस कारण पाटिल ऐसी समझदारीभरी बातें कर रहे है।
राहुल राज के एन्काउन्टर केस में दूध का दूध और पानी का पानी हो गया है और अब क्या करना है यह केन्द्र सरकार के हाथ में है। राहुल का एन्काउन्टर सही था या गलत इस बात को एक ओर रख रखते है। अब बात कांग्रेस की नीति पर आकर रुकती है। गुजरात में पुलिस ने शोहराबुद्दीन नामक एक गेंगस्टर को एन्काउन्टर में उडा दिया और यह एन्काउन्टर नकली था ऐसा बाहर आने के बाद कांग्रेस ने इस मामले समग्र देश में हल्ला मचा दिया और इस मामले गुजरात की मोदी सरकार को हटाने की मांग की।
कांग्रेस ने सही किया या गलत इसकी चर्चा यहां अप्रस्तुत है क्योंकि यह नीति का मामला है और कांग्रेस को अपनी नीति तय करने का पूरा हक है। सवाल यह है कि कांग्रेस वही नीति राहुल राज एन्काउन्टर केस में लागू करती है या नहीं ? शोहराबुद्दीन गेंगस्टर था तो भी उसे मारने का पुलिस को कोई हक नहीं था ऐसा कहने वाले कांग्रेसी नेता राहुल राज नामक एक निर्दोष युवक के एन्काउन्टर के मामले भी यही बात करते है या नहीं ? केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है और महाराष्ट्र में भी कांग्रेस की सरकार है। उनकी ही सरकार के गृहमंत्री ने इस एन्काउन्टर को सही बताया था। देखना यह है कि कांग्रेस भाजपा सरकार के लिए अलग नीति और अपनी सरकार के लिए अलग नीति रखती है या सभी को एक ही तराजू से तोलेगी। मेरी आवाज इस देश की जनता की आवाज है जो इन ऊंचे पदों पर बैठे लोगों से इस सवाल का जवाब चाहती है।
जय हिंद

शनिवार, 1 नवंबर 2008

करे कोई, भरे कोई

देखिए, हमारे देश के राजनेताओं को और जनता को। ये राजनेता अपने मतलब के लिए जनता को बहकाते है और ये बेवकूफ लोग उनकी बातों को मानकर भावुक बन जाते है। राजनेता तो आग लगाकर अपने-अपने महलों में आराम से सो जाते है और उनके इस लोमडियापन की किंमत बेचारी जनता चुकाती है। बात है गत सोमवार यानि २७ अक्टूबर की। इस दिन राहुल राज नामक एक बिहारी लडका मुठभेड में मारा गया। यह घटना मनसे प्रमुख राज ठाकरे ने दस महिने पहले सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के सामने जो गाली-गलौच की उसका परिणाम है। राज ठाकरे ने अपनी वोट बैंक को मजबूत बनाने के चक्कर में महाराष्ट्रवाद का झंडा लेकर उत्तर भारतीयों को गालियां देना शुरु किया और उनके पीछे-पीछे महाराष्ट्रीयनों का एक समूह भी जुड गया। शुरुआत में यह हमला मर्यादित था और उस वक्त एकाद हफ्ते बाद महाराष्ट्र पुलिस ने राज ठाकरे को अंदर कर दिया बाद में राज ठंडा हो गया तब ऐसा लग रहा था कि मामला शांत हो जायेगा लेकिन वहीं रेलवे बोर्ड की परीक्षा देने आए बिहारियों पर हमला हुआ और ज्वालामुखी भडक उठी। इस हमले के बाद चुप्पी साधे बैठे बिहारी भी मैदान में आ गये और उसके बाद ज्वालामुखी ने विराट स्वरुप ले लिया उसे देखते हुए लगता है कि यह मामला अब जल्द शांत होनेवाला नहीं है।
इन उत्तर भारतीयों के खिलाफ महाराष्ट्रीयनों की खींचतान में २७ अक्टूबर को जो हुआ यह हमारी आंखें खोलने के लिए काफी है। रेलवे बोर्ड की परीक्षा देने आये बिहारियों पर हमला हुआ उसके बाद बिहारियों का खून खौल उठा है और अभी वे जोश में है। इस जोश में राहुल राज नामक एक बिहारी विद्यार्थी पिस्तोल लेकर मुंबई आया। गत २६ अक्टूबर को वह पिस्तोल लेकर कुर्ला पहुंचा और बेस्ट की डबल डेकर बस में चढा। बस में कंडक्टर ने टिकट मांगी और उसके साथ ही राहुल जोश में आ गया और उसने कंडक्टर के सामने पिस्तोल ताक दी। पिस्तोल देख कंडक्टर भडक उठा और लोगों का डरना स्वाभाविक था।
मिनटों में पूरी बस खाली हो गई और राहुल अकेला बस में बैठा रहा। इस तमाशे को देखने के लिए बस के इर्द-गिर्द लोगों की भीड जमने लगी और भीड देख राहुल जोश में आ गया। उसने राज ठाकरे के खिलाफ नारेबाजी शुरु की और राज ठाकरे को जो संदेश देना चाहता था उसकी घोषणा कर दी। हमारे यहां सामान्य तौर पर पुलिस ऐसी कोई वारदात के बाद आती है लेकिन यहां वक्त पर आ गई और पुलिस ने राहुल को चेतावनी दी। चूंकि राहुल ने चेतावनी नहीं मानी और सामने गोली चलाई इसलिए पुलिस को गोली चलानी पडी जिसमें राहुल की मौत हो गई। यह कहानी पुलिस के मुताबिक है। लेकिन राहुल के लिए जिन लोगों के दिल में हमदर्दी है वे कुछ ओर ही कह रहे है। उनके मुताबिक राहुल ने किसी को चोट नहीं पहुंचाया और ना ही उसका इरादा किसी को मारने का था। वह तो सिर्फ अपना विरोध दिखाना चाहता था और इसलिए उसने यह अनोखा रास्ता चुना लेकिन मुंबई पुलिस में भी सभी राज ठाकरे जैसी सोचवाले है इसलिए एक बिहारी को गोली मारने का इससे अच्छा मौका नहीं मिलता सो उन्होंने राहुल को गोली मार दी। पुलिस चाहती तो राहुल को पकड सकती थी लेकिन पुलिस को राहुल को पकडने में नहीं मारने में दिलचस्पी थी इसलिए उन्होंने उसे पकडने की कोशिश तक नहीं की। ऐसा राहुल के लिए जिन्हें हमदर्दी है वे लोग कह रहे है और यह गलत भी नहीं है। टीवी पर इस वारदात का जो क्लिपिंग्स दिखाया गया है उसे देखते हुए लगता है कि पुलिस ने थोडी इन्सानियत दिखाकर बल के बजाय अक्ल से काम लिया होता तो राहुल मारा न जाता। राहुल बस में अकेला था और वह कोई आतंकवादी नहीं था कि गोली चलाये और किसी को भी मौत के घाट उतार दे। उसके पास पिस्तोल थी लेकिन उसे पिस्तोल चलाना आता था या नहीं यह भी एक सवाल है। ऐसी स्थिति में पुलिस उसे घेरकर अक्ल से काम ले सकती थी। राहुल के लिए जिन्हें हमदर्दी है वे लोग इस तरह सही है।
एक जवान लडका इस तरह छोटे से अपराध के लिए पुलिस की गोली खाकर बेमौत मारा जाये यह बडे शर्म की बात तो है लेकिन उससे ज्यादा तो हमारी आंखे खोलने वाली है। राज ठाकरे या दूसरा कोई भी राजनेता अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए कोई भी तमाशा खडा करे और उनके सामने राज जैसे नेता अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी करे लेकिन सवाल यह है कि इनकी वजह से आम जनता को भडकने की क्या जरुरत है? पुलिस इस मामले निश्चित ही अक्ल से काम ले सकती थी लेकिन बजाय इसके अगर राहुल पिस्तोल लेकर ही ना गया होता और ना ही यह तमाशा खडा करता और ना ही उसकी जान जाती। राहुल ने नेताओं के बहकावे में आकर हीरो बनने की कोशिश की और उसकी किंमत उसे जान गंवाकर चुकानी पडी। इसके लिए किसीको दोष देना भी ठीक नहीं है। राज ठाकरे जो तमाशा कर रहे है वह एकदम बकवास है उसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। लेकिन राज की इस नौटंकी को बंद करने के लिए महाराष्ट्र सरकार बैठी है और उससे जो बन सकता है वह कर रही है। राहुल या अन्य किसीको राज ठाकरे को संदेश देने या पाठ पढाने के लिए मुंबई आने की क्या जरुरत है? राज को संदेश देना है तो उसके लिए दूसरे हजार रास्ते है लेकिन हाथ में पिस्तोल लेकर निकल पडो और लोगों को डराओ यह रास्ता ठीक नहीं। राज ठाकरे और उनके गुंडे यही काम करते है। और उनके सामने आप भी वहीं करोगे तो उनमें और आप में क्या फर्क रह जायेगा? गुंडागर्दी कर किसीकी हमदर्दी नहीं ली जा सकती और ना ही विरोध प्रदर्शित होता है।
मुंबई में कांग्रेस और एनसीपी की सरकार है। गृहमंत्री आर.आर.पाटिल ने इस मुठभेड के बाद साफ शब्दों में कहा है कि पुलिस ने जो किया बिल्कुल सही है। कांग्रेस इस मामले क्या रवैया अपनाती है यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। गुजरात में पुलिस ने आतंकवादियों के साथ संलग्न शोहराबुद्दीन नामक एक गेंगस्टर को उडा दिया उस मामले पर कांग्रेस ने पूरे देश में उधम मचा दिया। मुंबई में पुलिस ने जिसे उडाया वह आतंकवादी भी नहीं है ना ही गेंगस्टर है। पुलिस उसे आसानी से पकड सकती थी। लेकिन पुलिस ने उसे उडा दिया और उनकी ही सरकार के गृहमंत्री उसका खुलेआम बचाव कर रहे है। शोहराबुद्दीन के एन्काउन्टर के मामले में गुजरात सरकार का इस्तीफा मांगने वाली कांग्रेस के लिए यह अग्नि परीक्षा की घडी है।
इस मामले राजनीति शुरु हो गई है। एक ओर एनसीपी है तो दूसरी ओर बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की पार्टी जनता दल (यु) है। बिहार की दूसरी पार्टियों को न चाहते हुए भी नीतिश के साथ रहना पडेगा क्योंकि सवाल वोट बैंक का है। चूंकि इस घटनाक्रम से सबसे ज्यादा खुश राज ठाकरे है। क्योंकि उन्होंने जिस मकसद से उत्तर भारतीयों के विरोध में विवाद छेडा था वह मकसद आखिरकार सफल होता दिख रहा है। राज को और कितना खुश करना है यह उत्तर भारतीयों और महाष्ट्रीयनों के हाथ में है।
जय हिंद

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

यह अचानक क्या हुआ ?

