बुधवार, 29 जुलाई 2009

काश्मीर सेक्स कांड और नैतिकता का हाई वोल्टेज ड्रामा

काश्मीर सेक्स कांड : क्या था मामला
काश्मीर में २००६ के अप्रैल में एक सेक्स टेप घुमा जिसमें १५ साल की लडकी एक वरिष्ठ अधिकारी के साथ दिखाई गई थी। पुलिस ने इस सेक्स टेप की जांच शुरु की और इस लडकी को ढूंढ निकाला। यास्मिन नामक इस लडकी ने पुलिस के सामने फरियाद की और बाद में जो कबूला वह चौंकानेवाला था। यास्मिन के कहने के मुताबिक काश्मीर में उसके जैसी नाबालिग बच्चियों और लडकियों को फंसाकर उन्हें सेक्स ट्रेड में धकेलने का बहुत बडा नेटवर्क चलता था और उसमें असंख्य वरिष्ठ नौकरशाह और राजनेता शामिल थे। यास्मिन ने अपनी जानकारी के मुताबिक ४० जितनी नाबालिग बच्चियों और लडकियों को वरिष्ठ नौकरशाह और राजनेताओं की हवस के लिए इस्तेमाल की होने की जानकारी पुलिस को दी और यह भी बताया कि सबिना नामक एक महिला इस रेकेट की सूत्रधार है। पुलिस ने इस जानकारी के जरिये सबिना को गिरफ्तार किया। दौरान इस सेक्स रेकेट की जानकारी मीडिया में बाहर आई और उसके साथ ही लोगों में आक्रोश फूट निकला। लोगों ने सबिना का घर जला दिया और समग्र काश्मीर में धमाल शुरु हो गया। पुलिस इस केस में कदम उठाने के लिए ज्यादा उत्साहित नहीं थी इसलिए लोगों का आक्रोश ज्यादा भडका और बहुत उहापोह के बाद आखिर इस केस की जांच सीबीआई को सौंपी गई। सबिना तथा अन्य पीडित लडकियों के पास से मिली जानकारी के आधार पर इस केस में जून २००६ में पहला आरोपपत्र दाखिल किया गया और उसमें एडिशनल एडवोकेट जनरल से लेकर बीएसएफ के प्रमुख सहित के लोगों के नाम आरोपी के रुप में थे। इसके अलावा मुफ्ती मुहम्म्द सइद के मंत्रीमंडल के दो मंत्री गुलाम अहमद मीर और रमन मट्टु एवं मुफ्ती के अपने प्रिन्सिपाल सेक्रटरी इकबाल खांडे इस केस में आरोपी है।
राजनेता हर मौके का फायदा उठाने में और प्रतिकूलता को अपनी अनुकूलता में तब्दील करने में बडे ही चतुर होते है और वह भी नैतिकता का नाटक कर। इस ड्रामेबाजी का ताजा उदाहरण है उमर अब्दुल्ला का जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री पद से दिया गया इस्तीफा। २००६ में पूरे काश्मीर में श्रीनगर सेक्स कांड ने सनसनी मचा दी थी। इस कांड में ५० जितने राजनेता शामिल है ऐसा आरोप उसी वक्त हुआ था लेकिन दो-चार को छोड किसी का नाम बाहर नहीं आया था। इस केस की जांच सीबीआई को सौंपी गई और सीबीआई क्या करती है यह हम अच्छी तरह से जानते है इसलिए जब तक ऊपर से हरी झंडी नहीं मिले तब तक किसी का नाम बाहर आये ऐसी उम्मीद भी नहीं थी इसलिए यह मामला ठंडा हो गया था। मंगलवार को उमर अब्दुल्ला के विपक्षी महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी के नेता मुज्जफर बेग ने काश्मीर विधानसभा में २००६ के इस सेक्स रेकेट का जीन फिर से बोतल में से बाहर निकाला और घोषणा की कि, सीबीआई ने इस सेक्स कांड में शामिल जिन राजनेता और वरिष्ठ नौकरशाहों की सूची तैयार की है उसमें एक नाम उमर का भी है। बेग के दावे के मुताबिक सीबीआई ने यह केस जहां चल रहा है उस पंजाब और हरियाणा कोर्ट को दी अपराधियों की सूची में उमर का नंबर १०२ है। बेग ने तो उमर के पिता और केन्द्र के पर्यटन मंत्री फारुख अब्दुल्ला को भी लपेटे में ले लिया और घोषित किया कि फारुख ने भी इस सेक्स कांड में अपना मुंह काला किया था और अपराधियों की सूची में उनका नंबर ३८वां है।
