शनिवार, 26 जुलाई 2008

हद कर दी आपने

सुनो गौर से बीजेपी वालों... बुरी नजर ना हम पे डालो... चाहे जितना जोर लगा लो... सबसे आगे होंगे हिन्दुस्तानी... नहीं मैं गलत नहीं हूं, गाना सही है, आज देश का बदला हुआ मंजर देखकर तो यही गाना हर भारतीय को गुनगुनाना चाहिए।
किसी ने ऐसी कल्पना नहीं की थी कि, उनकी आंखें ऐसा दृश्य देखेंगी, जो बरसों तक हमें शर्मसार करता रहेगा। २२ जुलाई को लोकसभा में विश्वास मत को लेकर जारी उबाऊ बहस खत्म होनेवाला था। एक घंटे बाद प्रधानमंत्री को जवाब देना था और उसके बाद वोट पडने थे। पर ठीक चार बजे अचानक एक बैग खुला। और कई 'माननीय' नोटों की गड्डियां हो-हल्ले के साथ प्रदर्शित करने लगे। देश और विदेश के लाखों लोग टेलीविजन पर यह तमाशा देख रहे थे। भाषाई मर्यादा की सीमाएं लांघते हुए शब्द उछले कि तीन सांसदों को अपनी पार्टी से दगा करने के लिए नौ करोड की पेशकश की गई। उस समय पूरे देश की मुठ्ठियां भिंच गई थी।
दिल्ली के संसद में जो तमाशा हुआ उसमें एक्शन, रिएक्शन, रिवेन्ज, स्केन्डल, लाफ्टर और धोखा-फिटकार से भरा देश के सांसदों द्वारा किया गया राजनीतिक गंदला ड्रामा स्पेक्टेक्यूलर रहा। इन सभी एक्शन दृश्यों में से सबसे कम, धीरे और मीतभाषी बोलनेवाले हमारे प्रधानमंत्री लो-प्रोफाइल होने के बावजूद भी यह लडाई जीत गये। इस ड्रामे का अखबारों एवं न्यूज चैनल वालों को हो-हल्ला मचाकर नैतिकता का पाठ पढाने की कोई जरूरत नहीं है।
यह एक ऐसा ऑपरेशन था जिसमें जरा सी चूक भी भारी पड सकती थी। संसद में मंगलवार को जिस घूस कांड को लेकर देश-विदेश में चर्चा हुई उसके लिए भाजपा के नेताओं ने बडे जतन से तैयारी की थी। हर कदम फूंक-फूंक कर रखा गया। इस सारे ऑपरेशन की कमान सौंपी गई भाजपा महासचिव और वकील अरुण जेटली को।
दो बैग में पैसा तो सुबह ही अशोक अर्गल के निवास पर पहुंच गया था, लेकिन ऑपरेशन में चार, पांच घंटे कानूनी सलाह लेने और योजना बनाने में लग गए। सबसे अहम सवाल यह था कि इस पूरे मामले का गवाह कौन बनेगा? राय मशविरे के बाद पूरे अभियान की जिम्मेदारी अरुण जेटली को सौंपी गई। विशेष सत्र की तिथि तय होते ही सांसदों की सौदेबाजी के कयास लगाए जाने लगे थे। इसके लिए सबसे पहले उन सांसदों की सूची बनाई जिनकी परिसीमन में सीटें खत्म हो गई हैं या मर्ज कर दी गई है। उसमें भी उन पर ज्यादा ध्यान देने को कहा गया जो दागदार रहे।
इस क्रम में फग्गन सिंह कुलस्ते पर नजर गई। शुरुआत अरुणाचल के एक सांसद के एसएमएस से हुई, जिसमें ३५ करोड रुपये का संदेश था। इसके बाद अशोक अर्गल, फग्ग्न सिंह कुलस्ते और महावीर भगोरा कमजोर कडी में शामिल कर दिए गए। बातचीत में तीनों सांसदों ने होशियारी यह बरती कि इसकी सूचना पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को भी दे दी। चैनल को शामिल कर लिया गया। पूरे मामले को अंजाम देने से पहले गवाह भी तलाशा गया। चालक और रिपोर्टर को इसके लिए उपयुक्त माना गया। इसके बाद मंथन चला कि खुलासा कैसे किया जाए? स्पीकर को सूचना दी जाए या सीधे सदन में बैग रक्खे जाये।