जमाना तो नहीं बदला लेकिन कांग्रेस जरुर बदल गई है। जी हां ! दिल्ली में गत महिने हुए बम ब्लास्ट के बाद दिल्ली के जामिया नगर में स्थित बाटला हाउस नामक मकान में हुए एन्काउन्टर के मामले शुरु हुई राजनीति में गर्मी आ गई है। अब तक तो समाजवादी पार्टी और उनके जैसे दंभी सांप्रदायिक और वोट बैंक के लिए मुसलमानों के सामने मुजरा करने में जिन्हें जर्रा सी भी शर्म नहीं आती ऐसी जमात ही इस मामले पर हो-हल्ला मचा रही थी लेकिन शनिवार को कांग्रेस भी बडी बेशर्मी के साथ इस राजनीति में शामिल हो गई इसके साथ ही इस मामले में एक जबरदस्त मोड आ गया है।
जामिया नगर के बाटला हाउस में एन्काउन्टर हुआ.... पुलिस ने दो आतंकवादियों को मार गिराया और दो को दबोचा ठीक उसके दूसरे दिन एक टीवी चैनल ने कह दिया कि यह एन्काउन्टर नकली था और पुलिस ने एकदम बेकसूर मुस्लिम युवकों को मार गिराया। इस टीवी चैनल ने ऐसा दावा भी किया था कि इस एन्काउन्टर में शहीद हुए मोहनचंद शर्मा वास्तव में पुलिस की गोली का शिकार हुए है। हमारे यहां टीवी चैनलों के बीच टीआरपी बढाने की जबरदस्त प्रतिस्पर्धा चलती है इसलिए यह लोग कुछ भी कर बैठते है। इस चैनल ने भी वही किया लेकिन इसकी वजह से समाजवादी पार्टी को अच्छा-खासा मौका मिल गया और इसने इस मामले पर हो-हल्ला मचाना शुरु कर दिया। अमर सिंह इन सबमें सबसे पहली श्रेणी में आते है। क्योंकि वे मुलायम सिंह के खास भरोसेमंद है। अमर सिंह ने अपना नाटक जमाया और उनके पीछे-पीछे वामपंथी भी जुड गये बाद में बंगाल में से टाटा को भगाने के बाद बेकार बैठी ममता भी इसमें जुड गई। बची कसर को अमरसिंह ने शुक्रवार को जामिया नगर में बाटला हाउस में सार्वजनिक सभा का आयोजन कर पूरी कर दी। इस सभा में मुसलमानों की बडी संख्या देख कांग्रेस के होश उड गये। दिल्ली में दो महिने बाद विधानसभा चुनाव होने है बाद में चार-पांच महिने बाद लोकसभा चुनाव भी है ऐसी स्थिति में अगर मुसलमान नाराज हो जाये तो कांग्रेस का राम नाम सत्य हो जाये ऐसा सोचकर कांग्रेस भी इस मामले में आगे आई। और ताबडतोब शनिवार को ही अपने मुस्लिम नेताओं को आगे कर इस एन्काउन्टर के मामले ज्युडिशियल इन्कवायरी की मांग कर डाली। कांग्रेस के अल्पसंख्यक नेताओं के प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री से मिलकर इस एन्काउन्टर के मामले ज्युडिशियल इन्कवायरी की मांग की है और अभी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है इसे देखते हुए इसमें दो राय नहीं की इस मांग का स्वीकार होगा। कांग्रेस ने अमर सिंह या ममता की तरह यह एन्काउन्टर नकली था ऐसा नहीं कहा है लेकिन ऐसा कहने की जरुरत भी नहीं है। और अगर कांग्रेस ऐसा कह दे कि यह एन्काउन्टर नकली था तो उसके विरोधी बाकायदा कांग्रेस को शिकंजे में लेंगे और कांग्रेस के शासन में मुसलमानों का एन्काउन्टर होता है ऐसा हल्ला मचा देंगे इसलिए कांग्रेस सीधे नहीं कह सकती लेकिन ज्युडिशियल इन्कवायरी की मांग का मतलब साफ है कि इस एन्काउन्टर में कुछ तो गलत है।
कांग्रेस ने खुद सामने से जांच की घोषणा करने के बजाय अपने कांग्रेसी अल्पसंख्यक नेताओं के प्रतिनिधिमंडल को आगे कर इस एन्काउन्टर के मामले जांच की मांग क्यों की? यह समझने जैसी बात है। इस मामले अमर सिंह मंडली ने हो-हल्ला मचाया उसके बाद कांग्रेस ने शुरु में उनकी बात नहीं सुनी। अमर सिंह का नाटक बढा उसके बाद कांग्रेस ने स्पष्टता की कि इस एन्काउन्टर के मामले किसी भी प्रकार की जांच का सवाल ही नहीं उठता और अब जो होगा अदालत में होगा। इस रवैये को दाद देने जैसा था। चूंकि सामने कांग्रेस में भी अर्जुन सिंह जैसे कुछेक नेता ऐसे थे जो अमर सिंह के सूर में सूर मिला रहे थे लेकिन उस समय कांग्रेस ने उनकी आवाज दबा दी थी। अब दिल्ली में अमर सिंह ने सभा संबोधित की उसके बाद कांग्रेसी डर गये लेकिन पहले कांग्रेस ने कहा था कि ज्युडिशियल इन्कवायरी नहीं होगी तो फिर सामने से जांच की घोषणा नहीं की जा सकती इसलिए उसने अपने कांग्रेसी अल्पसंख्यक विभाग के प्रतिनिधिमंडल में शामिल नेताओं को आगे कर इस एन्काउन्टर के मामले ज्युडिशियल इन्कवायरी की मांग करा दी।
कांग्रेस की यह मांग आघात जनक है। आघात इस बात का नहीं कि कांग्रेस ने यह मांग क्यों की क्योंकि कांग्रेस से दूसरी कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती। दु:ख तो हमारे यहां वोट बैंक के लिए नेता कितनी हद तक गिर सकते है यह देखकर होता है। अमर सिंह मंडली के लिए मुसलमान माई-बाप है और उनकी राजनीति की दुकान भी उन पर ही चलती है इसलिए यह लोग ऐसे मौके की तलाश में ही रहते है लेकिन कांग्रेस को ऐसा क्यों करना पडा यह समझ में नहीं आ रहा। केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है और दिल्ली पुलिस सीधे उनकी हूकुमत में आती है उसे देखते हुए अगर कांग्रेस को लगता है कि इस एन्काउन्टर में कुछ गलत हुआ है तो उसे तुरंत उन जिम्मेदार अधिकारियों को घर रवाना कर देना चाहिए। भला ऐसा करने से उसे कौन रोक सकता है। यह उसकी हूकुमत में आता है लेकिन कांग्रेस ऐसा नहीं करती क्योंकि उसे दोनों हाथों से लड्डू खाना है। एक ओर वह आतंकवाद के सामने लडने में आक्रामक तेवर अपना रही है और इस मामले में किसी को छोडना नहीं चाहती वहीं दूसरी ओर मुसलमानों को नाराज करने को भी तैयार नहीं है। कांग्रेस को डर है कि यह एन्काउन्टर नकली था और पुलिस ने बेकसूर मुसलमानों को मार गिराया ऐसा कह दो-चार पुलिसवालों को घर भगा दे या मोहनचंद शर्मा की शहादत पर दाग लगाये तो हिन्दू भडक उठेंगे और भाजपा को एक अच्छा खासा मुद्दा मिल जायेगा वहीं दूसरी ओर अगर अमरसिंह और ममता को आगे बढने दे तो यह लोग मुस्लिम वोट बैंक हजम कर लेंगे। उसे यह दोनों चाहिए। इसलिए यह बीच का रास्ता चुना गया। एक ओर ज्युडिशियल इन्कवायरी का नाटक चलें और दूसरी ओर चुनाव से भी निपटा जायें। भला कांग्रेसियों को कौन समझाये कि यह नामुमकिन है। इसमें तो कांग्रेस की हालत धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का जैसी हो जायेगी।
कांग्रेस और अमरसिंह या ममता चाहे राजनीति खेलें लेकिन सवाल नैतिकता का है। यह लोग जो कह रहे है उसके समर्थन में उनके पास कोई सुबूत नहीं है। पुलिस ने जो एन्काउन्टर किया वह सुबह के उजाले में किया और उसमें एक पुलिस अधिकारी शहीद हुआ। इस एन्काउन्टर में शक की कोई गुंजाइश नहीं है फिर भी इसे शक के दायरे में खींच कर राजनीति खेली जा रही है। अब इससे ज्यादा मैं क्या कहूं ?
जय हिंद

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

ममता और माया : राजनीतिक नौटंकी

मायावती वर्सिस सोनिया और रायबरेली की रणभूमि
केन्द्रीय रेलमंत्री लालूप्रसाद यादव ने 2008-09 के रेल बजट में सोनिया गांधी के संसदीय मतक्षेत्र रायबरेली में रेलवे के डिब्बे बनाने के प्रोजेक्ट की घोषणा की थी। इस प्रोजेक्ट को सोनिया गांधी का ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ माना जाता है क्योंकि इस प्रोजेक्ट के तहत रायबरेली में 10 हजार लोगों को नौकरी मिलने वाली है। इस प्रोजेक्ट में रेल मंत्रालय रु. 1000 करोड का निवेश करेगा और 2010 में उत्पादन शुरु होगा। प्रथम वर्ष 1200 डिब्बे और उसके बाद हर साल 1500 डिब्बों का निर्माण इस प्लान्ट में होगा। इस प्रोजेक्ट के लिए मायावती सरकार ने ही 400 एकड जमीन का आवंटन भी रेल मंत्रालय को कर दिया था और ग्रामसभा ने इस जमीन का कब्जा भी रेल मंत्रालय को सौंप दिया था। 14 अक्तूबर को इस प्लान्ट का शिलान्यास होनेवाला था और उसके चार दिन पहले यानि कि 10 अक्तूबर को रायबरेली के डिस्ट्रिक्ट मेजिस्ट्रेट संतोष कुमार श्रीवास्तव ने घोषणा की कि राज्य सरकार ने यह जमीन रेल मंत्रालय को सौंप दी थी लेकिन इस जमीन पर कोई प्रोजेक्ट शुरु न होने के कारण किसानों में असंतोष था और वे अपनी जमीन वापस चाहते है इसलिए राज्य सरकार ने इस जमीन आवंटन को रद्द करने का निर्णय लिया है। 11 अक्तूबर को मायावती ने रायबरेली के डिस्ट्रिक्ट मेजिस्ट्रेट के रिपोर्ट के आधार पर रेल मंत्रालय को जमीन आवंटन रद्द करने की घोषणा की और उसके कारण सोनिया एवं लालू जिसमें उपस्थित रहने वाले थे उस शिलान्यास को स्थगित रखना पडा। रेल मंत्रालय ने मायावती सरकार के निर्णय को सुप्रीमकोर्ट में ललकारा है और सुप्रीमकोर्ट ने जमीन आवंटन रद्द करने के निर्णय के सामने स्टे दिया है। अब 17 अक्तूबर को सुनवाई होगी। रेल मंत्रालय ने राज्य सरकार के पक्ष में निर्णय आए तो रायबरेली में ही रेलवे की जमीन पर इस फैक्ट्री को शुरु करने की घोषणा कर दी है इसे देखते हुए इसमें दो राय नहीं कि यह प्रोजेक्ट रायबरेली में ही शुरु होगा।
हम जब दुनिया के दूसरे देशों की ओर देखें और उन देशों के विकास की ओर नजर डालें तब अफसोस होगा कि जिनके पास कोई स्त्रोत नहीं है, कोई ताकत नहीं है, मेनपावर नहीं है ऐसे देश आज समृद्ध है। हमारे पास सब कुछ होते हुए भी हम कंगाल जैसी स्थिति में जीने को मजबूर है। यह सवाल बार-बार जेहन में उठता है और इसका सिर्फ एक ही जवाब है हमारी सियासत और राजनेता। हमारा देश पिछडेपन और कंगाल अवस्था में जीने को क्यों मजबूर है? हम सबसे पिछडे क्यों है? क्योंकि हमारे देश में शासनकर्ताओं की एक ऐसी जमात मौजूद है और उनके रहते हमारा देश कभी विकास की बुलंदी को नहीं छु सकता। इन नेताओं ने अपने निजी स्वार्थ के कारण इस देश के विकास में अडचन डाल दी है।
रायबरेली में रेल कोच फैक्ट्री को दी गई जमीन का आवंटन रद्द होना तथा कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी को सार्वजनिक रैली को संबोधित करने से रोकने के लिए धारा 144 के तहत प्रतिबंधात्मक आदेश इन दोनों के कारण उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी सरकार की अक्ल पर तरस आती है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने उस 400 एकड जमीन के मामले पर यथास्थिति बनाये रखने के आदेश दिए हैं जिसका आवंटन मायावती सरकार ने इस तर्क के साथ रद्द कर दिया कि वहां के किसान रेल कोच के लिए जमीन देने को तैयार नहीं है। चूंकि भारत सरकार एवं अन्य तथा रायबरेली के किसानों की ओर दाखिल याचिकाओं पर हाईकोर्ट ने यथास्थिति कायम रखने का अंतरिम आदेश दे दिया अत: बाजी हाथ से जाने की आशंका के चलते मायावती सरकार ने धारा 144 के तहत प्रतिबंधात्मक आदेश जारी कर दिये। राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को शिकस्त देने में चालाकी, चालबाजी और चतुराई की अपनी भूमिका होती है। यहां समझ में आ रहा है कि ऐसे क्षुद्र टोटकों को आजमाकर मायावती अपनी ही फजीहत लेंगी।
राजनीति में मायावती का अपना धाकड अंदाज है। इसी के चलते वह कई बार तानाशाह जैसी भूमिका में दिखाई देती है। दूसरी बात सत्ता की गर्मी उनके सिर पर कितनी ही बार इस हद तक चढी देखी गई कि राजनीति में न्यूनतम संकोच और मर्यादा का पालन तक होते नहीं दिखा।
राजनीतिक जीवन और पद दोनों के मामले में किसी को अमर नहीं कहा जा सकता। वास्तव में कोच फैक्ट्री के भूमि आवंटन को रद्द किये जाने से भारतीय राजनीति में नये संक्रमण के संकेत मिलते हैं। प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल को श्रेय से वंचित करने के लिए अडंगा डालने की राजनीति की जो शुरुआत पश्चिम बंगाल में सिंगूर में तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने की उसे रायबरेली में मायावती ने आगे बढाया है। साणन्द (गुजरात) में कांग्रेस के प्रवक्ता अर्जुन मोढवाडिया भी इस रास्ते पर चलने की सोच रहे हैं। कुल मिलाकर महसूस होने लगा है कि कुछ ठीक नहीं हो रहा है। जहां तक मायावती की बात है, तो वह सत्ता की दादागिरी के चक्कर में कांग्रेस को ही पैर जमाने का मौका दे बैठी है।
कुछ समय पूर्व बंगाल में ममता बनर्जी ने ऐसी ही भावना का प्रदर्शन कर रतन टाटा को बंगाल से भगाया था और अब मेडम माया की बारी है। ममता की लडाई गलत नहीं थी लेकिन उनका स्वार्थ गलत था। मायावती ने अभी जिस तरह रायबरेली में रेल कोच फैक्ट्री के प्रोजेक्ट में अडचन पैदा की है यह उनकी तुच्छ मानसिकता को प्रदर्शित करता है। ममता के किस्से में तो यह विरोध पार्टी में है और उन्हें राजनीतिक तौर पर फिर से खडे होने के लिए एक नौटंकी की जरुरत थी इसलिए उन्होंने यह खेल खेला लेकिन मायावती के किस्से में तो यह मजबूरी भी नहीं है। मायावती उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री है और उनके राज्य में एक बडा प्रोजेक्ट आए, इससे 10 हजार लोगों को नौकरी मिलेगी, तब तो उन्हें इस प्रोजेक्ट के कारण खुश होना चाहिए और इस प्रोजेक्ट का स्वागत करना चाहिए लेकिन मेडम इस प्रोजेक्ट का सत्यानाश करने पर तुली है।
आज जब बडी कंपनियां अपने राज्य में प्रोजेक्ट लेकर आए तो इसके लिए मुख्यमंत्री उद्योगपतियों से अपील करते है लेकिन माया मेडम राजनीतिक हिसाब करने में लगी है यह देखकर दु:ख होता है। जिस देश में ऐसे राजनेता हो वह देश कभी अमरिका या जापान या जर्मनी को छोडो लेकिन चीन या कोरिया की बरोबरी भी नहीं कर सकता। राज्य का जो होना है हो और लोगों को नौकरी मिले या ना मिले लेकिन उनका स्वार्थ पूरा होना चाहिए। अगर हमारा शासनकर्ता ऐसा मानता है तो ऐसा नेता देश का विकास करवा सकेंगे?
रायबरेली के प्रोजेक्ट के मामले सबसे आघातजनक बात तो यह है कि उन्होंने जिस जमीन के आवंटन को रद्द किया यह जमीन उन्होंने ही रेल मंत्रालय को दिया था। उस वक्त मायावती और कांग्रेस के बीच हनीमुन चल रहा था इसलिए मायावती कांग्रेस पर फिदा थी और मेडम सोनिया की हर बात में हां में हां मिलाने को अपना सौभाग्य समझती थी। रायबरेली सोनिया गांधी का मतक्षेत्र है इसलिए उन्होंने झुमते हुए यह जमीन आवंटित किया था। उसके बाद अब तक जैसा होता रहा है वैसा कांग्रेस के साथ भी मायावती का अनबन हुआ इसलिए वे कांग्रेस को दबोचने का मौका ढूंढती रहती है। कांग्रेस ने मुलायम के साथ हाथ मिलाया इसलिए माया मेडम ज्यादा क्रोधित हो गई है और कांग्रेस का पत्ता साफ करने का एक भी मौका गवाना नहीं चाहती। कांग्रेस और मायावती कुश्ती करे या हनीमुन मनाए इससे लोगों को कोई लेना-देना नहीं है लेकिन इसके कारण विकास पर जो असर हो रहा है यह बिल्कुल नहीं चलेगा।
मायावती को इन सब से कोई लेना-देना नहीं है। मायावती भारतीय राजनीति में एक अजीब केरेक्टर है और उनमें दिमाग या तमीज नाम की कोई चीज नहीं है। इनका जिनके साथ अनबन हो जाए उनका सत्यानाश करने में वे किसी भी हद तक जा सकती है। अमरसिंह से लेकर अमिताभ बच्चन और अनिल अंबानी से लेकर आडवानी तक सभी को इन्होंने अपना कातिल अंदाज दिखा दिया है। मेडम जिनके सामने विरोध जताती है उनकी गरज पडे उन्हें गले लगाने में भी इन्हें कोई झिझक महसूस नहीं होती। एक जमाने में मायावती और भाजपा साथ-साथ थे तब मायावती लालजी टंडन को अपना भाई कहती और आडवानी को पिता समान गिनती थी। भाजपा के साथ अनबन होने बाद मेडम भाजपा के नेताओं के कान से कीडे रैंगे ऐसी गालियां देती है। मायावती के लिए यह बहुत ही मामूली बात है। कल को अगर जरुरत पडे तो यह आडवानी को बाप बनाकर पांव पड सकती है और राजनाथ को भाई बनाकर राखी भी बांध सकती है। हमें इससे कोई ऐतराज नहीं है। आडवानी या राजनाथ को ऐतराज ना हो तो हम भला कौन होते है? यूं तो रायबरेली में रेल प्रोजेक्ट स्थापित नहीं हो तो भी हमें कोई ऐतराज नहीं और उसका हमें कोई फर्क नहीं पडता लेकिन हम कहां माया या ममता जैसी मानसिकता वाले है। हम तो पूरे देश को एक मानकर सोचते है इसलिए दु:खी होना पडता है।
माया-ममता या अन्य इनके जैसे लोग एक महत्वपूर्ण बात भूल जाते है। ऐसे छोटे-छोटे मुद्दों से इनका स्वार्थ पूरा होता होगा और दो-चार दिन का नशा चढता होगा लेकिन इससे समाज को और आम आदमी को कोई लाभ नहीं मिलता है। अगर किसी शासक को ज्यादा लंबे समय तक टिकना है तो इन सब मुद्दों को एक ओर रख लोगों के लिए सोचने की आदत डालनी चाहिए, विकास को महत्व देना चाहिए। लोग विकास को याद रखेंगे। आपके स्वार्थभरे विजय को नहीं। धन्य है हमारे देश के यह नेता! ऐसे नेता हो तो हमारा देश आगे कैसे आयेगा?
जय हिंद

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

यह बडे ताज्जुब की बात है...