बेग की इस बात को सुनकर उमर अचानक ही तैश में आ गये और उन्होंने घोषित किया कि, उन पर लगाये गये आरोप गलत है लेकिन सवाल नैतिकता का है और एक राज्य के मुख्यमंत्री पर ऐसा गंभीर आरोप लगाया जाये यह कैसे चलता इसलिए उन्होंने इस्तीफा दिया है और जब तक इस मामले में बेदाग साबित नहीं होंगे तब तक पद पर नहीं लौटेंगे। उमर ऐसी प्रतिक्रिया देंगे इसकी कल्पना ना ही पीडीपी ने की थी और ना ही उनकी पार्टी के लोगों ने। पार्टी के लोगों ने उमर को बहुत समझाया कि ऐसे आरोपों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देना चाहिए लेकिन उमर ने इस निर्णय से पीछे हटने से मना कर दिया। विधानसभा के खत्म होने के बाद वे अपने पिता के साथ राज्यपाल से मिले और अपना इस्तीफा धर दिया। सीबीआई ने इसके बाद साफ किया कि उमर का नाम अपराधियों की सूची में नहीं है इसके बाद भी उमर ने इस्तीफे की बात को पकडे रखा। उमर ने इस तरह इस्तीफा धर दिया इसके कारण एक ओर सनसनी मची है वहीं दूसरी ओर उनके चमचे उमर की तारीफ के कसीदे पढने में लगे हुए है। उनके कहने के मुताबिक उमर ने खुद पर सिर्फ आरोप लगने मात्र से इस्तीफा देकर नैतिकता का एक श्रेष्ठ उदाहरण दिया है और दूसरे नेताओं को इससे प्रेरणा लेनी चाहिए। चलो, मानते है कि उमर ने जो किया उससे दूसरे नेताओं को प्रेरणा लेनी चाहिए लेकिन उमर ने जो कुछ किया उसका नैतिकता से कोई वास्ता ही नहीं है। वास्तव में उमर ने जो कुछ किया वह एक नाटक से विशेष कुछ भी नहीं और यह नाटक उन्होंने अपने राजनीतिक लाभ के लिए किया है।
उमर अभी चहुंओर से फंसे हुए है। शोपियान में दो काश्मीरी लडकियों पर सेना के जवानों ने दुष्कर्म किया और बाद में उनकी बेरहमी से हत्या कर उनकी लाश को फेंक दिया उसके कारण अभी काश्मीर आग की लपटों में लिपटा हुआ है और पीडीपी के महबूबा मुफ्ती ने इस मामले सोमवार को काश्मीर विधानसभा में हंगामा कर उसका लाभ लेने के लिए जो तिकडम किया उसके कारण उमर बौखलाए हुए है। अभी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है उमर की पार्टी उसमें हिस्सेदार है इसलिए केन्द्र के खिलाफ कुछ बोल नहीं सकते और सेना पर दोष मढ नहीं सकते इसलिए उमर की हालत खराब थी। काश्मीर में इस प्रकार के अभियान सत्ताधीशो को भारी ही पडते है और महबूबा के इस शतरंज के पासों को किस तरह उलटाना इसका रास्ता उमर के पास नहीं था उसी समय यह सेक्स स्केन्डल का जीन बाहर आ गया। चतुर उमर ने इस जीन को पकड लिया और नैतिकता का नाटक खेला। अब वे गद्दी पर ही नहीं होंगे तो शोपियान में जो कुछ भी हुआ उसके लिए दोष लगने का सवाल ही नहीं उठता। बेग ने वास्तव में यह मामला उठाकर फंसे हुए उमर को बाहर निकाला है।
अगर उमर अब्दुल्ला ने वास्तव में नैतिकता की सुरक्षा के लिए यह इस्तीफा दिया हो तो उनके पिता फारुख को भी केन्द्रीय मंत्रीमंडल में से इस्तीफा देने को कहना चाहिए। बेग के दावे के मुताबिक उमर और फारुख दोनों के नाम अपराधियों की सूची में है तो फारुख को भी नैतिकता दिखाने के लिए इस्तीफा देना चाहिए कि नहीं? उमर नैतिकता को उच्च पैमाने पर स्थापित करना चाहते है तो उन्हें अपने खानदान में भी उसका पालन हो यह देखना चाहिए। चलिए देखते है कि, फारुक क्या करते है। उमर ने इस्तीफा देकर सचमुच नैतिकता दिखाई है या नाटक किया है उसे साबित करना अब फारुक के हाथ में है। नैतिकता की शुरुआत खुद के घर से होनी चाहिए।