स्पीकर को सूचना देने पर मुद्दा दबने की आशंका थी लिहाजा सदन में बैग रखना तय हुआ। सांसद एक ही गाडी से दो बैग लेकर चले। सांसदों की चेकिंग नहीं होती, इसीलिए वे बैग लेकर सीधे सदन में पहुंचने में कामयाब हो गए। इसके बाद जो कुछ हुआ पूरे देश ने देखा। भाजपा को यह आभास हो गया लगता था कि सरकर बच रही है। यही नहीं अपने सांसदों के पलटी मारने की भी सूचनाएं उसे मिल रही थीं। वह सरकार गिराने की हडबडी में भी नहीं थी, उसे तो सरकार को एक्सपोज करना था जिसमें वह कामयाब रही।
इससे पहले भी लोकसभा में कई बार विश्वास-अविश्वास मत हो चुके है और तत्कालीन सरकारें बचती-गिरती भी रही है, पर मत विभाजन के पहले ऐसा नजारा कभी देखने नहीं मिला। राजनीतिक परिदृश्य गंदला हो गया है लेकिन भारतीय लोकतंत्र में ऐसा वाकया पहली बार हुआ है। ऐसा तो उस जमाने में भी नहीं होता था, जब राजतंत्र था। मैं एक सिरफिरे की तरह पूछना चाहती हूं कि इस देश के लोग ऐसे क्यों हो गए? यह तो आजादी के बाद की राजनैतिक महागुलामी है। क्या यह सबसे बडा सच नहीं है।
भारतीय लोकतंत्र की अस्मिता को पूरी शान से थामे खडी संसद को न जाने किसकी नजर लग गई। बस यही दिन देखना बाकी था। लोकतंत्र के इस पवित्र मंदिर को आतंकवादियों की गोलियों ने इतना आघात नहीं पहुंचाया था, जितना कि इसके खुद के नुमाइंदों ने पहुंचा दिया है। अब हमें इस देश के दुश्मनों को कोई मशक्कत करने की जरूरत नहीं लगती। कोई सीबीआई, पुलिस, जांच समिति या लोकसभा अध्यक्ष इसको रोक या बदल नहीं सकते। ये सब तो आम जनता से भी ज्यादा लाचार अवस्था में हैं।
इन नेताओं के कृत्यों से देश आहत हुआ है, लहूलुहान हुआ है। ये राजनेता सत्ता पर काबिज होने के लिए किसी भी तरीके का इस्तेमाल कर सकते है। इनके लिए देश, समाज या जनता के कोई मायने नहीं है।
लोकतंत्र की दुहाई देनेवालों, भारत का सिर दुनिया के सामने शर्म से झुकाने वालों, लोकतंत्र का चीरहरण करने वालों को अब जनता ही सजा दे सकती है। देश की गरिमा पर लांछन लगाने वालों को इस देश की जनता कभी माफ नहीं करेगी। भारतीय लोकतंत्र का यह काला दिन हर भारतीय को सालों तक, सदियों तक याद रहेगा। इन कौरव सेना ने हर प्रकार की मर्यादाओं का उल्लंघन किया है। देश में लोकतंत्र की हत्या नहीं हुई, समूचे भारत की हत्या हुई है। अब तक के इतिहास में हमने एकता और अखंडता की बातें इस दुनिया को सीखाई थी। लेकिन?