हमारे देश में मुस्लिम वोट बैंक के लिए राजनेता किसी भी हद तक गिर सकते है और ऐसी राजनीति ओर किसी देश में देखने नहीं मिलेगी। मुस्लिम मतों के लिए हमारे राजनेता जिस तरह मुसलमानों को खुश करने के प्रयास करते है ऐसा तो मुस्लिम देशों में भी नहीं होता होगा। और इसका ताजा उदाहरण समाजवादी पार्टी के नेता अमरसिंह ने दिल्ली में एन्काउन्टर में मारे गये दो आतंकवादियों के मौत के मामले शुरु की कोशिश है।
कौन है यह अमरसिंह ? चलिए, सबसे पहले जानते हैं अमरसिंह के बारे में।
अमरसिंह की करम कुंडली कुछ इस प्रकार है...
27 जनवरी 1956 के दिन उ.प्र. के अलीगढ में पैदा हुए अमरसिंह की परवरिश और पढाई कोलकाता में हुई। मध्यमवर्गीय राजपूत खानदान के अमरसिंह ने हिन्दी मीडियम में पढाई की और सेन्ट जेवीयर्स में से ग्रेजुएट हुए। कोलकाता में अपनी राजनैतिक करियर की शुरुआत करनेवाले अमरसिंह मूल कांग्रेसी है और बुराबझार जिला कांग्रेस समिति के मंत्री के रूप में इन्होंने अपने करियर की शुरुआत की थी। अमरसिंह आज अरबोपतियों में से एक है और इसकी शुरुआत भी वे कांग्रेस में थे तब से हुई थी। कोलकाता में 1980 में उनकी मुलाकात कांग्रेसी नेता वीरबहादुर सिंह के साथ हुई और अमरसिंह ने इसका जमकर लाभ उठाया। 1985 में वीर बहादुर उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बने उसके बाद नये उद्यमियों को सिर्फ एक प्रतिशत ब्याज पर राशि देनेवाली राशि संस्थाओं के साथ समझौते का काम सौंपा और मौके का फायदा अमरसिंह ने अपने बिजनेस को जमाने में किया। 1988 में वीरबहादुर बिदा हुए तब तक अमरसिंह करोडपति बन चुके थे। कांग्रेस में थे तब उनकी मुलाकात माधवराव सिंधिया से हुई। माधवराव 1990 में क्रिकेट बोर्ड के प्रमुख पद से चुनाव लडे थे और उनके प्रतिद्वंदी जगमोहन दालमिया थे। उस वक्त अमरसिंह ने माधवराव को समर्थन दिया और माधवराव एक मत से जीत गये थे। इस अहेसान का बदला माधवराव ने उन्हें ओल इन्डिया कांग्रेस कमिटी में शामिल करवाकर चुकाया। 1990 में मुलायम सिंह यादव का उदय हुआ उसके साथ ही अमरसिंह ने उनके साथ अपने संबंधो को मजबूत बनाना शुरु किया और मुलायम ने जब नई पार्टी की रचना की तब वे मुलायम के साथ जुड गये। तब से अमरसिंह मुलायम के साथ ही है। अमरसिंह का व्यक्तित्व विवादास्पद है और वे सतत विवाद खडा करते रहते है। गुजरात के जमाई अमरसिंह का बॉलीवुड में जोरदार संपर्क है और बच्चन खानदान एवं अनिल अंबानी परिवार के साथ उनकी मित्रता चर्चास्पद है।
दिल्ली में आतंकवादियों ने सिरियल बम ब्लास्ट किये उसके बाद दिल्ली पुलिस जामियानगर में आतंकवादियों की खोज में गई थी और वहां आतंकवादियों ने पुलिस पर गोलीबारी शुरु कर दी और उसमें दो आतंकवादी मारे गए। मोहनचंद शर्मा नामक पुलिस के एक इन्स्पेक्टर भी शहीद हो गये। दूसरे दो आतंकवादी पकडे गये और अभी वे दोनों दिल्ली पुलिस की हिरासत में है। यह कहने की जरुरत नहीं कि, दिल्ली में मारे गए दो आतंकवादी और पकडे गये दोनों आतंकवादी मुस्लिम थे।
दिल्ली में जो एन्काउन्टर हुआ वो नकली था ऐसा हंगामा दंभी सांप्रदायिकों की जमात ने उसी दिन से शुरु कर दी थी। हमारे यहां कुछेक टीवी चैनल वाले भी इस जमात के दलाल के रूप में कार्य करते है और उन चैनलों ने कही से दो-चार लोगों को पकड कर कैमेरे के सामने खडा कर दिया और इन लोगों ने कह दिया कि एन्काउन्टर नकली था। चैनलों को ऐसा ही चाहिए था और उन्होंने राई का पहाड बना दिया। और इस हंगामे का लाभ उठा जामिया मिलिया के वाइस चान्सलर ने घोषणा कर दी कि जो दो आतंकवादी पकडे गये है उनके कानूनी सहाय का तमाम खर्च युनिवर्सिटी उठायेगी।
इस देश में राजनेताओं की एक ऐसी भी जमात है जो ऐसे मौके के इंतजार में पलक पांवडे बिछाये बैठी होती है। ऐसा कुछ हो तब इनके मुंह में मुस्लिम मतबैंक का शहद टपकने लगता है। टीवी चैनलों ने शुरु किया इसलिए यह राजनेता भी कूद पडे। मायावती इसमें सबसे आगे थी। मायावती मुस्लिम वोटों के लिए कुछ भी कर सकती है और इसलिए वे इसमें शामिल हो यह समझा जा सकता है लेकिन उनके पीछे-पीछे कुछेक कांग्रेसी भी इसमें शामिल हो गये। दिग्विजयसिंह, अर्जुनसिंह इत्यादि इस जमात के बेजोड नमूने है और उन्होंने यह झंडा उठा लिया। दिल्ली में कांग्रेस की सरकार है और दिल्ली में कानून-व्यवस्था बरकरार रखने की जिम्मेदारी केन्द्र सरकार की है इसके बावजूद यह कांग्रेसी अपना ड्रामा कर रहे है जो आघातजनक है।
मुलायम और अमरसिंह मुस्लिम वोटबैंक के राजनीतिक चैम्पियन है लेकिन फिलहाल उनकी पार्टी केन्द्र में कांग्रेस को समर्थन दे रही है इसलिए यह लोग खुलकर बाहर नहीं आते थे और अबु असीम आजमी जैसे टट्टुओं को आगे कर बाजी खेलते थे लेकिन कांग्रेसियों को खुलेआम उनकी सरकार के खिलाफ बोलते देखने के बाद कांग्रेस को अहेसास हुआ कि हम शर्म में रह गये और दूसरा इसका फायदा उठा गया। उन्होंने सोचा कि अभी बाजी हाथ से नहीं गई है ऐसा समझकर अभी बाकी रही कसर पूरी करना चाहते हो इस तरह लडाई शुरु कर दी। और इस लडाई के जुनून में अमरसिंह अपना विवेक भी भूल गये और एकदम गद्दारी की हद पर उतर आये है।
अमरसिंह ने जामियानगर के एन्काउन्टर को तो नकली कहा है उसके साथ मोहनचंद शर्मा की शहादत पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। पुलिस नकली एन्काउन्टर कर सकती है लेकिन क्या कोई पुलिसवाला ऐसे नकली एन्काउन्टर में अपनी जान दे सकता है ? और यह सवाल असली या नकली एन्काउन्टर का नहीं है लेकिन हमारे राजनेता कितनी हद तक गिर सकते है उसका सुबूत है। अमरसिंह की पार्टी इस देश की सरकार को समर्थन देती है और ऐसे लोग ही ऐसी बातें करते है यह बडे अफसोस की बात है। अमरसिंह को तो सामने मुस्लिम वोटबैंक दिख रही है इसलिए उन्हें वे क्या कह रहे है उसकी जरा सी भी परवाह नहीं है लेकिन जो लोग अपनी जान की बाजी लगाकर इस देश के लिए लड रहे है उन पर क्या बीत रही होगी इसका विचार करना चाहिए। अमरसिंह की बयानबाजी सुनने के बाद कौन पुलिसवाला आतंकवाद के खिलाफ लडने के लिए तैयार होगा ? आप अपने दो-पांच प्रतिशत मुस्लिम वोटबैंक के लिए एक जांबाज के शहादत की कीमत कोडी की कर दो तो इस देश के लिए लडने हेतु कौन आगे आयेगा। अमरसिंह के बयान पर इस देश में बैठे लोगों ने चुप्पी साधी है यह देख कर मुझे बहुत दु:ख हो रहा है। अमरसिंह ने तो इस मामले केन्द्र में से अपना समर्थन वापिस लेने की धमकी भी दे दी है। कांग्रेस के सत्यदेव चर्तुवेदी जैसे इके-दुके नेता अमरसिंह के इस ड्रामे पर बोले तो अमरसिंह ने बडी बदतमीजी के साथ चिरकूट जैसे विशेषणों का इस्तेमाल कर उनका अपमान किया इसके बाद भी कांग्रेसी दिग्गज चुप्पी साधे है। वास्तव में कांग्रेस को अपनी गर्जना सुनानी चाहिए और अमरसिंह को साफ शब्दों में कह देना चाहिए कि वे अपनी जुबान को लगाम दे और यह समर्थन वापिस लेने की धमकी बंद करे। दिल्ली में जामियानगर में जो हुआ वह नकली एन्काउन्टर नहीं था और इसकी नैतिक जिम्मेदारी कांग्रेस की है। कांग्रेस को इसकी जिम्मेदारी ले खुलेआम बाहर आना चाहिए और अमरसिंह को उसकी औकात बता देनी चाहिए। कांग्रेस को अमरसिंह जैसे लोगों को उसकी हेसियत का अहसास तो कराना ही चाहिए लेकिन इससे पहले जो लोग कांग्रेस में होने के बावजूद सरकार के साथ खडे रहने की जिनकी ताकत नहीं है उन्हें भगा देना चाहिए। जबकि कांग्रेस में यह नैतिक हिम्मत होती तो आज यह दिन देखना नहीं पडता। यह घटना कांग्रेस के लिए एक सबक है। आलम यह है कि गुजरात में हुए आतंकवादियों के एन्काउन्टर के मामले हंगामा मचाने वाली कांग्रेस को अभी अमरसिंह मंडली उनकी ही दवा का डोज उन्हें पीला रही है और कांग्रेस को यह एन्काउन्टर नकली नहीं था ऐसा कह अपना बचाव करना पड रहा है। इसे हम क्या कहें?

जय हिंद

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

अपने वक्त के भारत का नेता

(शास्त्री जी के जन्म दिवस पर)

कद उनका अदना सा था लेकिन बडे मजबूत थे विचार
शास्त्री जी ने दिया था नारा `जय जवान जय किसान'

क्या यही जवान और किसान हमारे राष्ट्र का निर्माण करेंगे ?
जो कि पेट और प्राणों से जुझ रहे है..... लड रहे है

आज उस जवान और किसान की कहानी
आप सभी भारतीयों को है सुनानी

आज का जवान और किसान किस तरह जीता है
जीता भी है या मर-मर कर जीता है

किसान जो कि भारत मां का बेटा कहा जाता है
पूरे दिन खून-पसीना बहाने के बाद भी

अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी तक नहीं जुटा पाता
क्या उस किसान से हमारे राष्ट्र का निर्माण हो पायेगा ?

कुछ बादल ने साथ नहीं दिया, साहुकारों के कर्ज में डुबा सो अलग
इसलिए इन सारी समस्याओं का हल वो आत्महत्या कर सुलझाता है

अब किसान की बीवी जो अपने बच्चों का भूख नहीं देख सकती
और अपने तकदीर को कोसती चल पडती है किसी कुंए की ओर

फिर किसान की जवान होती बेटी पर हर निगाह लगी थी
वह किसी अंधेरे कोने में अपने आपको छुपाना चाहती है

लेकिन,
वहां भी उसे ढूंढ लिया उन खूंखार भेडियों ने
और यह सारा मंजर देखता है किसान का जवान होता बेटा

इतना सब कुछ होने के बावजूद उसमें लडने की खुमारी है,
वर्तमान की न्याय व्यवस्था पर वह आंखें टिकाये खडा है

वो सोचता है कि उसे कभी तो न्याय मिलेगा
लेकिन उसका सोचना शून्य था.......

फिर वो चल पडता है उन हैवानों की बस्ती की ओर
अपनों को खोने का दर्द और जा मिलता है उस गुट से

जो उसे अवाम के नाम पर गुमराह करता है
और आतंकवादी के रुप में उसका नया जन्म होता है

क्या उस जवान से हमारे राष्ट्र का निर्माण हो पायेगा ?