जय हिंद

शनिवार, 25 जुलाई 2009

`सच का सामना' पर हंगामा

सबसे पहले `सच का सामना' कार्यक्रम के बारे में जानते है। ’सच का सामना’ अमरिका का गेम शो द मोमेन्ट ऑफ ट्रुथ पर आधारित है और इस शो का होस्ट मार्क वेलबर्ग है एवं अमरिका में यह शो फोकस नेटवर्क पर से प्रसारित होता है। हालांकि असल में यह शो अमरिका का नहीं है। इस शो की जडें कोलम्बिया में है और उसके सर्जक लाइटहार्टेड एन्टरटेनमेन्ट के मालिक अमरिकन टीवी निर्माता हावर्ड स्कुल्ज है। सबसे पहले यह शो कोलम्बिया में २००७ में पेश हुआ था और इसमें सबसे बडा इनाम १० करोड कोलम्बियन डॉलर था। अमरिका में यह शो जनवरी २००३ में प्रसारित हुआ था। अमरिका में इस कार्यक्रम की शुरुआत अमरिकन आइडल विजेता से हुई थी और उसे जबरदस्त पब्लिसिटी दी गई थी। इसका पहला शो २.३० करोड लोगों ने देखा था। इसके बाद दूसरे सभी देशों में इस शो की नकल शुरु हुई। अभी विश्व में ४६ देशों में इस कार्यक्रम की नकल होती है और टीवी पर से यह कार्यक्रम प्रसारित होते है। अमरिका में हाल में यह कार्यक्रम प्रसारित नहीं होता लेकिन अगस्त २००९ से उसके नये शो प्रसारित होंगे। अमरिका में इस कार्यक्रम में सबसे बडा इनाम पांच लाख अमरिकन डॉलर है। ’सच का सामना’ में अमरिकन फोर्मेट का ही अनुकरण किया गया है और उसमें भी स्पर्धक को ५० सवाल पूछे जाते है और उसमें से २१ सवाल पूछे जाते है। इन सवालों के जवाब सही है या गलत यह जानने के लिए पोलीग्राफ टेस्ट किया जाता है और पोलीग्राफ कहे कि स्पर्धक ने गलत जवाब दिया है तो स्पर्धक को बाहर निकाल दिया जाता है। ’सच का सामना’ के लिए अमरिकन पोलीग्राफ एक्सपर्ट हर्ब इरविन की मदद ली जाती है।
अब ’सच का सामना’ कार्यक्रम पर जो हंगामा मचा है उसकी बात करते है। हमारे देश में भारतीय संस्कृति के नाम से जो नाटक चलता है ऐसा नाटक दुनिया में कहीं नहीं चलता होगा। हमारे राजनेता, बुध्धिजीवी, समाज सेवक आदि के अपने-अपने चोके है, अलग-अलग जमात है और खुद के अनुकूल न हो ऐसा कुछ भी घटित होता है तब इस जमात में से कोई भी भारतीय संस्कृति का झंडा लेकर खडा हो जाता है और शोर मचाने लगता है। एक तो यह वर्ग बहुत बातूनी है और दूसरा कि इनके तमाशे के कारण इनका शोर समग्र देश तक पहुंच जाता है और बाद में इनकी हां में हां मिलानेवाले और मुंडी हिलाने वाले आ जाते है और शोर बढता ही जाता है। शोर बढे तब सरकार जागती है और नोटिसे जारी करने जैसी सभी कवायदें शुरु हो जाती है। इस खेल में जो सबसे ज्यादा शोर मचा सकता हो वह जीत जाता है और कुछेक समय के बाद भारतीय संस्कृति जहां थी वहीं आकर खडी हो जाती है और शोर मचानेवाले अपने घर जाकर चादर तानकर सो जाते है।
स्टार प्लस चैनल पर गत हप्ते से शुरु हुए ’सच का सामना’ नामक रियालिटी शो के मामले यह हंगामा शुरु हो गया है। गत हप्ते यह शो शुरु हुआ और उसमें पहले हप्ते ही जिस प्रकार के सवाल पूछे गए उसके कारण अचानक ही भारतीय संस्कृति के झंडाधारी जाग उठे और उन्हें चिंता होने लगी कि इस प्रकार के सवाल अगर टीवी कार्यक्रम में पूछे गये तो भारतीय संस्कृति मिट्टी में मिल जायेगी। उन्होंने इस शो के सामने शोर मचाना शुरु किया और संसद में भी इस मामले हंगामा मचा दिया। संसद में हंगामा होने के कारण सरकार को भी लगा कि कुछ करना पडेगा इसलिए वह भी जाग उठी और इस शो को प्रसारित करनेवाली टीवी चैनल स्टार प्लस