इस पूरे ड्रामे में माया मैडम को उल्लू बनाया गया। बेचारी मैडम कितने अरमानों के साथ सज-धज कर दिल्ली पहुंची थी। परिणाम घोषित होने के बाद भाजपा प्रवक्ता नकवी ने घोषणा कर दी कि, मायावती को प्रधानमंत्री बनाने की बात कहां से आयी? वे कब से ऐसे ख्वाब देखने लगी। अब मायावती की समझ में आ गया है कि, आडवाणी और वामपंथी उनका सिर्फ इस्तेमाल कर रहे थे।
प्रकाश करात और वृंदा करात अब इस देश के पोलिटिक्स के लिए आऊट ऑफ डेइट है। मार्क्सवाद के किताबों में लिखे थियरी के मुताबिक भारत में राजनीति कर रहे यह दोनों चीन के इशारों पर नाचते है। लेकिन भारत की जनता को शायद उनका नाच पसंद नहीं आया।
बाहर वाला हमला करता है तो हम मरते हैं या मारते है। पर जब हमारे अपने घर की मर्यादा पर हमला बोलते है तो क्या करे? एक ओर मनमोहन सरकार जिन्होंने देश की भलाई के लिए अपनी सरकार तक को दांव पर लगा दिया तो दूसरी ओर भाजपा के नुमाइंदे जिनकी वजह से आज दुनिया के सामने हमारा सिर शर्म से झुक गया। ओ बीजेपीवालो ! कम से कम इस देश की मिट्टी की लाज रख ली होती। जो अपने स्वार्थ के लिए देश की गरिमा के साथ खिलवाड कर सकते है, क्या जनता उन पर विश्वास करेगी? हम तो दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहते है, भारत को महाशक्ति के रूप में देखना चाहते है।
मायावती, वामपंथी और भाजपा ने मिलकर सरकार गिराने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी। उन्हें तो ऐसा ही लग रहा था कि मनमोहन सरकार को विश्वास मत हांसिल करने में खूब पसीना बहाना पडेगा और अगर सरकार विश्वास मत हासिल कर भी लेगी तो ज्यादा से ज्यादा एक-दो या पांच वोट से जीतेगी लेकिन हुआ इसका उल्टा। और अब इनके दांतों तले ऊंगलियां दब गई है। लालुप्रसाद मंडली ने जो कहा था उसके मुताबिक सरकार के समर्थन मे २९० से ज्यादा वोट भले ना गिरे लेकिन २७५ का आंकडा भी गलत नहीं है। सबसे अहम तो यह है कि, सरकार के समर्थन में २७५ के सामने २६५ वोट मिले। और इस तरह कुल १९ मतो का अंतर है। मायावती, वामपंथी और भाजपा ने जो सोचा था उनके हिसाब से यह अंतर बहुत महत्वपूर्ण है। जिन्होंने पूरी जिंदगी एक दूसरे पर कीचड उछालने के अलवा कुछ नहीं किया ऐसे लोग अपने सिद्धांतों की बलि चढाकर कांग्रेस सरकार को गिराने के एक मात्र उद्देश्य से ही मिले थे। कांग्रेस को हराने के अलावा इनके पास और कोई उद्देश्य भी नहीं था इसीलिए उन्हें सफलता नहीं मिली।
फीके-फीके मनमोहन सिंह ने पहली बार वामपंथियों के सामने ऐसा रवैया अपनाया कि, सरकार बचे या गिरे लेकिन अब भिडना है। और उसीका फल उन्हें मिला है।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलियो कोय
जो मन खोजा अपना मुज से बुरा ना कोय
ऐसा हाल भाजपा का हुआ है। जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है, वही उसमें गिरता है। भाजपा के बागी सांसद भाजपाईयों का विरोध झेल रहे है। बागियों के दफ्तर में जमकर तोडफोड हो रही है। उनके खिलाफ प्रदर्शन हो रहा है। अब क्या फायदा? कटी हुई नाक वापस नहीं आ सकती। यह तो पंछी उडने के बाद पिंजरे को ताला लगाने जैसा काम है। इन आठ बागियों को अब शूली पर लटकाकर भी कोई फायदा नहीं है। इससे तो इनकी मूर्खता का प्रदर्शन होगा। भाजपा ने जिन आठ बागियों को सस्पेन्ड किया है उनमें दो गुजरात राज्य के सांसद है। एक सुरेन्द्रनगर के सोमाभाई गांडाभाई और दूसरे दाहोद के बाबुलाल कटारा। भाजपा ने इन्हें सस्पेन्ड किया लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह लोग भाजपा में थे? बाबु कटारा दूसरे की बीवी को अपनी बीवी बनाकर विदेश जा रहे थे तब पकडे गए थे उस समय भाजपा ने उन्हें निलंबित कर दिया था। सोमाभाई को नरेन्द्र मोदी के सामने आपत्ति होने के कारण विधानसभा चुनाव में खुल्लेआम भाजपा के सामने मोर्चा निकाला और भाजपा ने उन्हें भी रवाना कर दिया था। कहने का तात्पर्य यह है कि, भाजपा ने उन्हें पहले से ही अपने से अलग कर दिया था। इन्हें विश्वास मत के दौरान अपने मतलब के लिए इनकी याद आई! इन आठ सांसदो को निलंबित करते वक्त आडवाणी और राजनाथ सिंह ने नैतिकता की बडी बडी बाते की और देश में लोकतंत्र के मूल्यों का पतन और भ्रष्टाचार की दुहाई दी। आडवाणी और राजनाथ कुछ भी कहे लेकिन भ्रष्टाचार और नैतिकता की बाते क्या उन्हें शोभा देती है? बाबु कटारा कबूतर बाजी के अपराध में पकडे गए तो उन्हें भाजपा ने निकाल दिया और अब जरूरत पडने पर उनके सारे गुनाह माफ! क्या यह नैतिकता है? सोमाभाई ने भाजपा नेताओं को गालिया देने में कोई कसर नहीं छोडी और इस अपराध में उन्हें भी निलंबित किया गया था। विश्वास मत में इनकी जरूरत पडने पर भाजपा को सोमालाल की याद आ गई। क्यों, अब आपकी नैतिकता कहा गई? इसका जवाब है आपके पास। भाजपा ने जिन आठ बागियों को निलंबित किया है उनमें से एक ब्रिजभूषण सिंह शरण भी है। वे उ.