भारत में सिर्फ डार्विन का सिध्धांत ही चल पाया है
शक्तिशाली ही यहां दो वक्त की रोटी खा सकता है

इसलिए .....
जय जवान जय किसान नहीं
जय फायदेवाला धर्म और बाकी सब राष्ट्रीय शर्म बोलिए
जय हिंद

एक पैगाम बापू के नाम

(गांधी जी के जन्म दिवस पर)

आज 2 अक्तूबर है बापू
आपका जन्म दिन है आज

हे मानव संस्कृति के मूर्तिमान,
भारत आत्मा के मंत्राकार !

आज राज्य के कार्यालयों में साल भर से धूल फांकती
आपकी प्रतिमा को साफ किया जायेगा...

आज नेता, अफसर लंबे-लंबे भाषण देंगे आपके विचारों पर
लेकिन अमल कोई नहीं करेगा...

आपकी प्रतिमा पर माला चढाई जायेगी
और आदर्शो की स्तुति गाई जायेगी...

भारत बहुत बदल चुका है..... बापू !

हां ! यहां विकास तो बहुत हुआ है
लेकिन आम आदमी का नहीं, संस्कृति-सभ्यता का नहीं

यहां सच पल-पल मरता है,
झूठ का बोलबाला है..... बापू !

ईमानदारी को छलनी किया जाता है,
समझदारी को बेवकूफी समझी जाती है

बेईमानी से सारे देश का कारोबार चलता है,
भला परिश्रम कौन करना चाहेगा?

भारतीय अब चाह कर भी तपस्या नहीं कर सकता है
और ना ही अपने अधिकारों के लिए लड सकता है

क्योंकि,

उसे अपने अधिकार मांगने पर असंख्य समस्याओं से घेरा जाता है
मजबूर कर सत्य से कोसों दूर उठाकर फेंक दिया जाता है..... बापू !

जो इंसाफ की गुहार लगाता है उसे केवल धक्कों के कुछ नहीं मिलता
और झूठ के बलबूते पर खोटा सिक्का चलता रहता है

लंबी जिरह और तारीखों के बीच उसके पैर के जूते घिस जाते है
आजादी के 61 साल बाद भी भारतीय गुलामी में जी रहा है

इंसाफ मांगने वाला दम तोड देता है और फिर,
उसकी फाइल हमेशा के लिए बंद हो जाती है

तो वह गुलाम हुआ कि नहीं?
भारत की आत्मा मर चूकी है..... बापू !

भारत तो उसी दिन मर चुका था जिस दिन आपकी हत्या हुई थी
उस मरे हुए भारत का आपको प्रणाम है..... बापू !

उसे राह दिखाने वाला, सोचने की ताकत देने वाला अब कोई गांधी नहीं रहा
अब तो केवल वोटों की चोटों पर आप केवल नोटों पर ही दिखते हो

आज के युवा आपके विचार और आदर्श पर हंसते है
अहिंसा, धर्म और सत्याग्रह जैसे शब्दों का कोई मोल नहीं रहा

आपके देश में आपको ही ब्लेक मेल किया जाता है
सिसकियों और चीत्कारों से आकाश भरा पडा है

बेगुनाह जिंदगियां बेवक्त कफन ओढने को मजबूर हुई है
हाय! दहशतगर्द बेखौफ है, भारत की तकदीर फूट गई है

हम मनुष्य नहीं, नागरिक नहीं, कठपूतलियां है
हम ताकतवरों और षडयंत्रकारियों की राजनीतिक संपत्ति हैं

उफ ! `सोने की चिडिया' कहा जाने वाले भारत का चेहरा धुंआ-धुंआ
चीख-पुकार और आर्तनाद! और सोती रहेंगी सरकार ?

सत्याग्रह को आधार बना अहिंसा के मार्ग पर चलकर
आपने ब्रिटिश सरकार को घर भगाया था

लेकिन आज विषधारी नागों की टोली से,
हमें मुक्त कौन करवायेगा? ..... बापू !

बापू ! इन घर के भेदियों ने चिंता बढा दी है
आपके आदर्श और विचारों की पल-पल हत्या होती है

बडे-बडे समाजवादी अपने विचार प्रस्तुत करते तो है
लेकिन चलता कोई नहीं,..... बापू !

क्योंकि वे जानते है यह मार्ग बडा ही कठिन है
सिर्फ प्रवचनों में ही अच्छा लगता है

उन नेताओं के मुख से आपका नाम सुनना भी
मुझे आपका अपमान सा लगता है,..... बापू !

आज सत्य की धुरी पर समय का रथ डगमगा रहा है
सत्ता की लडाइयों में आजादी का अर्थ कहीं खो गया है

क्या इन समस्याओं का कोई समाधान नहीं?
इन राजतंत्र के खंडहर में भारत स्वतंत्रता की सांस कब लेगा?

शांति-अमन की कामना अब व्यर्थ है
क्योंकि, आतंक के छाये में हम जीने के आदि हो चुके है

आज मेरे पैगाम से आपको आघात पहुंचा है ना..... बापू !
इन अधूरी मंजिलों को कौन मोल लेगा

आज आपके जन्म दिन पर मेरे पास आपको देने के लिए कुछ भी नहीं है
सिवा कि इन भीगी पलकों से मैंने अपने भग्न हिय का भार उतारा है

इसलिए..... बापू !
ये दो-चार आंसू ही मेरी ओर से भेंट है आपके लिए

हिंद को एक बनाने के लिए आपने अपनी पूरी जिंदगी बिता दी थी ना
लेकिन आज इसी हिंद को टुकडों में बांटने के लिए पूरी अवाम आगे आयी है

वो भी अपने-अपने धर्मों का झंडा हाथ में लिए
अपने-अपने खुदा और भगवान की इबादत और प्रार्थना के बाद

अब कुछ नहीं बचा है..... बापू !
भारत का समाजवादी लोकतंत्र का सपना खो गया है कहीं.....
जय हिंद

बुधवार, 17 सितंबर 2008

बिना नाक वाले पाटिल


गलियां जहां विरान और मोहल्ला है सुनसान
जिन्दा इंसानों की बस्तियां बन गई शमशान

कहीं आंख में नमीं थी, कहीं अश्क बही थी
हूकुमत के आगे आज आम इंसान परेशान

शैतानी बस्तियों से आया था कोई हैवान
भारत की रानी हो गई फिर से लहूलुहान

भोर में ना कोई शंख बजा ना शाम को आजान
लहू बहा जिन धर्मों का रंग था उनका एक समान

देश ने हाल के वर्षों में सिलसिलेवार बम धमाके झेले हैं। जयपुर, बंगलुरु, अहमदाबाद और अब दिल्ली। आतंकवादी हमलों के मद्देनजर सरकार की ओर से कोई मुक्कमल तैयारी नहीं दिख रही जो लगातार हो रहे धमाकों से पता चलता है। पांच दिन बीतने के बावजूद अब तक कोई सुराग नहीं मिल पाया है। सियासत कमान्डो के बीच सुरक्षित है, आम आदमी के जान की किसी को कोई परवाह नहीं है। मैं पूछती हूं कि क्या आम आदमी का लहू इतना सस्ता है? अभी जो तमाशा हो रहा है और जांच का नाटक खेला जा रहा है कुछ दिन बाद सब भुला दिया जायेगा। और इस आंतरिक सुरक्षा की नाकामी को देखते हुए पाटिल पर निशाना लाजिमी है। जिसे सरकार ने गंभीरता से लिया। बम ब्लास्ट गंभीर समस्या है। ऐसे गंभीर मसले पर चर्चा में पाटिल को शामिल नहीं किया गया। यही नहीं, उस बैठक में कई मंत्रियों ने उनकी कार्यशैली पर नाखुशी जताई। इससे पहले भी लालू यादव उनकी शिकायत सोनिया गांधी से कर चुके हैं। आतंकवाद के प्रति इस सुस्त नजरिये का संप्रग को अगले चुनाव में खामियाजा भुगतना पड सकता है। लिहाजा सत्ता के गलियारे में पाटिल की विदाई के कयास लगाए जा रहे हैं। इससे बडा अपमान क्या हो सकता है ! इनकी जगह कोई ओर होता तो कब का इस्तीफा दे चुका होता। लेकिन बिना नाक वाले पाटिल को कोई फर्क नहीं पडता। इन्हें तो चुल्लु भर पानी में डूब मरना चाहिए। इन्हें मान-अपमान की जरा सी भी परवाह नहीं है। कांग्रेस अगर वास्तव में पाटिल को गृहमंत्री पद से हटाना चाहती है तो यह इस देश पर बहुत बडा उपकार होगा।
शिवराज पाटिल एक असफल गृहमंत्री है। 2004 में इनके गृहमंत्री बनने के बाद ही देश में सबसे अधिक आतंकवादी हमले हुए है। 2004 से लेकर अब तक 12 जितने आतंकवादी हमले हुए है जबकि छोटे आतंकवादी हमलों की तो कोई गिनती ही नहीं हो सकती। शिवराज पाटिल के कार्यकाल से आतंकवाद देश के कोने-कोने में पहुंच गया। उनके कार्यकाल के दौरान हुए बडे हमलों पर गौर करें तो पता चलता है कि देश का एक भी बडा शहर आतंकवादी हमले से अछूता नहीं रहा। पाटिल मंत्रालय की सबसे बडी असफलता यह है कि सुरक्षा एजेंसी पूरी तरह विफल गई और एक भी हमले की इन सुरक्षा एजेंसियों को कानो-कान खबर नहीं हुई। इससे भी बडी असफलता तो यह है कि, अब तक उन जिम्मेदार लोगों को ढूंढने में वे सफल नहीं हो पाये। संसद पर 2001 में हुए हमले के केस में जिसे फांसी की सजा हुई है उस अफजल गुरु को फांसी देने में जो विलंब हो रहा है उसका जिम्मेदार भी पाटिल मंत्रालय ही है। डॉ. कलाम ने अफजल के फांसी की फाइल को 2003 में ही गृह मंत्रालय को भेज दिया था लेकिन उस फाइल को दबा दिया गया है जिसके जिम्मेदार पाटिल ही है।
सवाल केवल उनकी अकर्मण्यता का नहीं है। उनके ड्रेस सेंस का जो विवरण है वह बेहद चौंकाने वाला है। शनिवार को विस्फोट से पहले कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में वह गुलाबी सूट में थे, विस्फोट के बाद मीडिया को संबोधित करते हुए काले सूट में, और रात में घायलों को देखने जाते समय झक सफेद सूट में। नफासत बुरी चीज नहीं है, लेकिन त्रासवादियों के बीच यह आपकी संवेदनहीनता का भी सूचक है। जिस पर गृह सचिव यह कहकर जले में नमक छिडक रहे हैं कि हर हमले के बाद अनुभव बढता है। क्या आतंकवाद कोई प्रयोगशाला है, जिसमें हर हमले से सरकार सीख रही हैं? अपनी छवि की खास परवाह करने वाले गृहमंत्री अगर आतंकवाद को निर्मूल करने के बारे में भी सोचते, तो आज उनकी इतनी किरकिरी नहीं हो रही होती। अपने लिबास की उन्हें जितनी चिंता है, देश की सुरक्षा व्यवस्था की उतनी क्यों नहीं? यह हमारी सुरक्षा क्या खाक करेंगे। जिसकी किमत जनता अपनी जान गंवाकर चुका रही है।
पाटिल की असफलताओं का ग्राफ बहुत बडा है लेकिन दिल्ली ब्लास्ट के बाद वे सबके आंख में किरकिरी बन गए है। कांग्रेस में ही उन्हें हटाने के लिए माहौल बना हुआ है जिसके चलते यह फैसला जल्द से जल्द हो जाना चाहिए और इन्हें घर रवाना कर देना चाहिए। ऐसे गृहमंत्री की देश को कोई जरूरत नहीं है।
हमारे देश का गृहमंत्री कैसा होना चाहिए? जिसमें एक आग हो। जो ईंट का जवाब पत्थर से देना जानता हो। पाटिल जैसा गृहमंत्री बिलकुल नहीं चलेगा। फीके-फीके मनमोहन सिंह को कडा रवैया अपनाना चाहिए। ऐसे गृहमंत्री को लात मार कर भगा देना चाहिए।
इस देश की राजनीति के आगे मेरी बौनी सी कलम कुछ भी नहीं है, लेकिन ये तो वक्त ही बतलायेगा कि किसकी चोट ज्यादा है और किसकी कम है। ये राजनेताओं के छिपे खेल तो दब जायेंगे लेकिन मेरी कलम में अंगारों से भरी स्याही कभी नहीं सुखेगी।
देश के सियासत में ऊंचे तख्त पर भेडिये ही भेडिये बिराजमान है। बात पगडी और टोपी की है। मेरी बोली कडवी जरुर है लेकिन यह समय की जरूरत है। राष्ट्र प्रेम और राष्ट्रद्रोह की जंग जारी है। ये तो वक्त ही बतलायेगा कि किसको विजय मिलेगी।
न दोष किसी के देखो, न पोल किसी का खोलो...
स्वतंत्र के देश के नौजवानों, गांधी जी की जय बोलो...