को नोटिस जारी कर दी। केन्द्र सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने जारी की नोटिस में सवाल पूछा गया है कि, यह कार्यक्रम भद्र व्यवहार और शालीनता का भंग करती है, उसे देख क्यों बंद नहीं किया गया। स्टार प्लस को नोटिस का जवाब देने के लिए २७ जुलाई तक का समय दिया गया था लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट ने ‘सच का सामना’ की सुनवाई को स्थगित कर दिया है। न्यायाधीश संजीव खन्ना की एकल पीठ ने मामले को मुख्य न्यायाधीश एपी शाह की खंडपीठ को सौंप दिया है। अब इस मामले पर सुनवाई २९ जुलाई को होगी। चैनल क्या खुलासा करती है यह पता नहीं लेकिन अभी तो यह मामला एकदम गरम हो गया है। ’सच का सामना’ नामक यह कार्यक्रम अमरिका के द मोमेन्ट ऑफ ट्रुथ नामक कार्यक्रम की हू-ब-हू नकल है और अमरिका में यह कार्यक्रम प्रसारित हुआ तब भी जोरदार हंगामा मचा था। वहां भी इस कार्यक्रम के कारण बहुतों की गृहस्थी छिन्न-भिन्न हो जायेगी ऐसी दलील होती थी और हमारे यहां भी वही दलीले हो रही है। अमरिका में वास्तव में कितने लोगों की गृहस्थी इस कार्यक्रम के कारण बिखरी यह पता नहीं लेकिन हमें इतना मालूम है कि, हमारे यहां इस शो के पहले स्पर्धक बने विनोद कांबली ने बहुत से जोरदार जवाब दिए उसके बाद भी उनका दाम्पत्य जीवन सही-सलामत है। खैर अब मूल बात पर आते है। यह कार्यक्रम भारतीय संस्कृति के खिलाफ है और उसके कारण यह कार्यक्रम बंद कर देना चाहिए ऐसी जो दलीले हो रही है वह जायज है या नही? बिलकुल भी नहीं। जिस देश में ‘सत्यमेव जयते’ राष्ट्रीय सूत्र हो वहां ऐसी बात हो वह सचमुच तो हमारे दंभ का सुबूत है और हमारे यहां ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम सिर्फ हमारी पसंद को तवज्जो देते है, दूसरे किसी की बात को नहीं स्वीकार पाते। हमारे यहां संस्कृति के नाम से जो नाटक होते है इसका कारण यह है कि हम मनोरंजन और वास्तविकता का भेद ही नहीं समझ पाते। पहली बात यह कि यह एक मनोरंजन का कार्यक्रम है और उसका संस्कृति के साथ कोई लेना-देना ही नहीं है। दूसरी बात यह कि इस कार्यक्रम में जिस प्रकार के सवाल पूछे जाते है वह एकदम निजी है और किसी को असमंजस में लाकर खडा कर दे ऐसे भी है लेकिन यह सवाल किसी से जबरदस्ती नहीं पूछे जाते। कोई व्यक्ति अपनी मर्जी से अपनी निजी जिंदगी के पन्ने खोलने बैठ जाये तो उसमें दूसरे किसी को आपति उठाने की क्या जरुरत है? इस देश में सभी को इतनी स्वतंत्रता तो है ही। इन सवालों के सही जवाब देने से किसी एक व्यक्ति का घर टूटे या उसका दाम्पत्यजीवन छिन्न-भिन्न हो तो वह उस व्यक्ति का प्रश्न है। ऐसा भी हो सकता है कि स्पर्धक किसी सवाल का सही जवाब दे और पोलीग्राफ उसे गलत ठहराये उसके कारण स्पर्धक के जीवन-साथी के मन में शक हो लेकिन फिर से एक बार कहूंगी कि, यह उन दोनों का प्रश्न है और ऐसा जोखिम उठाना चाहिए या नहीं यह स्पर्धक ही तय कर सकता है। अगर उस व्यक्ति को ऐसा जोखिम उठाने में कोई दिक्कत ना हो और अपने जीवनसाथी पर भरोसा हो या खुद में कितना भरोसा है यह जानना हो तो उसके सामने ओरों को आपत्ति उठाने की कोई जरुरत ही नहीं है और सबसे महत्वपूर्ण बात कि यह कार्यक्रम टीवी चैनल पर प्रसारित होता है और जिस तरह उसमें हिस्सा लेने वाले को अपनी बात करने की आजादी है उसी तरह ही आपके पास भी इस कार्यक्रम को देखना चाहिए या नहीं यह तय करने की स्वतंत्रता है। आपको पसंद ना हो तो टीवी बंद कर दीजिए, दूसरी चैनल देखिए या फिर चादर तान के सो जाइए इसमें संस्कृति को बीच में लाने की क्या जरुरत है। सत्य को स्वीकारना बहुत मुश्किल होता है।