प्र. के गोंडा के है और घाट-घाट के पानी पीकर आये है। भाजपा ने उन्हें भी एक बार निकाल दिया था इसकी वजह जानना चाहोगे? शरण साहब के घर में से दाउद इब्राहिम गेंग के गुंडे पकडे गए थे। जो इनसान दाउद इब्राहिम जैसे देशद्रोही के साथ मेल-जोल रखता है उसे भाजपा टिकट दे और बाद में नैतिकता की बाते करती है। राजनैतिज्ञ मानते होंगे कि लोगों की याददाश्त बहुत छोटी होती है लेकिन उनकी यह सोच गलत है।
अफसोस! किस्सा यही नहीं खत्म होगा। मन को कडा कर लीजिए। अभी कुछ नंगी वास्तविकताएं और देखनी है। सत्र की समप्ति के बाद वंदे मातरम की धुन शायद इसीलिए मन की तहों को ममत्व से भिगो नहीं सकीं। असली ड्रामा तो अब शुरू होनेवाला है।
जय हिंद

सोमवार, 21 जुलाई 2008

यहां सब कुछ बिकता है

परमाणु मुद्दे को लेकर यूपीए का सहयोगी दल वाम मोर्चा ने अपना समर्थन वापिस ले लिया है। वर्तमान केन्द्र सरकार संकट में आ गई है। २२ जुलाई के शक्ति परीक्षण में या तो सरकार रहेगी या जायेगी। इसको लेकर सारे देश में राजनैतिक अटकलों एवं अस्थिरता का दौर शुरु हो गया है। मनमोहन सिंह २२ जुलाई को लोकसभा में विश्वासमत प्राप्त करेंगे तब तक यह गर्माहट बरकरार रहेगी। २२ जुलाई के विश्वासमत का काउन्ट डाउन शुरु हो गया है, सत्ताधारी कांग्रेस एवं वामपंथियों ने एक-दूसरे को गिराने के लिए अपनी सारी ताकात काम पर लगा दी है। हमारे देश के वामपंथी मानते है कि अमरिका के साथ परमाणु करार भारत के हितों का विरोधी है। लेकिन जब उनसे पूछा जाता है कि चीन तो ऐसा करार कर चुका है, तो उनका जवाब होता है कि चीन से हमें क्या लेना-देना। लेकिन जब चीन द्वारा पाकिस्तान को लगातार मजबूत बनाने, तिब्बतियों का विनाश करने या फिर उसके घटिया माल को भारतीय बाजार से निकालने का सवाल आता है, तो वे चुप हो जाते है, विरोध करते है या फिर बगले झांकने लगते है।
भारत के वामपंथियों का यह दोहरा मापदंड या स्वरूप नया नहीं है। असल में, वे नहीं चाहते कि भारत में एक स्थिर और मजबूत इरादों वाली सत्ता स्थायी हो, क्योंकि ऐसा होने से उनके इरादों पर पानी फिर जायेगा। कटु वास्तविकता यही है कि आज जिस स्थिति में देश घिरा है, उसमें केन्द्र में कमजोर सरकार होना अभिशाप साबित हो सकता है। वामपंथी मनमोहन सरकार को हर हाल में गिराना चाहते है, क्योंकि अमरिका के साथ परमाणु करार के मसले पर सरकार ने उन्हें ठेंगा दिखा दिया है। लेकिन वास्तव में वे कभी भी यूपीए सरकार की स्थिर और सबल छवि बनने के पक्ष में नहीं थे। और उनके इस आचरण ने देश में राजनीतिक अस्थिरता के माहौल को बढावा देने में भरपूर सहयोग किया है। शक्तिविहीन सत्ता के कारण अतीत में जो कुछ हुआ है, उसकी पुनरावृति फिर न हो सके, इसके लिए हमें वामपंथियों के वर्तमान चाल-चरित्र और चेहरे को ठीक से देखना होगा। मनमोहन सिंह विश्वासमत के बाद अपनी सरकार टिका पायेंगे या नहीं यह तो २२ जुलाई को तय होगा लेकिन उससे पहले जो लीला हो रही है वह दिलचस्प भी है और आघातजनक भी। इस लीला में जो भी होगा उससे आमजन इनका असली रूप पहचान जायेंगे।
अमरिका के साथ परमाणु करार इस देश के भविष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है और मनमोहन सिंह विश्वासमत हांसिल करेंगे तो ही इस करार में आगे बढेंगे, वरना इस करार का `राम बोलो भाई राम' ही होने वाला है। और इस देश को मिलने वाले लाभ भी नहीं मिलेंगे। इन परिस्थितियों में इस देश के चुने गए प्रतिनिधि इस करार के समर्थन में है या नहीं इस विषय में चर्चा करने के बजाय ये लोग क्या कर रहे है? सौदेबाजियां और पुराने स्कोर सेटल। एक नजर हमारे चुने गए प्रतिनिधियों की गतिविधियों पर.......