जय हिंद

सोमवार, 8 सितंबर 2008

बिहार बाढ राहत पर राजनीति

आप सब सोच रहे होंगे कि, क्या बाढ पर राजनीति हो सकती है? जी हां, बिलकुल हो सकती है। हमारे देश का उसूल है, यहां सभी प्रकार की समस्याओं पर राजनीति की रोटी सेंकी जाती है। तो फिर हमारे माननीय नेतागण भला इस बाढ को कैसे छोड देते।
हम सब पिछले 21 दिन से पानी में डूबे गांव, खेत, रास्ते, घर और खाने पर टूटकर पडते अवश लोगों के समूह और पानी में खोए अपनों को तलाशती लगभग भरी हुई हजारों जोडी आंखों को लगातार देख रहे है। बिहार में हर बार बाढ आता है लेकिन इस बार की बाढ को राजनेता कैटरिना और सुनामी जैसा खतरनाक बता रहे है। हर बार की बाढ जीवन को सालों पीछे धकेल देती है।
वर्ष 1945 में कोसी योजना के तहत कोसी पर नेपाल से लेकर बिहार में गंगा के संगम तक दोनों किनारों पर 10 किलोमीटर लंबे तटबंध का प्रस्ताव बना था। पर यह तब तक फायदेमंद नहीं हो सकता था, जब तक नेपाल के बाराह इलाके में बांध नहीं बनाया जाता। तत्कालीन वायसराय लार्ड वेवल ने टेनेंसी वैली परियोजना की तर्ज पर काम शुरु करवाया, पर वह काम बिना कारण बताए बंद कर दिया गया। तब से आज तक बिहार की नदियों पर बने 3,454 किलोमीटर लंबे तटबंध टूटकर या लोगों द्वारा काटने से विनाश की कहानियां रच रहे हैं। हर साल यहां का 76 फीसदी इलाका बाढ में डूब जाता है, जो देश की कुल बाढ प्रभावित आबादी का 56 फीसदी है। इस समय अकेले उत्तर बिहार में 2,952 किलोमीटर लंबे तटबंध हैं, जिनके निर्माण में खरबों रुपये लगे हैं। लेकिन ये बाढ से बचाव के बजाय बाढ की विभीषिका के पर्याय बने हुए हैं। कोसी नदी के आसपास के लगभग 10 जिलों के 387 गांव इस बाढ की भेंट चढ चुके है।
वर्ष 1956 में नेपाल सरकार द्वारा भारत की सरहद पर विराट बांध बांधकर कोसी नदी के पानी को रोकने की कोशिश की गई थी। नेतागण का मानना था कि बांध बांधने से बाढ का पानी ज्यादा नहीं आ पायेगा। लेकिन अब उनकी समझ में आ जाना चाहिए कि इस तबाही का कारण ही बांध है। कोसी नदी ने भारत-नेपाल सीमा पर बने कुशहा बांध को तोड दिया और 200 वर्ष पुराने रास्ते पर फिर से बह चली। इस नदी को बिहार का शोक कहते है लेकिन कोसी किनारे के लोग इससे पूरी तरह सहमत नहीं। वे नदी और बाढ के साथ जीना सीख गए थे, पर विकासवादियों ने बाढ सहजीविता की उनकी कला ही नष्ट कर दी। नदी किनारे बसने वाला यह पानीदार समाज अब असहाय है। बाढ के साथ जीने वाले बांधों में कैद नदी की विभीषिका का अनुमान नहीं लगा पा रहे। वे असहाय बना दिए गए हैं। आज तैरने वाला समाज डूब रहा है।
तटबंधों की लंबाई, चौडाई और मोटाई से बाढ नहीं रुकती। बाढ अतिथि नहीं है, इसके आने की तिथियां बिलकुल तय है। लेकिन हमने विकास की पीठ पर सवारी करते-करते इस चेतावनी पर ध्यान ही नहीं दिया। पक्षों की बात को बाजु में रख शासक और तंत्र को सोचना चाहिए कि असली प्रगति और विकास किसे कहेंगे? अब जो बचा है उसे ही आगे बढाये यही काफी है। यह भी सही है कि रातोरात महल नहीं बन सकता। कछुए की तरह विकास होगा तो भी यह हमारे लिए कम नहीं।
बाढ से करीब 40 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित है। करीब 20 लाख लोग गायब भी बताए जा रहे है। ढाई लाख एकड कृषि भूमि का नुकसान हुआ है। राहत कैंपों की हालत खराब है। लोग वहां पत्ते खाकर किसी तरह जिंदा है। जहरीले जानवरों का डर अलग से है। उन्हें तत्काल भोजन, सिर छिपाने की जगह, दवा, पानी, कपडे, टेन्ट, चारपाई, केरोसिन, टॉर्च, दियासलाई आदि चाहिए। लोगों की आजीविका के मुख्य साधन पालतू और दूध देनेवाले पशु बाढ में बह गए है। गांव तो गांव छोटे-छोटे नगरों का कोई पता नहीं। बिहार में लगभग हरेक वर्ष खेती की दस लाख हेक्टेयर जमीन बाढ के पानी में तबाह होती है। करीब 2.5 करोड आबादी प्रत्येक वर्ष यह त्रासदी झेलती है। बडे पैमाने पर लोगों के विस्थापित होने, गर्म जलवायु और साफ-सफाई के अभाव सहित अन्य कारणों के चलते जलजनित रोगों के फैलने का खतरा बना हुआ है।
प्रधानमंत्री के हवाई दौरे ने एक अरब की सहायता राशि देकर इस बाढ को राष्ट्रीय आपदा घोषित कर दिया है। सरकारी कर्मकांड की लगभग सभी मुख्य रस्में पूरी कर दी गई। गले तक बाढ के पानी में डूबे लोग बेबस-बेकस हैं, लेकिन वे किसी भ्रम में नहीं हैं। उन्हें मालूम है कि सरकारी सहायता, राहत कार्य, राष्ट्रीय आपदा घोषणा आदि का मतलब क्या होता है। सभी जानते है। वर्ष 2002 में बाढ प्रभावित दरभंगा जिले के 18 प्रखंडों में सरकारी राहत महज 5.49 प्रतिशत लोगों तक ही पहुंच पाया था। इस बार एक अरब रुपये की सहायता और राष्ट्रीय आपदा का दरजा मिलने के बाद देखना है कि वहां राहत और बचाव कार्य कितना हो पाता है। राहत की घोषणा तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी की है। पर बिहार का सरकारी और गैर सरकारी तंत्र इस सहायता का लाभ प्रभावितों तक सचमुच पहुंचा पाएगा, इसका भरोसा बिहार के लोगों भी नहीं है। बिहार का आपदा प्रबंधन विभाग खुद ही लकवाग्रस्त है। वहां की सरकार भी खास कुशल नहीं रही। केन्द्र सरकार, राज्य सरकारें और स्वैच्छिक संस्थाएं काम पर लग गई है। लेकिन सवाल यह है कि 40 लाख से ज्यादा बाढ प्रभावित रहेंगे कहां? खाने-पीने के अलावा उनके बैठने-उठने की जगह भी ढूंढनी पडेगी। बस स्टेशन और रेलवे स्टेशन पर पहुंचने के बाद उन्हें खाने-पीने की सामग्री तो मिल रही है, लेकिन ऐसी जगह ये लाखों लोग एक साथ कैसे रह सकते है? वहां प्रभावित लोगों को पलायन होने से रोकना सबसे बडा पुण्य होगा। क्योंकि, इससे दूसरे राज्यों में हालात बेकाबू हो सकते हैं। इसलिए किसी एक को नहीं, एक अरब लोगों को मिलकर मदद करनी चाहिए।
अब मुख्य विषय पर आते है कि इस बाढ से राजनीति का क्या लेना-देना। इसे भारत का दुर्भाग्य कहा जा सकता है कि, देश में जब कभी कुदरती या मानवसर्जित आपदा आती है तब देश के माननीय नेतागण को राजनैतिक खिचडी पकाने का मौका मिल जाता है। एक-दूसरे पर कीचड उछालना... झूठ बोलना... इनकी रोजमर्रा की आदत में शुमार है। सभी पक्ष-प्रतिपक्ष एक दूसरे को बढ-चढ कर आगे लाने में जुट जाते है। अभी इस बात का मुख्य विषय से कोई लेना-देना नहीं लेकिन सिर्फ इतना ही कहूंगी कि ये लोग तो पराये देश में भी हमारे देश को नीचा दिखाने में पीछे नहीं हटते। सभी इस प्रलंयकारी बाढ प्रभावितों की राहत में जुटे हुए है और अपना-अपना सिक्का जमाने में लगे हुए है। लेकिन इसमें सबसे दिलचस्प और शर्मनाक किस्सा गुजरात राज्य का है। बताया जाता है कि गुजरात भाजपा अहमदाबाद सिरियल ब्लास्ट में मारे गए 55 लोगों के परिजनों को फूटी कोडी सहाय नहीं दे सकी और अब बिहार के बाढ प्रभावितों की मदद के लिए बढ-चढ कर उत्साह से काम पर लग गई है। लेकिन इनका तरीका बडा ही शर्मसार करने वाला है।
सिरियल ब्लास्ट में जो 55 लोग मारे गए उन्हें राज्य सरकार द्वारा प्रत्येक परिवार को पांच-पांच लाख सहाय देने की घोषणा हुई थी। विपक्ष कांग्रेस ने प्रत्येक मृतकों के परिवार को एक-एक लाख दिए हैं। कांग्रेस ने मृतकों के परिवार के लिए घोषणा की तब भाजपा नेताओं को पूछा गया कि, भाजपा इन मृतकों के परिवार को कांग्रेस की तरह कोई सहाय देना चाहती है या नहीं? ऐसा पूछने पर उनका जवाब था कि, "हमारी सरकार ने रुपये दिए तो है। हम दें या हमारी सरकार दें बात तो एक ही है।" भाजपा के यह नेता भूल गए कि सरकार के रुपये भाजपा के नहीं है लेकिन जनता के पसीने की कमाई है। अहमदाबाद सिरियल ब्लास्ट के मृतकों के परिवार को एक रुपये की भी सहायता नहीं देने वाली भाजपा ने बिहार के बाढ प्रभावितों के लिए लोगों के पास जाकर पुराने कपडे नहीं लेकिन... नई साडियां, धोतियां, कंबल, गद्दीयां, बरतन इकठ्ठा करने के लिए अपने कार्यकर्ताओं को सूचना दी है। बताया जाता है कि भाजपा लोगों से यह राहत सामग्री इकठ्ठा कर कीट बना उस पर अपना सिक्का लगाकर बिहार भेजेगी तब सहाय लेने वाली बिहार की जनता भाजपा के गुणगान गायेगी या गुजरात की जनता की? अनाम बनकर वहां बिना किसी प्रचार और दुंदभि के मदद करनी चाहिए कि लोग भूल जायें कि वहां बाढ आई थी। राहत पर राजनीति बाद में कर लीजिएगा। पहले इन चुनौतियों से तो निपटो। बहरहाल, सरकार क्या कर रही है, यह सवाल बेमानी है। हम क्या कर रहे हैं, यह सवाल मौजू है। लिहाजा, मानकर चलें कि बाढ हमारे अपने किसी के घर से होकर गुजरी है।
जय हिंद

बुधवार, 3 सितंबर 2008

BMW केस : भारत के न्यायतंत्र में देर सही पर अंधेर नहीं

बात है दिल्ली के BMW केस यानि, भारतीय नौकादल के भूतपूर्व प्रमुख ए एस एम नंदा के नाती संजीव नंदा की। संजीव नंदा 10 जनवरी 1999 को गुडगांव से अपने दोस्त मानेक कपूर के साथ पार्टी में से अपनी बहन की BMW कार में वापिस आ रहा था तब लोधी चेक पॉइन्ट पर पुलिस ने उसे कार रोकने को कहा लेकिन नशे में धूत संजीव नंदा ने कार को रोकने के बजाय पुलिस अधिकारियों पर कार चढा दी।
इस वारदात में चार कॉन्स्टेबल घटनास्थल पर ही मारे गए थे जबकि, दो ने अस्पताल में दम तोड दिया था। मनोज नामक एक युवक गंभीर रूप से घायल हुआ था। संजीव दुर्घटना के बाद कार रोककर नीचे उतरा था लेकिन मानेक के कहने पर वापिस कार में बैठ गया था और कार भगाकर उसके दोस्त सिध्धार्थ गुप्ता के घर पहुंचा था जहां कार की साफ-सफाई कर दी गई थी।
जबकि, घटनास्थल पर मिले कार के नंबर प्लेट के आधार पर संजीव ने दुर्घटना किए होने का रहस्य खुला था। सुनील कुलकर्णी नामक मुंबई के एक व्यापारी ने इस वारदात को अपनी आंखों से देखा था। बयान में उसने कहा था कि, उसने संजीव नंदा को कार चढाते हुए देखा है। जबकि, मनोज नामक युवक जो इस हादसे में बच गया था उसने अपने बयान में कहा कि, वह शायद ट्रक से घायल हुआ है। बयान देने के पश्चात मनोज रहस्यमय रूप से गायब हो गया था।
संजीव नंदा की इस केस में गिरफ्तारी हुई थी लेकिन बाद में इस रईसजादे को 15 करोड के जमानत पर छोड दिया गया था। इसके बाद संजीव नंदा भारत छोडकर फरार हो गया था। जबकि, GNFC बराक मिसाइल सौदे के केस में वह मार्च 2008 से जेल में है। 2007 में इस केस में दिल्ली की एक कोर्ट ने संजीव सहित तमाम सहयोगियों को सुबूत के अभाव में निर्दोष बरी कर दिया था।
अब बात करते है कि यह केस इतने सालों बाद किन कारणों से चर्चा में आया है। तो इसकी वजह है संजीव नंदा और उसके सहयोगी जो निर्दोष बरी हो गये थे वे किस तरह बरी हुए.... इसके पीछे क्या माजरा था। संजीव नंदा बडे बाप की बिगडी हुई औलाद है। और जैसे फिल्मों में हमें देखने को मिलता है उसी तरह इस बिगडी हुई औलाद को बचाने के लिए उसके बाप ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी।
आर.के.आनंद की गिनती देश के जाने-माने वकीलों में होती है और संजीव के बाप ने अपने रईसजादे को बचाने के लिए आनंद को केस सौंपा था। आनंद ने बाकी सारे प्यादों को ठीक से जमा लिया था लेकिन एक रास्ते का रौडा था सुनिल कुलकर्णी। संजीव ने अपनी कार के नीचे जिन सात लोगों को कुचला था उसे सुनिल ने अपनी आंखों से देखा था और दूसरे गवाह बयान से मुकर गये थे तब भी सुनिल अपने बयान पर अडिग था। सवाल था कि अब सुनिल का क्या किया जाए। इस केस में पब्लिक प्रोसिक्यूटर के तौर पर आई.यु.खान नामक वकील थे और खान की आनंद के साथ पुरानी और अच्छी दोस्ती थी। इस केस में भी खान ने आनंद को तन, मन, धन से मदद की थी। आखिरकार, सुनिल को मनाने के लिए खान को मैदान में उतारना पडा। खान ने सुनिल को पैसों का ऑफर दिया। सुनिल ने ढाई करोड मांगे और फिर थोडी माथापच्ची हुई। जबकि,खान और आनंद को पता नहीं था कि, सुनिल उन्हें मामू बना रहा है और एक टीवी चैनल उनकी फिल्म उतार रही है। इस पूरे सौदेबाजी की फिल्म उतारी गई और बाद में चैनल ने आनंद और खान का भंडा फोड दिया। और पूरा स्टिंग ऑपरेशन दुनिया को दिखा दिया। एक अपराधी के वकील से मिलकर एक सरकारी वकील कैसे-कैसे कारनामों को अंजाम देता है उसे देख लोगों के दांतों तले ऊंगलियां दब गई थी।
इस मामले की तह तक पहुंचने में माननीय अदालत को नौ वर्ष का लंबा समय जरूर लगा, किंतु जो नतीजा निकला है, वह न्यायपालिका की नीर-क्षीर विवेकी क्षमता की पृष्टि करता है। पटियाला हाउस अदालत ने संजीव नंदा को गैर इरादतन हत्या का दोषी करार दिया है। यदि यह महज एक सडक दुर्घटना होती और दुर्घटना के लिए जिम्मेदार किसी ड्राइवर के खिलाफ केस चल रहा होता, तो शायद इसकी तरफ लोगों का ध्यान नहीं जाता। लेकिन यह एक ऐसी कहानी थी, जिसमें कुछ अमीर लोगों द्वारा बडी ह्रदयहीनता के साथ आम लोगों को कुचलने के बाद सुबूत नष्ट करने से लेकर छिपने-छिपाने और अदालत में मामले को अपने पक्ष में मोडने तक की भौंडी कोशिशें की गई थी। अमीरी के नशे में लोग सोचते हैं कि धन के जरिये वे कुछ भी खरीद सकते है। चूंकि अपने देश में ऐसा होता रहा है।
21 अगस्त 2008 को दिल्ली हाईकोर्ट ने इस स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर आनंद और खान दोनों की प्रैक्टिस पर चार महिने की पाबंदी लगा दी। देश के सर्वश्रेष्ठ वकीलों का कहना है कि, आनंद और खान ने जो गुल खिलाये और न्यायतंत्र को खरीदने की जो गुस्ताखी की है उसके सामने यह सजा बेहद सस्ती और मामूली है यानि कि, यह दोनों बहुत सस्ते दाम पर छूट गए।
हाईकोर्ट ने जो फैसला दिया है वह दो रूप से काबिलेतारीफ है। एक तो हाईकोर्ट ने मीडिया के स्टिंग ऑपरेशन पर भरोसा किया और दूसरा यह कि, इससे इस देश की जनता में एक नेक संदेश जाता है कि, वकील चाहे बिकाऊ हो.... रईसों के तलवे चाटते हो.... उनके दलाल बनकर न्यायतंत्र को मजाक समझते हो लेकिन कानून बिकाऊ नहीं है...... पैसों के जोर का इस पर कोई असर नहीं हो सकता..... कानून अपना फर्ज नहीं भूला है।
और आज इस केस के अपराधियों को सजा सुनाई जानेवाली है तब देखना यह है कि, जहां पैसा बोलता है..... वहां इन्साफ क्या बोलता है।
यह सुखद संयोग ही है कि पिछले एक वर्ष के दौरान हमारी अदालतों ने लगभग सभी हाई-प्रोफाइल मुकदमों में दूध का दूध और पानी का पानी किया। BMW मामले में नंदा को दस वर्ष तक की जेल हो सकती है, लेकिन सवाल सजा की अवधि का नहीं, दोष पर मुहर लगने का था, ताकि समाज इससे सबक ले सके।
जय हिंद