जय हिंद

गुरुवार, 23 जुलाई 2009

कांटिनेंटल एयरलाइन्स और डॉ. कलाम की तलाशी

भारत में राजनेता राई का पहाड बनाने में बडे ही चतुर होते है और शोर मचाने के लिए किसी भी मुद्दे को उछाल देते है। इस जमात को देशाभिमान या राष्ट्र के अपमान के साथ कोई वास्ता नहीं होता और सामान्य स्थितियों में देश की इज्जत का फालूदा बन जाये तो भी इनके पेट में ऐंठन तक नहीं आती लेकिन प्रसिध्धि मिले इसके लिए वे किसी भी मुद्दे को राष्ट्र के मान-अपमान के साथ जोडने में जरा सा भी हिचक महसूस नहीं करते। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम का नई दिल्ली के इन्दिरा गांधी एयरपोर्ट पर एक अमरिका एयरलाइन्स यानि कि विमानी कंपनी द्वारा हुई जांच के मामले संसद में मचा बवाल इसका ताजा सुबूत है। हालांकि कांटिनेंटल एयरलाइन्स ने माफी मांगी है।
बात अप्रैल महिने की है। डॉ. कलाम अमरिका विमान में नेवार्क जा रहे थे और नई दिल्ली के एयरपोर्ट पर अन्य यात्रियों की जिस तरह तलाशी ली जाती है उसी तरह डॉ. कलाम की भी तलाशी ली गई। अन्य यात्रियों की तरह डॉ. कलाम की भी शारीरिक जांच हुई और उनके जूते उतरवाकर जांचा गया, उनका मोबाइल फोन भी जांचा गया। डॉ. कलाम ने किसी भी तरह की आपत्ति या विरोध जताये बिना यह जांच होने दी और बाद में शांति से विमान में बैठकर नेवार्क चले गये। डॉ. कलाम के साथ सिक्युरिटी के लिए जो कमान्डो थे उन्होंने एयरलाइन्स के स्टाफ को समझाने का प्रयास किया कि डॉ. कलाम कौन है और उनकी तलाशी नहीं करनी चाहिए लेकिन कांटिनेंटल के स्टाफ ने रोकडा जवाब दे दिया कि महत्वपूर्ण हो या अतिमहत्वपूर्ण, तलाशी तो करनी ही पडेगी। कमान्डो यह सब कुछ होते देखते रहे, और कर भी क्या सकते थे?
यह मामला यही पर खत्म हो जाना चाहिए था लेकिन कलाम की सिक्युरिटी के साथ जुडे लोगों ने इस मामले रिपोर्ट किया और उसी में से नया झमेला शुरु हुआ। यह पूरा मामला नागरिक उड्डयन मंत्रालय के पास पहुंचा और नागरिक उड्डयन मंत्रालय ने प्रोटोकॉल के भंग के बदले कांटिनेंटल एयरलाइन्स को शो-कोज नोटिस भेजा। हालांकि अमरिकन कंपनी इस नोटिस को तवज्जो न देते हुए इसका जवाब देने तक की जहमत नहीं उठाई। हालांकि इसमें भी कुछ नया नहीं है और बात वहीं दब गई होती लेकिन यह पूरा मामला भाजपा के ध्यान में आया और उसमें से बवाल शुरु हुआ।
भाजपा के अरुण जेटली ने यह मामला राज्यसभा में उठाया और अमरिकन कंपनी ने कलाम का अपमान किया है ऐसा शोर मचा दिया। जेटली के साथ दूसरे भी जुड गये। वामपंथी तो वैसे भी अमरिका के नाम से चिडते है इसलिए यह लोग भी चालू गाडी में बैठ गए और उन्होंने बात को नया मोड दे कह दिया कि, ऐसा तो नहीं कि, कलाम मुस्लिम है इसलिए शायद उनकी खास तलाशी ली गई हो, इसकी भी जांच होनी चाहिए। इसके अलावा सपा के जनेश्वर मिश्रा ने पूरी बात को रंगभेद का रुप दिया और कह दिया कि गोरी चमडीवाले अमरिकन काली चमडीवाले सभी को शक की निगाह से देखते है और उनके साथ दुर्व्यवहार करते है उसका यह परिणाम है। सभी ने बहती गंगा में हाथ धो लिया इसलिए आखिर में नागरिक उड्डयन मंत्रालय के मंत्री प्रफुल पटेल को स्पष्ट करना पडा कि, अमरिकन कंपनी