पल पल में पाला बदलने के लिए मशहूर झामुमो के प्रमुख शिबू सोरन के लोकसभा में पांच सदस्य है। सोरन ने घोषणा की है कि, अगर कांग्रेस उन्हें केन्द्र में प्रधानपद देगी तो ही वे विश्वासमत के समर्थन में वोट देंगे, वरना उनके खिलाफ मतदान करेंगे। सोरन ने अपने दरवाजे सभी के लिए खोल रक्खे है। सोरेन बाजार में खडी वेश्या की तरह खुलेआम सौदेबाजी कर रहे है। इस देश को लाभ मिले या ना मिले उन्हें उसकी जरा सी भी चिंता नहीं है, लेकिन उन्हें फायदा होना ही चाहिए। यह महाशय खुद को निजी लाभ ना मिले तो इस देश को होनेवाला लाभ रुकवाने की धमकी बडी बेशर्मी से देते है। वामपंथी या भाजपा परमाणु करार का विरोध करते है तो उसके लिए कारण भी देते है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि सोरेन जैसे लोग यह करार देशहित में है या नहीं इस मामले में ही स्पष्ट नहीं है। ऐसे लोग अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकते है, किसी भी हद तक गिर सकते है। इस देश को बेच भी सकते है।
आंध्रप्रदेश में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) नामक एक पार्टी है और लोकसभा में उसके तीन सदस्य है। टीआरएस की मांग है कि उन्हें आंध्र में एक अलग राज्य चाहिए और यह कांग्रेस से इसी मुद्दे पर अलग हुई है। इस पार्टी ने घोषणा की थी कि, अगर कांग्रेस उन्हें अलग तेलंगाना की रचना का आश्वासन देती है तो उन्हें उनकी ओर से समर्थन मिलेगा वरना वे कांग्रेस के खिलाफ मतदान करेंगे। लेकिन कांग्रेस ने ऐसा करने से साफ मना कर दिया और वे अब वामपंथियों के पाले में जा बैठे है। उनके लिए परमाणु करार से ज्यादा महत्वपूर्ण बाबत अलग तेलंगाना राष्ट्र की रचना है। यह विभाजनवादी मानसिकता है। इसी मानसिकता की वजह से ही तो खालिस्तान आंदोलन की शुरुआत हुई थी और बाद में आतंकवाद। जिससे हम सभी अच्छी तरह से वाकिफ है। जिन लोगों को देशहित से ज्यादा चिंता अपने अलग राज्य की है ऐसे लोगों का क्या भरोसा ? इन दोहरे चरित्रवालों को कल चीन और पाकिस्तान अलग तेलंगाना राष्ट्र बनाने में मदद करने का भरोसा देंगे तो यह लोग उनके पाले में जा बैठेंगे। काश्मीर और पंजाब में यही तो हुआ है।
बिहार के पप्पु यादव सहित चार सांसद अभी जेल में है। २२ जुलाई को यह लोग लोकसभा में आकर मतदान कर सके ऐसी व्यवस्था की गई है। यह महानुभाव विश्वासमत के समर्थन में मतदान करेंगे या विरुद्ध में, लेकिन मुफ्त में नहीं करनेवाले ! यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि देश के लाभदायी बाबत के समर्थन के लिए हमें गुनहगारों का समर्थन लेना पड रहा है।
मायावती अभी तक कांग्रेस के साथ थी और मुलायम सिंह यादव कांग्रेस के खिलाफ। मायावती परमाणु करार की तरफदारी करती थी और मुलायम सिंह यादव विरोध। राजनीति है ही ऐसी चीज... यहां जो सुबह आपका दोस्त है शाम को आपका दुश्मन बन जाये यह तय नहीं होता लेकिन रातोरात उनकी सोच भी बदल सकती है? और वो भी ऐसे मुद्दे पर जिस पर देश का भविष्य निर्भर है? यह सरासर अवसरवाद है और देश हित या विचारधारा से ज्यादा राजनैतिक लाभ महत्वपूर्ण होता है यह उसका सूबूत है।