शनिवार, 2 अगस्त 2008

...लडने की जिम्मेदारी किसकी ?

भारत जैसे आतंकवादियों का अभयारण्य बन गया है। जयपुर में विस्फोट... बंगलुरू थर्राया... आतंकवादी धमाकों से अहमदाबाद दहला... मुझे तो लगता है कि हम भारत में नहीं इराक या अफघानिस्तान में रह रहे है। दहशतगर्दो ने इन भीषण हमलों से झकझोर कर हमारी सरकारी नाकामी, सुरक्षा व्यवस्था की काहिली और खुफिया विफलता को उजागर किया है।
पिछले चार वर्षो में अयोध्या, दिल्ली, बनारस, गोरखपुर, हैदराबाद, बंगलुरू, मालेगांव, अजमेर, जयपुर और मुंबई में एक के बाद एक दिल दहला देने वाली घटनाएं घटी है। इतने बडे पैमाने पर लोगों की मिलीभगत होती है। सब जगह एक जैसा पेटर्न रहा है। हर बार कुछ लोग पकडे जाते है और जेबकतरों की तरह उनसे कुछ पूछताछ भी होती है, लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। सरकार उनके खिलाफ कोई ठोस निर्णय नहीं ले पाती। वह चाहती भी नहीं क्योंकि निर्णयों में राजनीतिक जोखिम होते है। हमारी सरकारें देश के लिए नहीं, अपने निहित स्वार्थो के लिए काम करती है। बीच-बीच में खबरें आती है कि अब आईएसआई बांग्लादेशी आतंकी संगठन हूजी के जरिये यह सब करवा रहा है। लेकिन ऐसी कोई खबर आज तक नहीं आई कि हमारी एजेंसियां उनके खिलाफ क्या रणनीति अपना रही है।
कडे कानूनों का अभाव, राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी, ढुलमुल सरकार वाले देश में आतंकवादी कब अपनी साजिश को अंजाम दे देते है, किसी को कानो-कान खबर नहीं हो पाती। इस देश में आतंकवाद को धर्म के तराजू में तौला जाता है।
क्या बंगलुरू में मारे गए कन्नडियन का खून दिल्ली के सरोजिनी नगर में मारे गए पंजाबी के खून से जुदा है ? क्या बनारस में मारे गए व्यक्ति का खून हिंदू था, और मालेगांव में मारे गए व्यक्ति का खून मुस्लिम ? क्या मारे गए निर्दोष कांग्रेसी या भाजपाई होते हैं ? जिस तरह से हमारे राजनेताओं ने बम धमाकों पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकनी शुरू कर दी है, क्या उस भावना के साथ हम आतंकवादियों का मुकाबला कर पाएंगे ? क्या हमारी राजनीतिक नेतृत्व, हमारी ब्यूरोक्रेसी, हमारी सुरक्षा एजेंसियों के भीतर वह भावना है ? यदि होती, तो शायद आज हम इतने असहाय नहीं होते।
आतंकवादी गुट नई-नई रणनीतियां बना रहे है। नए-नए ठिकानों को निशाना बना रहे है। वे बाकायदा हमें चुनौती देते है कि हिम्मत है, तो हमें रोककर दिखाओ। लेकिन हमारे राजनेता एक-दूसरे की टांग खींचने में लगे हुए है। बम धमाकों के बाद नेतागण एक ही रिकार्ड बजा रहे है कि इस हमले के पीछे आतंकवादी संगठन का हाथ था। इसमें नया क्या है ? यह तो बच्चा-बच्चा जानता है। कोई ऐसा थोडे ही कहेगा कि यह हमला किसी महिला मंडल ने करवाया है। यह समय बयानबाजी का नहीं है, काम करने का है। जिसके लिए जनता ने आपको चुनकर भेजा है।
कुछ नजर डालें हमारी सुरक्षा एजेंसियों की गतिविधियों पर... 1193 के मुंबई ब्लास्ट केस में 100 जितने दोषियों को सजा हुई लेकिन यह तो छोटी मछलियां है। दाउद इब्राहिम, टाइगर मेमन, छोटा शकील जैसे मुख्य अपराधियों का हम बाल भी बांका नहीं कर सके। यह लोग कभी पकडे जायेंगे और भारत की कोर्ट में इनके सामने केस चलेंगे ऐसी उम्मीद करना भी बेकार है। 1998 में लाल कृष्ण आडवाणी की सार्वजनिक सभा से पहले ही कोइम्बतुर बम धमाकों से दहला और लगातार 14 धमाके हुए। इस केस में अल उम्मा के सरगना बासा को उम्रकैद की सजा हुई है और दूसरे 150 से भी ज्यादा दोषियों को कोर्ट ने सजा सुनाई है। जबकि, इस केस का मुख्य सूत्रधार केरल का राजनीतिज्ञ और कट्टरवादी मुस्लिम नेता अब्दुल नसीर मधानी इस केस में निर्दोष बरी हो गए थे। मधानी दक्षिण भारत में आतंकवादियों का सबसे बडा आश्रयदाता माना जाता है। भारतीय संसद पर हमले के केस में अफजल गुरु को फांसी की सजा हुई है और अन्य दो को उम्रकैद लेकिन प्रो. गिलानी निर्दोष बरी हो गए थे। अफजल को फांसी देने में विलंब हो रहा है और संसद पर हमले जैसे अत्यंत गंभीर अपराध में जिसका हाथ है उसे छोड देने की वकालत हमारे देश की कुछेक राजनीतिक पार्टियां खुलेआम कर रही है। इन तीन केसों को छोड कोई केस निपटाया नहीं गया और 1993 से अभी तक हुए ऐसे बडे आतंकी हमलों के केसों की संख्या 15 से भी ज्यादा है। बडे पैमाने पर केसों में किसी की गिरफ्तारी भी नहीं हुई और जांच एजेंसियां आईएसआई या दूसरे आतंकवादी संगठन पर दोष डालकर पल्लू झाड लेती है। देश की राजधानी में 2005 के अक्टूबर में हुए सीरियल बम धमाकों के दोषियों को सामने लाने में केन्द्रीय सुरक्षा एजेंसियां आज तक सफल नहीं हो पाई है। समझौता एक्सप्रेस में पिछले साल फरवरी में हुए बम धमाकों के अलावा इन सभी बम धमाकों के पीछे हरकत-उल-जेहादी इस्लामिया का हाथ होने का अंदेशा है इसके बावजूद भी एजेंसियां मुख्य षडयंत्रकारी तक पहुंचने में नाकाम रही है। इस साल मई में जयपुर में हुए सीरियल बम धमाके का मामला भी आजतक सुलझाया नहीं जा सका है।
आतंकवाद बल से नहीं अक्ल से खत्म हो सकता है। आतंकवाद से निपटने में सैन्य कार्रवाई नहीं राजनीतिक सूझबूझ और मजबूत पुलिस-खुफिया तंत्र कारगर साबित हो सकता है। आंकडे और इतिहास बताता है कि आतंक से जुडे ज्यादातर मसले या तो राजनीतिक पहल से सुलझे है या फिर पुलिस और खुफिया तंत्र की मुस्तैदी से। आतंकवादियों को धार्मिक लडाकों की संज्ञा न देकर उन्हें सामान्य अपराधी समझकर कार्रवाई करनी चाहिए। क्योंकि इस समस्या का हल किसी जंग के मैदान में नहीं हो सकता।
हमारी खुफिया एजेंसियों को एक-दूसरे पर जवाबदेही डालने की आदत सी हो गई है। हर वारदात के बाद केन्द्र और प्रदेश सरकारें एक-दूसरे पर इल्जाम लगाती है, पर अफसोस है कि आतंकवाद की समस्या से निपटने के लिए कोई भी गंभीर नहीं है। प्रतिदिन या सप्ताह में महत्वपूर्ण स्थानों पर हमले की सूचना की खबर दे दी जाती है। पर कब और कहां यह कोई नहीं बताता। हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने परमाणु केन्द्रों पर आतंकी हमलों की आशंका जता दी। सवाल यह है कि जब आपको यह पता है कि हमला हो सकता है, तो यह भी पता होना चाहिए कि हमला करने वाला कौन है। वह कहां है और इस वारदात को किस तरह अंजाम देगा। खुफिया एजेंसियों को इसकी कोई खबर नहीं होती और न ही वह इसका पता करने की जरूरत समझती है।
इन विस्फोटों के बाद हमेशा की तरह नेताओं की बयानबाजी हुई, मृतकों के परिजनों के लिए मुआवजे का ऐलान हुआ, मगर उन चेहरों के आंसुओं के पीछे छिपा दर्द और पीडा को शायद ही कोई पहचान पाए, जिन्होंने इन विस्फोटों में अपनो को खोया है।
खौफ में जी रही जनता... अस्पताल में दर्द से कराहते लोग... रुदन करते परिजन... चिथडों में लिपटी लाशें... आतंकवादियों के इस कायराना कृत्य से न जाने कितनी मांगे सूनी हो गई, कितने ही बच्चे अनाथ हो गए, कितनी ही माताओं की गोद उजड हो गई। लोग अपने घरों से काम पर निकलते तो हैं लेकिन लौटकर उनके क्षत-विक्षत शव आते है।
अहमदाबाद और सूरत में जो बम मिले है उसमें पुलिस या जांच एजेंसियों का कोई योगदान नहीं है लेकिन इसका श्रेय जनता को ही जाता है। जनता ही पुलिस को खबर देती है और ये अफसर लोग जैसे कोई बडा तीर मार दिया हो इस तरह अपना काफिला लेकर आ धमकते है। हाईअलर्ट करने और ऐसी घटनाओं का सख्ती से मुंहतोड जवाब दिए जाने का सरकारी रेडिमेड जवाब सुन-सुन कर जनता के कान पक गए है। पुलिस सिर्फ अंधेरे में तीर चला रही हैं। गत शनिवार के बम धमाकों के सप्ताह बितने के पश्चात पुलिस निश्चित सबूत प्राप्त नहीं कर सकी। जरा सोचें, समग्र देश में हाईअलर्ट के बावजूद मौत का सामान सूरत तक पहुंच गया। इससे साबित होता है कि यहां के प्रशासन को जंग लग चूका है।
इन वारदातों से लगता है कि भविष्य में दहशतगर्द हमारे घर में घूस कर हमें मार गिरायेंगे और यह पुलिस प्रशासन आराम से हमारा पंचनामा कर हमारा अंतिम संस्कार करने आ जायेगी। जिन्हें शहर में दहशतगर्द इतने धमाके कर जाए और तीन दिन लगातार मिल रहे बमों की कानो-कान खबर नहीं होती ऐसे लोगों से हम क्या उम्मीद कर सकते है। काश, हमारी खुफिया एजेंसियां मोसाद से और राजनेता गोल्डा माएर से कुछ सीख पाते।
अब हमारे क्राइम ब्रान्चवाले मौलाना हलीम नामक सिमी के किसी कार्यकर्ता को पकड लाये है और इस मौलाना के जरिये पाकिस्तान में प्रशिक्षण के लिए भेजे गए 33 युवकों का इस हमले के पीछे हाथ होने की बात हो रही है। सवाल यह है कि, यह 33 युवक हमारी आंखों को धोखा देकर आतंकवादी केम्पों में पहुंचे कैसे ?
गुजरात की जो स्थिति है उसका जवाब इस सवाल में है। हमारे यहां आतंकवाद जैसी कोई वारदात होती है कि फौरन मुस्लिम विरोधी माहौल पैदा हो जाता है। मुस्लिम आतंकवाद संगठनों से बडे पैमाने पर जुडे है यह बात सच है लेकिन सिर्फ मुसलमान इसके लिए जिम्मेदार है ऐसा कहना गलत होगा। इस देश में 80% बस्ती हिन्दूओं की है। सरकारी प्रशासन में 90% हिन्दू काम करते है, पुलिस, सेना, इन्टेलिजेन्स सभी में 90% हिन्दू है। मुस्लिम तो गिन-चुन कर 5% है और इसके बावजूद भी मौत का सामान बेरोकटोक पाकिस्तान से हमारे देश में घुस जाता है। यहां के युवक सरहद पार करके आतंकवादी ट्रेनिंग लेने पहुंच जाते है और यहां आकर धमाके कर लाशें बिछा जाते है। क्योंकि जो 90% है उनमें कुछेक गद्दार है और उनकी नमकहरामी की वजह से यह खूनी खेल खेला जाता है।
यह बात भले कडवी लगे, लेकिन 1993 के मुंबई बम ब्लास्ट इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। सोमनाथ थापा जैसे हिन्दू गद्दार न होते तो 1993 के धमाके नहीं होते। 1993 के धमाकों में 100 जितने दोषियों को सजा हुई उसमें 25 जितने हिन्दू है। यह हमारा इतिहास है। आतंकवाद के सामने लडना है तो पहले हमारे उन गद्दारों को ढूंढना पडेगा और बेनकाब करना पडेगा। इस मामले में जितनी मुसलमानों की जिम्मेदारी है उतनी ही हिन्दूओं की भी है।
हमारे देश में यह आम फैशन हो गया है कि आतंकवाद की कोई भी घटना होती है तो आईएसआई या फिर दाउद इब्राहिम या फिर बांग्लादेशी के मिलते-जुलते संगठन पर दोष मढ कर अपना पल्लू झाड लेने का। लेकिन यह कायराना कृत्य इस देश का नमक खाकर नमकहरामी करने वाले गद्दारों का है। इस देश में रहकर इस देश को नफरत करने वाले देशद्रोहियों का है।
बंगलुरू और अहमदाबाद के बम विस्फोट कम तीव्रतावाले थे, जिसमें बेहद सस्ता और आसानी से मिल जाने वाला अमोनियम नाइट्रेट, नट-बोल्ट और कील आदि का प्रयोग हुआ था। बंगलुरू में नौ बम धमाकों में दो ही लोग मारे गए। अहमदाबाद में 16 धमाकों में मरने वालों की संख्या भी कम है। इससे साफ होता है कि यह बम बनाने वाले अनगढ है इनमें ज्यादा कुशलता नहीं लेकिन इनके इरादे बेहद खतरनाक है। जिस तरह बमों को रक्खा गया वह स्थानीय लोगों के शामिल हुए बिना संभव नहीं था। हमारे देश में रहने वालों ने ही इस घटना को अंजाम देने वाले व्यक्तियों का साथ दिया है। उनके बिना बमों के निर्माण और उनको विभिन्न स्थानों पर रखने का कार्य नहीं हो सकता। क्या हमारे अपने ही लोग साजिश के पैरोकार बनते जा रहे है?
अफसोस ! ऐसा भी नहीं कि आतंकवाद से निपटने के लिए भारत के पास संसाधनों की कमी है। विश्व की शीर्ष सैन्य शक्ति, परमाणु शक्ति संपन्न देश यदि आतंकवाद के सामने कमजोर दिखाई पड रहा है तो उसका सबसे अहम कारण है सशक्त राजनीतिक नेतृत्व की कमी और देश से ज्यादा दलीय हितों को महत्व देने वाले राजनीतिक दल।
मरने वाले तो मर गये लेकिन नेता अपनी रोटी सेंक रहे है और अधिकारी अपनी चमडी बचाने में मस्त है। ऐसे में आम जनता की सुरक्षा कैसे हो पायेगी ? ऐसी निकम्मी सरकार हमारी सुरक्षा कैसे कर सकती है ? अब हमें अपनी सुरक्षा खुद ही करनी पडेगी। भारतीय हरदम संघर्ष करता रहा है। इतिहास गवा है, आजादी के लिए संघर्ष, रोटी के लिए संघर्ष, हमारे अधिकारों के लिए संघर्ष और अब हमारी अपनी सुरक्षा के लिए भी हमें ही संघर्ष करना पडेगा। लडना पडेगा।
जय हिंद