को जो नोटिस दी गई है उसका उन्होंने जवाब तक नहीं दिया और अब सरकार कांटिनेंटल एयरलाइन्स के सामने फोजदारी केस करने के बारे में सोच रही है क्योंकि उसने भारत के पूर्व राष्ट्रपति का अपमान किया है। प्रफुल पटेल के कहने के मुताबिक भारत में काम करनेवाली हरेक विमानन कंपनी को चोकस मार्गदर्शक रेखा दी जाती है और इस मार्गदर्शिका के मुताबिक उसे भारत के राष्ट्रपति और पूर्व राष्ट्रपतियों की सुरक्षा जांच नहीं करनी होती। कांटिनेंटल एयरलाइन्स ने इस नियम का उल्लंघन किया है इसलिए उसके खिलाफ केस किया जायेगा ऐसा आश्वासन प्रफुल पटेल ने दिया है। कांटिनेंटल एयरलाइन्स ने इस बयान के बाद अपनी उसी बात को दोहराया कि हमारे लिए सुरक्षा महत्वपूर्ण है और महत्वपूर्ण हो या अतिमहत्वपूर्ण, हमें जांच तो करनी पडेगी। यानि कि कंपनी ने जो किया उसे उसका जरा भी अफसोस नहीं।
प्रफुल पटेल के दावे के मुताबिक कांटिनेंटल एयरलाइन्स के सामने केस होता है या नहीं यह पता नहीं लेकिन कलाम के अपमान के नाम से जो शोर मचा है यही गलत है। अभी दुनियाभर में आतंकवाद का जाल जिस तरह फैला हुआ है उसे देखते सुरक्षा के मामले में किसी को भी जरा भी लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए और ऐसी स्थिति में कांटिनेंटल एयरलाइन्स या अन्य कोई भी कंपनी सावधानी बरते इसमें गलत ही क्या है? डॉ. कलाम सन्मानीय व्यक्ति है और उनके साथ किसी भी प्रकार की बदतमीजी बर्दाश्त नहीं की जा सकती लेकिन सुरक्षा के मद्देनजर होती जांच कोई बदतमीजी नहीं है। वास्तव में यह मुद्दा डॉ. कलाम या हम पर अविश्वास का है और हमें तो वास्तव में डॉ. कलाम के साथ ऐसा सलुक हुआ इसकी बात करने के बजाय ऐसा क्यों हुआ इस बारे में सोचना चाहिए। क्योंकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले ज्योर्ज फर्नान्डिज संरक्षण मंत्री थे तब उनके साथ अमरिका के एयरपोर्ट पर जांच हुई और प्रणब मुखर्जी विदेश मंत्री थे तब मोस्को के एयरपोर्ट पर उनके साथ भी यह हुआ।
डॉ. कलाम या ज्योर्ज या प्रणब हमारे लिए महत्वपूर्ण है और सन्मानीय है और उन पर किसी भी प्रकार का शक नहीं किया जा सकता यह भी स्वीकार ले तो भी क्या उनके आसपास के लोगों पर शक नहीं किया जा सकता इसकी कोई गेरंटी है? डॉ. कलाम की बात करे तो कोई कलाम के मोबाइल में या जूते में विस्फोटक ना रख दे इसकी कोई गेरंटी है? आज विस्फोटक बहुत ही छोटे चीप में तबदील हो गये है तब कलाम इस बात से अनजान हो और उनके आसपास की कोई व्यक्ति ऐसा कर दे ऐसा भी हो सकता है। ऐसी स्थिति में कलाम या अन्य कोई भी वीआइपी की जांच हो इसमें कुछ भी गलत नहीं है और अमरिकन एयरलाइन्स इसका आग्रह रखे तो इसमें कलाम का अपमान नहीं बल्कि यात्रियों की सुरक्षा की चिंता है और कलाम ने जिस तरह सहयोग दिया उस तरह हरेक वीआइपी को इसमें सहयोग देना चाहिए। अमरिकन सुरक्षा के मामले में सतर्क है इसलिए तो बचकर जीते है। ओसामा बिन लादेन ने वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर को तहस नहस किया उसके बाद अमरिका पर एक भी आतंकवादी हमला नहीं हुआ है और इसके मूल में उनकी यह सतर्कता है। कोई भी कानून से ऊपर नहीं है यह बात उन्होंने बहुत ही सहजता से स्वीकार किया है उसका यह परिणाम है। हमारे देश में इस तरह जांच नहीं होती इसलिए यह हमारा प्रश्न है। हमारे देश में जैसा चलता है वैसा दूसरे देश में थोडे ही चलता होगा?