लाल कृष्ण आडवाणी भाजपा के प्रधान पद के उम्मीदवार है और उन्होंने वामपंथियों के सामने कांग्रेस ने अपने घूटने टेक दिए थे उसे देखकर ‘लाल सलाम’ जैसा अदभूत शब्दप्रयोग किया था। अब कांग्रेस-मुलायम एक है तब उन्होंने नया शब्द दिया है ‘दलाल सलाम’। (यह दलाल शब्द अमरसिंह के लिए है) दिलचस्प बात तो यह है कि, मनमोहन सरकार को गिराने के लिए आज भाजपा-वामपंथी एक है और इस मामले में आडवाणी ने चुप्पी साधी है। क्यों जनाब! क्या अब भाजपा जो कर रही है वह ‘लाल सलाम’ नहीं है।
मुस्लिम धार्मिक नेता और संगठनों ने शायद ही पहली बार देशहित के किसी मुद्दे पर अपना मंतव्य दिया है और साफ शब्दों में कहा है कि, मुसलमान परमाणु करार के खिलाफ नहीं है। एक मुस्लिम सांसद ने अदभूत बात कही कि, कोई करार देशहित में हो या ना हो हिन्दू या मुस्लिम करार कैसे हो सकता है? और अमरिका के साथ परमाणु करार देशहित में है इसलिए हम उसके समर्थन में है। लोकसभा में कुल ५४३ सदस्य है जिनमें ३५ मुस्लिम है। इन ३५ में से कांग्रेस के १०, राजद के ३, सपा के ७ है और सभी करार के समर्थन में है। इस देश का भला सोचने के लिए हिन्दू होना जरुरी नहीं है। जो इससे साबित होता है। करार का विरोध करने में ज्यादातर हिन्दू सांसद है। इस करार से मुसलमान नाराज हो जायेंगे ऐसा कहनेवाले भी हिन्दू ही है। उनके लिए इस देश के फायदे से ज्यादा मुसलमान वोटबैंक महत्वपूर्ण है।
विडंबना देखिए, आम आदमी की खैरख्वाह पार्टियां लड रही है। लेकिन रोटी को उसकी पहुंच में बनाये रखने के लिए नहीं, एक करार।
इस खींचातान की लडाई में महज ३६ घंटे शेष बचे है। आज से मनमोहन सिंह विश्वासमत ले सके इस हेतु से बुलाई गई संसद के खास सत्र की शुरूआत होनेवाली है। भाजपा के तमाम मत सरकार विरोधी माने जाते है लेकिन वास्तविकता कुछ और है। क्या भाजपा के सभी मत सरकार विरोधी होंगे ? अगर सोमनाथ चेटर्जी जैसे लोग पिछले ४० साल से पार्टी से जुडे होने के बावजूद बगावत पर उतर सकते है तो दूसरा कोई भी ऐसा अपनी पार्टी के साथ क्यों नहीं कर सकता ? भाजपा के साथियों में चार सांसद ऐसे है जो कांग्रेस के पक्ष में है। जो कि इसबार अपना पाला बदलने वाले है। अगर ऐसे सात-आठ बागी मिल जाये तो कांग्रेस का काम हो सकता है।
मायावती अभी बहुत उछल रही है लेकिन अब तक का इतिहास गवाह है। जब कभी इस प्रकार का राजनैतिक आपालकाल आया है तब तब माया मैडम की पार्टी में विभाजन हुआ है और यह इतिहास दोबारा दोहराया जायेगा तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सबसे ज्यादा खतरा फिलहाल मायावती की पार्टी पर ही है। इन सभी अटकलों पर कल विराम लग जायेगा। और कौन कितने में बिका यह तो नहीं पता चल सकता लेकिन, कौन बिका ये तो पता चलने ही वाला है। इसलिए निश्चिंत होकर होनेवाले इस तमाशे को देखना पडेगा।
जय हिंद