शनिवार, 26 जुलाई 2008

हद कर दी आपने

सुनो गौर से बीजेपी वालों... बुरी नजर ना हम पे डालो... चाहे जितना जोर लगा लो... सबसे आगे होंगे हिन्दुस्तानी... नहीं मैं गलत नहीं हूं, गाना सही है, आज देश का बदला हुआ मंजर देखकर तो यही गाना हर भारतीय को गुनगुनाना चाहिए।
किसी ने ऐसी कल्पना नहीं की थी कि, उनकी आंखें ऐसा दृश्य देखेंगी, जो बरसों तक हमें शर्मसार करता रहेगा। २२ जुलाई को लोकसभा में विश्वास मत को लेकर जारी उबाऊ बहस खत्म होनेवाला था। एक घंटे बाद प्रधानमंत्री को जवाब देना था और उसके बाद वोट पडने थे। पर ठीक चार बजे अचानक एक बैग खुला। और कई 'माननीय' नोटों की गड्डियां हो-हल्ले के साथ प्रदर्शित करने लगे। देश और विदेश के लाखों लोग टेलीविजन पर यह तमाशा देख रहे थे। भाषाई मर्यादा की सीमाएं लांघते हुए शब्द उछले कि तीन सांसदों को अपनी पार्टी से दगा करने के लिए नौ करोड की पेशकश की गई। उस समय पूरे देश की मुठ्ठियां भिंच गई थी।
दिल्ली के संसद में जो तमाशा हुआ उसमें एक्शन, रिएक्शन, रिवेन्ज, स्केन्डल, लाफ्टर और धोखा-फिटकार से भरा देश के सांसदों द्वारा किया गया राजनीतिक गंदला ड्रामा स्पेक्टेक्यूलर रहा। इन सभी एक्शन दृश्यों में से सबसे कम, धीरे और मीतभाषी बोलनेवाले हमारे प्रधानमंत्री लो-प्रोफाइल होने के बावजूद भी यह लडाई जीत गये। इस ड्रामे का अखबारों एवं न्यूज चैनल वालों को हो-हल्ला मचाकर नैतिकता का पाठ पढाने की कोई जरूरत नहीं है।
यह एक ऐसा ऑपरेशन था जिसमें जरा सी चूक भी भारी पड सकती थी। संसद में मंगलवार को जिस घूस कांड को लेकर देश-विदेश में चर्चा हुई उसके लिए भाजपा के नेताओं ने बडे जतन से तैयारी की थी। हर कदम फूंक-फूंक कर रखा गया। इस सारे ऑपरेशन की कमान सौंपी गई भाजपा महासचिव और वकील अरुण जेटली को।
दो बैग में पैसा तो सुबह ही अशोक अर्गल के निवास पर पहुंच गया था, लेकिन ऑपरेशन में चार, पांच घंटे कानूनी सलाह लेने और योजना बनाने में लग गए। सबसे अहम सवाल यह था कि इस पूरे मामले का गवाह कौन बनेगा? राय मशविरे के बाद पूरे अभियान की जिम्मेदारी अरुण जेटली को सौंपी गई। विशेष सत्र की तिथि तय होते ही सांसदों की सौदेबाजी के कयास लगाए जाने लगे थे। इसके लिए सबसे पहले उन सांसदों की सूची बनाई जिनकी परिसीमन में सीटें खत्म हो गई हैं या मर्ज कर दी गई है। उसमें भी उन पर ज्यादा ध्यान देने को कहा गया जो दागदार रहे।
इस क्रम में फग्गन सिंह कुलस्ते पर नजर गई। शुरुआत अरुणाचल के एक सांसद के एसएमएस से हुई, जिसमें ३५ करोड रुपये का संदेश था। इसके बाद अशोक अर्गल, फग्ग्न सिंह कुलस्ते और महावीर भगोरा कमजोर कडी में शामिल कर दिए गए। बातचीत में तीनों सांसदों ने होशियारी यह बरती कि इसकी सूचना पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भी दे दी। चैनल को शामिल कर लिया गया। पूरे मामले को अंजाम देने से पहले गवाह भी तलाशा गया। चालक और रिपोर्टर को इसके लिए उपयुक्त माना गया। इसके बाद मंथन चला कि खुलासा कैसे किया जाए? स्पीकर को सूचना दी जाए या सीधे सदन में बैग रक्खे जाये।
स्पीकर को सूचना देने पर मुद्दा दबने की आशंका थी लिहाजा सदन में बैग रखना तय हुआ। सांसद एक ही गाडी से दो बैग लेकर चले। सांसदों की चेकिंग नहीं होती, इसीलिए वे बैग लेकर सीधे सदन में पहुंचने में कामयाब हो गए। इसके बाद जो कुछ हुआ पूरे देश ने देखा। भाजपा को यह आभास हो गया लगता था कि सरकर बच रही है। यही नहीं अपने सांसदों के पलटी मारने की भी सूचनाएं उसे मिल रही थीं। वह सरकार गिराने की हडबडी में भी नहीं थी, उसे तो सरकार को एक्सपोज करना था जिसमें वह कामयाब रही।
इससे पहले भी लोकसभा में कई बार विश्वास-अविश्वास मत हो चुके है और तत्कालीन सरकारें बचती-गिरती भी रही है, पर मत विभाजन के पहले ऐसा नजारा कभी देखने नहीं मिला। राजनीतिक परिदृश्य गंदला हो गया है लेकिन भारतीय लोकतंत्र में ऐसा वाकया पहली बार हुआ है। ऐसा तो उस जमाने में भी नहीं होता था, जब राजतंत्र था। मैं एक सिरफिरे की तरह पूछना चाहती हूं कि इस देश के लोग ऐसे क्यों हो गए? यह तो आजादी के बाद की राजनैतिक महागुलामी है। क्या यह सबसे बडा सच नहीं है।
भारतीय लोकतंत्र की अस्मिता को पूरी शान से थामे खडी संसद को न जाने किसकी नजर लग गई। बस यही दिन देखना बाकी था। लोकतंत्र के इस पवित्र मंदिर को आतंकवादियों की गोलियों ने इतना आघात नहीं पहुंचाया था, जितना कि इसके खुद के नुमाइंदों ने पहुंचा दिया है। अब हमें इस देश के दुश्मनों को कोई मशक्कत करने की जरूरत नहीं लगती। कोई सीबीआई, पुलिस, जांच समिति या लोकसभा अध्यक्ष इसको रोक या बदल नहीं सकते। ये सब तो आम जनता से भी ज्यादा लाचार अवस्था में हैं।
इन नेताओं के कृत्यों से देश आहत हुआ है, लहूलुहान हुआ है। ये राजनेता सत्ता पर काबिज होने के लिए किसी भी तरीके का इस्तेमाल कर सकते है। इनके लिए देश, समाज या जनता के कोई मायने नहीं है।
लोकतंत्र की दुहाई देनेवालों, भारत का सिर दुनिया के सामने शर्म से झुकाने वालों, लोकतंत्र का चीरहरण करने वालों को अब जनता ही सजा दे सकती है। देश की गरिमा पर लांछन लगाने वालों को इस देश की जनता कभी माफ नहीं करेगी। भारतीय लोकतंत्र का यह काला दिन हर भारतीय को सालों तक, सदियों तक याद रहेगा। इन कौरव सेना ने हर प्रकार की मर्यादाओं का उल्लंघन किया है। देश में लोकतंत्र की हत्या नहीं हुई, समूचे भारत की हत्या हुई है। अब तक के इतिहास में हमने एकता और अखंडता की बातें इस दुनिया को सीखाई थी। लेकिन?
इस पूरे ड्रामे में माया मैडम को उल्लू बनाया गया। बेचारी मैडम कितने अरमानों के साथ सज-धज कर दिल्ली पहुंची थी। परिणाम घोषित होने के बाद भाजपा प्रवक्ता नकवी ने घोषणा कर दी कि, मायावती को प्रधानमंत्री बनाने की बात कहां से आयी? वे कब से ऐसे ख्वाब देखने लगी। अब मायावती की समझ में आ गया है कि, आडवाणी और वामपंथी उनका सिर्फ इस्तेमाल कर रहे थे।
प्रकाश करात और वृंदा करात अब इस देश के पोलिटिक्स के लिए आऊट ऑफ डेइट है। मार्क्सवाद के किताबों में लिखे थियरी के मुताबिक भारत में राजनीति कर रहे यह दोनों चीन के इशारों पर नाचते है। लेकिन भारत की जनता को शायद उनका नाच पसंद नहीं आया।
बाहर वाला हमला करता है तो हम मरते हैं या मारते है। पर जब हमारे अपने घर की मर्यादा पर हमला बोलते है तो क्या करे? एक ओर मनमोहन सरकार जिन्होंने देश की भलाई के लिए अपनी सरकार तक को दांव पर लगा दिया तो दूसरी ओर भाजपा के नुमाइंदे जिनकी वजह से आज दुनिया के सामने हमारा सिर शर्म से झुक गया। ओ बीजेपीवालो ! कम से कम इस देश की मिट्टी की लाज रख ली होती। जो अपने स्वार्थ के लिए देश की गरिमा के साथ खिलवाड कर सकते है, क्या जनता उन पर विश्वास करेगी? हम तो दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहते है, भारत को महाशक्ति के रूप में देखना चाहते है।
मायावती, वामपंथी और भाजपा ने मिलकर सरकार गिराने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी। उन्हें तो ऐसा ही लग रहा था कि मनमोहन सरकार को विश्वास मत हांसिल करने में खूब पसीना बहाना पडेगा और अगर सरकार विश्वास मत हासिल कर भी लेगी तो ज्यादा से ज्यादा एक-दो या पांच वोट से जीतेगी लेकिन हुआ इसका उल्टा। और अब इनके दांतों तले ऊंगलियां दब गई है। लालुप्रसाद मंडली ने जो कहा था उसके मुताबिक सरकार के समर्थन मे २९० से ज्यादा वोट भले ना गिरे लेकिन २७५ का आंकडा भी गलत नहीं है। सबसे अहम तो यह है कि, सरकार के समर्थन में २७५ के सामने २६५ वोट मिले। और इस तरह कुल १९ मतो का अंतर है। मायावती, वामपंथी और भाजपा ने जो सोचा था उनके हिसाब से यह अंतर बहुत महत्वपूर्ण है। जिन्होंने पूरी जिंदगी एक दूसरे पर कीचड उछालने के अलवा कुछ नहीं किया ऐसे लोग अपने सिद्धांतों की बलि चढाकर कांग्रेस सरकार को गिराने के एक मात्र उद्देश्य से ही मिले थे। कांग्रेस को हराने के अलावा इनके पास और कोई उद्देश्य भी नहीं था इसीलिए उन्हें सफलता नहीं मिली।
फीके-फीके मनमोहन सिंह ने पहली बार वामपंथियों के सामने ऐसा रवैया अपनाया कि, सरकार बचे या गिरे लेकिन अब भिडना है। और उसीका फल उन्हें मिला है।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलियो कोय
जो मन खोजा अपना मुज से बुरा ना कोय
ऐसा हाल भाजपा का हुआ है। जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है, वही उसमें गिरता है। भाजपा के बागी सांसद भाजपाईयों का विरोध झेल रहे है। बागियों के दफ्तर में जमकर तोडफोड हो रही है। उनके खिलाफ प्रदर्शन हो रहा है। अब क्या फायदा? कटी हुई नाक वापस नहीं आ सकती। यह तो पंछी उडने के बाद पिंजरे को ताला लगाने जैसा काम है। इन आठ बागियों को अब शूली पर लटकाकर भी कोई फायदा नहीं है। इससे तो इनकी मूर्खता का प्रदर्शन होगा। भाजपा ने जिन आठ बागियों को सस्पेन्ड किया है उनमें दो गुजरात राज्य के सांसद है। एक सुरेन्द्रनगर के सोमाभाई गांडाभाई और दूसरे दाहोद के बाबुलाल कटारा। भाजपा ने इन्हें सस्पेन्ड किया लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह लोग भाजपा में थे? बाबु कटारा दूसरे की बीवी को अपनी बीवी बनाकर विदेश जा रहे थे तब पकडे गए थे उस समय भाजपा ने उन्हें निलंबित कर दिया था। सोमाभाई को नरेन्द्र मोदी के सामने आपत्ति होने के कारण विधानसभा चुनाव में खुल्लेआम भाजपा के सामने मोर्चा निकाला और भाजपा ने उन्हें भी रवाना कर दिया था। कहने का तात्पर्य यह है कि, भाजपा ने उन्हें पहले से ही अपने से अलग कर दिया था। इन्हें विश्वास मत के दौरान अपने मतलब के लिए इनकी याद आई! इन आठ सांसदो को निलंबित करते वक्त आडवाणी और राजनाथ सिंह ने नैतिकता की बडी बडी बाते की और देश में लोकतंत्र के मूल्यों का पतन और भ्रष्टाचार की दुहाई दी। आडवाणी और राजनाथ कुछ भी कहे लेकिन भ्रष्टाचार और नैतिकता की बाते क्या उन्हें शोभा देती है? बाबु कटारा कबूतर बाजी के अपराध में पकडे गए तो उन्हें भाजपा ने निकाल दिया और अब जरूरत पडने पर उनके सारे गुनाह माफ! क्या यह नैतिकता है? सोमाभाई ने भाजपा नेताओं को गालिया देने में कोई कसर नहीं छोडी और इस अपराध में उन्हें भी निलंबित किया गया था। विश्वास मत में इनकी जरूरत पडने पर भाजपा को सोमालाल की याद आ गई। क्यों, अब आपकी नैतिकता कहा गई? इसका जवाब है आपके पास। भाजपा ने जिन आठ बागियों को निलंबित किया है उनमें से एक ब्रिजभूषण सिंह शरण भी है। वे उ.प्र. के गोंडा के है और घाट-घाट के पानी पीकर आये है। भाजपा ने उन्हें भी एक बार निकाल दिया था इसकी वजह जानना चाहोगे? शरण साहब के घर में से दाउद इब्राहिम गेंग के गुंडे पकडे गए थे। जो इनसान दाउद इब्राहिम जैसे देशद्रोही के साथ मेल-जोल रखता है उसे भाजपा टिकट दे और बाद में नैतिकता की बाते करती है। राजनैतिज्ञ मानते होंगे कि लोगों की याददाश्त बहुत छोटी होती है लेकिन उनकी यह सोच गलत है।
अफसोस! किस्सा यही नहीं खत्म होगा। मन को कडा कर लीजिए। अभी कुछ नंगी वास्तविकताएं और देखनी है। सत्र की समप्ति के बाद वंदे मातरम की धुन शायद इसीलिए मन की तहों को ममत्व से भिगो नहीं सकीं। असली ड्रामा तो अब शुरू होनेवाला है।
जय हिंद