अब बात हम पर अविश्वास की। हम पर उन्हें भरोसा क्यों नहीं? क्योंकि हमारे देश में सुरक्षा के नाम से नाटक ही चलता है। आतंकवादी हमले इसका ही परिणाम है। इसलिए हम जो भुगत रहे है वह अमरिका या दूसरा कोई क्यों भुगते?
भाजपा ने यह मुद्दा उछाला है यही शर्मनाक है। ज्योर्ज फर्नान्डिज भाजपा की सरकार में ही विदेश मंत्री थे और अमरिका के एयरपोर्ट पर उनके तो कपडे उतरवाकर जांच की गई थी। उस समय भाजपा के नेतागण अपनी दूम छुपाकर बिलों में छिपे बैठे थे। क्या उस समय उन्हें उनका अपमान नहीं लगा? क्या सत्ता में हो तब अपमान की परिभाषा बदल जाती है?
जय हिंद

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

रीता की मायावाणी

देश में राजनीतिज्ञों का स्तर नीचे उतरता जा रहा है और उनकी वाणी एकदम ही निम्न कक्षा की और नुक्कडछाप हो गई है ऐसी आम धारणा है। उ.प्र. कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा ने उ.प्र. की मुख्यमंत्री मायावती के बारे में जो टिप्पणीयां की उसके बाद यह बात एकदम सच लगती है।
सबसे पहले जानते है कौन है रीता बहुगुणा जोशी....?
रीता उ.प्र. के दिग्गज कायस्थ नेता माने जाते हेमवतीनंदन बहुगुणा की बेटी है। उ.प्र. के मुख्यमंत्री रह चुके बहुगुणा का १९८४ के लोकसभा चुनाव में अलाहाबाद बैठक से अमिताभ बच्चन के सामने हारने के बाद राजनीतिक करियर खत्म हो गया था। रीता की शादी एडवोकेट पूरनचंद्र जोशी के साथ हुई है लेकिन बहुगुणा का राजनीतिक विरासत बरकरार रखने के लिए उन्होंने अपने नाम के साथ बहुगुणा सरनेम जारी रखा है। रीता हाल में उ.प्र. कांग्रेस की अध्यक्ष है। हालांकि उनका राजनीतिक करियर ज्यादा प्रभावशाली नहीं है और वे कभी लोकसभा या विधानसभा का चुनाव नहीं जीती पाई। रीता अलाहाबाद की मेयर बनी यही उनकी श्रेष्ठ राजनीतिक सिध्धि है। रीता १९८४ में अलाहाबाद लोकसभा बैठक पर से भाजपा के मुरली मनोहर जोशी के सामने हार गई थी जबकि २००८ में विधानसभा के चुनाव में एकदम तीसरे स्थान पर आई थी। २००९ की अंतिम लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें लखनौ बैठक से भाजपा के लालजी टंडन के सामने टिकट दी, हालांकि रीता बुरी तरह से हारी थी। रीता २००८ में सलमान खुरशीद के स्थान पर उ.प्र. कांग्रेस अध्यक्ष बनी। विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस के खराब परफोर्मन्स के कारण उन्हें हटाया गया। रीता की खुशनसीबी से कांग्रेस ने इसबार लोकसभा चुनाव में जोरदार परफोर्मन्स किया इसलिए उनका प्रमुख पद बरकरार रह पाया।
उ.प्र. में अभी गाजियाबाद में एक लडकी पर हुए दुष्कर्म का मामला चल रहा है। दुष्कर्म दिल दहला देनेवाली घटना है और दुष्कर्म की शिकार महिला का तो समग्र अस्तित्व छिन्नभिन्न हो जाता है लेकिन हमारे राजनेताओं में यह समझने की क्षमता ही नहीं होती और वे लोग हरेक बाबत में अपनी राजनीतिक खिचडी किस तरह पकाया जाये उसकी फिराक में ही होते है। गाजियाबाद के इस दुष्कर्म कांड में भी ऐसा ही हुआ और कांग्रेस सहित के तमाम मायावती विरोधी दल इस घटना का राजनीतिक फायदा उठा लेने के लिए मैदान में आ गए। सामने मायावती ने भी यह मामला ज्यादा ना चले इस हेतु से पानी सिर से ऊपर हो जाने के