सोमवार, 21 जुलाई 2008

यहां सब कुछ बिकता है

परमाणु मुद्दे को लेकर यूपीए का सहयोगी दल वाम मोर्चा ने अपना समर्थन वापिस ले लिया है। वर्तमान केन्द्र सरकार संकट में आ गई है। २२ जुलाई के शक्ति परीक्षण में या तो सरकार रहेगी या जायेगी। इसको लेकर सारे देश में राजनैतिक अटकलों एवं अस्थिरता का दौर शुरु हो गया है। मनमोहन सिंह २२ जुलाई को लोकसभा में विश्वासमत प्राप्त करेंगे तब तक यह गर्माहट बरकरार रहेगी। २२ जुलाई के विश्वासमत का काउन्ट डाउन शुरु हो गया है, सत्ताधारी कांग्रेस एवं वामपंथियों ने एक-दूसरे को गिराने के लिए अपनी सारी ताकात काम पर लगा दी है। हमारे देश के वामपंथी मानते है कि अमरिका के साथ परमाणु करार भारत के हितों का विरोधी है। लेकिन जब उनसे पूछा जाता है कि चीन तो ऐसा करार कर चुका है, तो उनका जवाब होता है कि चीन से हमें क्या लेना-देना। लेकिन जब चीन द्वारा पाकिस्तान को लगातार मजबूत बनाने, तिब्बतियों का विनाश करने या फिर उसके घटिया माल को भारतीय बाजार से निकालने का सवाल आता है, तो वे चुप हो जाते है, विरोध करते है या फिर बगले झांकने लगते है।
भारत के वामपंथियों का यह दोहरा मापदंड या स्वरूप नया नहीं है। असल में, वे नहीं चाहते कि भारत में एक स्थिर और मजबूत इरादों वाली सत्ता स्थायी हो, क्योंकि ऐसा होने से उनके इरादों पर पानी फिर जायेगा। कटु वास्तविकता यही है कि आज जिस स्थिति में देश घिरा है, उसमें केन्द्र में कमजोर सरकार होना अभिशाप साबित हो सकता है। वामपंथी मनमोहन सरकार को हर हाल में गिराना चाहते है, क्योंकि अमरिका के साथ परमाणु करार के मसले पर सरकार ने उन्हें ठेंगा दिखा दिया है। लेकिन वास्तव में वे कभी भी यूपीए सरकार की स्थिर और सबल छवि बनने के पक्ष में नहीं थे। और उनके इस आचरण ने देश में राजनीतिक अस्थिरता के माहौल को बढावा देने में भरपूर सहयोग किया है। शक्तिविहीन सत्ता के कारण अतीत में जो कुछ हुआ है, उसकी पुनरावृति फिर न हो सके, इसके लिए हमें वामपंथियों के वर्तमान चाल-चरित्र और चेहरे को ठीक से देखना होगा। मनमोहन सिंह विश्वासमत के बाद अपनी सरकार टिका पायेंगे या नहीं यह तो २२ जुलाई को तय होगा लेकिन उससे पहले जो लीला हो रही है वह दिलचस्प भी है और आघातजनक भी। इस लीला में जो भी होगा उससे आमजन इनका असली रूप पहचान जायेंगे।
अमरिका के साथ परमाणु करार इस देश के भविष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है और मनमोहन सिंह विश्वासमत हांसिल करेंगे तो ही इस करार में आगे बढेंगे, वरना इस करार का `राम बोलो भाई राम' ही होने वाला है। और इस देश को मिलने वाले लाभ भी नहीं मिलेंगे। इन परिस्थितियों में इस देश के चुने गए प्रतिनिधि इस करार के समर्थन में है या नहीं इस विषय में चर्चा करने के बजाय ये लोग क्या कर रहे है? सौदेबाजियां और पुराने स्कोर सेटल। एक नजर हमारे चुने गए प्रतिनिधियों की गतिविधियों पर.......
पल पल में पाला बदलने के लिए मशहूर झामुमो के प्रमुख शिबू सोरन के लोकसभा में पांच सदस्य है। सोरन ने घोषणा की है कि, अगर कांग्रेस उन्हें केन्द्र में प्रधानपद देगी तो ही वे विश्वासमत के समर्थन में वोट देंगे, वरना उनके खिलाफ मतदान करेंगे। सोरन ने अपने दरवाजे सभी के लिए खोल रक्खे है। सोरेन बाजार में खडी वेश्या की तरह खुलेआम सौदेबाजी कर रहे है। इस देश को लाभ मिले या ना मिले उन्हें उसकी जरा सी भी चिंता नहीं है, लेकिन उन्हें फायदा होना ही चाहिए। यह महाशय खुद को निजी लाभ ना मिले तो इस देश को होनेवाला लाभ रुकवाने की धमकी बडी बेशर्मी से देते है। वामपंथी या भाजपा परमाणु करार का विरोध करते है तो उसके लिए कारण भी देते है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि सोरेन जैसे लोग यह करार देशहित में है या नहीं इस मामले में ही स्पष्ट नहीं है। ऐसे लोग अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकते है, किसी भी हद तक गिर सकते है। इस देश को बेच भी सकते है।
आंध्रप्रदेश में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) नामक एक पार्टी है और लोकसभा में उसके तीन सदस्य है। टीआरएस की मांग है कि उन्हें आंध्र में एक अलग राज्य चाहिए और यह कांग्रेस से इसी मुद्दे पर अलग हुई है। इस पार्टी ने घोषणा की थी कि, अगर कांग्रेस उन्हें अलग तेलंगाना की रचना का आश्वासन देती है तो उन्हें उनकी ओर से समर्थन मिलेगा वरना वे कांग्रेस के खिलाफ मतदान करेंगे। लेकिन कांग्रेस ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया और वे अब वामपंथियों के पाले में जा बैठे है। उनके लिए परमाणु करार से ज्यादा महत्वपूर्ण बाबत अलग तेलंगाना राष्ट्र की रचना है। यह विभाजनवादी मानसिकता है। इसी मानसिकता की वजह से ही तो खालिस्तान आंदोलन की शुरुआत हुई थी और बाद में आतंकवाद। जिससे हम सभी अच्छी तरह से वाकिफ है। जिन लोगों को देशहित से ज्यादा चिंता अपने अलग राज्य की है ऐसे लोगों का क्या भरोसा ? इन दोहरे चरित्रवालों को कल चीन और पाकिस्तान अलग तेलंगाना राष्ट्र बनाने में मदद करने का भरोसा देंगे तो यह लोग उनके पाले में जा बैठेंगे। काश्मीर और पंजाब में यही तो हुआ है।
बिहार के पप्पु यादव सहित चार सांसद अभी जेल में है। २२ जुलाई को यह लोग लोकसभा में आकर मतदान कर सके ऐसी व्यवस्था की गई है। यह महानुभाव विश्वासमत के समर्थन में मतदान करेंगे या विरुद्ध में, लेकिन मुफ्त में नहीं करनेवाले ! यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि देश के लाभदायी बाबत के समर्थन के लिए हमें गुनहगारों का समर्थन लेना पड रहा है।
मायावती अभी तक कांग्रेस के साथ थी और मुलायम सिंह यादव कांग्रेस के खिलाफ। मायावती परमाणु करार की तरफदारी करती थी और मुलायम सिंह यादव विरोध। राजनीति है ही ऐसी चीज... यहां जो सुबह आपका दोस्त है शाम को आपका दुश्मन बन जाये यह तय नहीं होता लेकिन रातोरात उनकी सोच भी बदल सकती है? और वो भी ऐसे मुद्दे पर जिस पर देश का भविष्य निर्भर है? यह सरासर अवसरवाद है और देश हित या विचारधारा से ज्यादा राजनैतिक लाभ महत्वपूर्ण होता है यह उसका सूबूत है।
लाल कृष्ण आडवाणी भाजपा के प्रधान पद के उम्मीदवार है और उन्होंने वामपंथियों के सामने कांग्रेस ने अपने घूटने टेक दिए थे उसे देखकर ‘लाल सलाम’ जैसा अदभूत शब्दप्रयोग किया था। अब कांग्रेस-मुलायम एक है तब उन्होंने नया शब्द दिया है ‘दलाल सलाम’। (यह दलाल शब्द अमरसिंह के लिए है) दिलचस्प बात तो यह है कि, मनमोहन सरकार को गिराने के लिए आज भाजपा-वामपंथी एक है और इस मामले में आडवाणी ने चुप्पी साधी है। क्यों जनाब! क्या अब भाजपा जो कर रही है वह ‘लाल सलाम’ नहीं है।
मुस्लिम धार्मिक नेता और संगठनों ने शायद ही पहली बार देशहित के किसी मुद्दे पर अपना मंतव्य दिया है और साफ शब्दों में कहा है कि, मुसलमान परमाणु करार के खिलाफ नहीं है। एक मुस्लिम सांसद ने अदभूत बात कही कि, कोई करार देशहित में हो या ना हो हिन्दू या मुस्लिम करार कैसे हो सकता है? और अमरिका के साथ परमाणु करार देशहित में है इसलिए हम उसके समर्थन में है। लोकसभा में कुल ५४३ सदस्य है जिनमें ३५ मुस्लिम है। इन ३५ में से कांग्रेस के १०, राजद के ३, सपा के ७ है और सभी करार के समर्थन में है। इस देश का भला सोचने के लिए हिन्दू होना जरुरी नहीं है। जो इससे साबित होता है। करार का विरोध करने में ज्यादातर हिन्दू सांसद है। इस करार से मुसलमान नाराज हो जायेंगे ऐसा कहनेवाले भी हिन्दू ही है। उनके लिए इस देश के फायदे से ज्यादा मुसलमान वोटबैंक महत्वपूर्ण है।
विडंबना देखिए, आम आदमी की खैरख्वाह पार्टियां लड रही है। लेकिन रोटी को उसकी पहुंच में बनाये रखने के लिए नहीं, एक करार।
इस खींचातान की लडाई में महज ३६ घंटे शेष बचे है। आज से मनमोहन सिंह विश्वासमत ले सके इस हेतु से बुलाई गई संसद के खास सत्र की शुरूआत होनेवाली है। भाजपा के तमाम मत सरकार विरोधी माने जाते है लेकिन वास्तविकता कुछ और है। क्या भाजपा के सभी मत सरकार विरोधी होंगे ? अगर सोमनाथ चेटर्जी जैसे लोग पिछले ४० साल से पार्टी से जुडे होने के बावजूद बगावत पर उतर सकते है तो दूसरा कोई भी ऐसा अपनी पार्टी के साथ क्यों नहीं कर सकता ? भाजपा के साथियों में चार सांसद ऐसे है जो कांग्रेस के पक्ष में है। जो कि इसबार अपना पाला बदलने वाले है। अगर ऐसे सात-आठ बागी मिल जाये तो कांग्रेस का काम हो सकता है।
मायावती अभी बहुत उछल रही है लेकिन अब तक का इतिहास गवाह है। जब कभी इस प्रकार का राजनैतिक आपालकाल आया है तब तब माया मैडम की पार्टी में विभाजन हुआ है और यह इतिहास दोबारा दोहराया जायेगा तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सबसे ज्यादा खतरा फिलहाल मायावती की पार्टी पर ही है। इन सभी अटकलों पर कल विराम लग जायेगा। और कौन कितने में बिका यह तो नहीं पता चल सकता लेकिन, कौन बिका ये तो पता चलने ही वाला है। इसलिए निश्चिंत होकर होनेवाले इस तमाशे को देखना पडेगा।
जय हिंद