बाद कवायद शुरु की। राजनेता ऐसा मानते है कि कोई भी अपराध होने के बाद अपराध का शिकार बननेवाले का मुंह नोटों से भर दिया जाये तो वह सब भूल जायेंगे। मायावती ने भी यही किया और उन्होंने जो लडकी दुष्कर्म का शिकार हुई थी उसके परिवार के सामने रु. ७५ हजार का टुकडा फेंक दिया। मायावती ने जो किया वह सचमुच गलत है। वास्तव में तो दुष्कर्म करनेवाले हैवानों के सामने ताबडतोब केस चलाकर उन्हें सजा करनी चाहिए लेकिन ऐसी हिम्मत बहुत कम राजनेता दिखा सकते है। मायावती भी वह हिम्मत नहीं दिखा सकी और उन्होंने वही किया जो दूसरे राजनेता करते है।
मायावती के इस निर्णय के सामने कांग्रेस प्रमुख रीता बहुगुणा जोशी ने आपत्ति जताई है और उन्होंने मायावती को आडे हाथ लिया। रीता ने दुष्कर्म का शिकार बनी लडकियों के परिवारों को मायावती ने कब-कब नोटों की गड्डियां दी इसका इतिहास पेश किया। रीता ने दुष्कर्म पीडित लडकियों की इज्जत के बदले में नोट फेंकने की मायावती की मानसिकता की कडी आलोचना की वहां तक तो ठीक था लेकिन उसके बाद उन्होंने जोश में ही जोश में घोषणा कर दी कि अगर पैसे देने से किसी महिला की इज्जत वापिस आ सकती है तो मायावती खुद पर दुष्कर्म होने दे और वह खुद मायावती को इसके बदले में एक करोड रुपये देने को तैयार है। रीता ने जो अभद्र टिप्पणी की वह शर्मनाक है। रीता ने इस प्रकार की अत्यंत निम्न कक्षा की निंदा कर अपनी तुच्छ मानसिकता का प्रदर्शन किया है। दुष्कर्म जैसी घटना शर्मनाक है और किसी भी सभ्य समाज में इस प्रकार की घटना ही नहीं बननी चाहिए लेकिन इस प्रकार की घटना बने उसे किसी व्यक्ति के साथ खास तौर पर नहीं जोडा जा सकता। उ.प्र. की मुख्यमंत्री के तौर पर मायावती की खास नैतिक जिम्मेदारी है ही और उस जिम्मेदारी को निभाने में वे असफल रही है यह सच है लेकिन उसके कारण उन पर दुष्कर्म करने की बात अभद्रता की चरमसीमा ही है। मायावती बहुत जहरीली है और वह अगर मुस्लिमों के लिए जैसा तैसा बोलने वाले वरुण गांधी को राष्ट्रीय सुरक्षा धारा के तहत जेल में भेज सकती है तो खुद के सामने ऐसी बात करने वाली रीता बहुगुणा को छोडे ऐसा हो नहीं सकता। रीता ने बुधवार शाम को एक सार्वजनिक सभा में यह बकवास किया और माया मेमसाब ने आधी रात को रीता को न्यायिक हिरासत में भेज दिया। रीता जल्दी न छुटे ऐसी कलम भी ठोक दी और १४ दिन के रिमान्ड मिल जाये ऐसा तख्ता भी तैयार कर दिया। माया मेमसाब को गुस्सा आ जाए तो फिर वह किसी की नहीं। मायावती इतना करे उसके बाद उनके चेले पीछे रह जाये ऐसा भला हो सकता है। रीता की आधी रात को गिरफ्तारी हुई और उसी समय माया के चेले रीटा के घर पर टूट पडे और उसमें आग लगा दी। इतने से बसपा के सदस्यों को संतोष नहीं मिला हो इसलिए उन्होंने संसद को भी सिर पर उठा लिया और कार्यवाही रोक दी। बसपा को धमाल मचाने के लिए जोरदार बहाना मिल गया है इसलिए यह खेल कितने दिन चलेगा पता नहीं। रीता के टिप्पणी के बदले में सोनिया गांधी ने खेद व्यक्त किया है लेकिन राजनेता ऐसी सब बातों को गंभीरता से नहीं लेते इसलिए यह तय है कि यह बवाल जल्दी खत्म नहीं होगा।
रीता ने जो कहा वह अक्षम्य है और मायावती हो या दूसरा कोई भी हो, इस प्रकार की टिप्पणीया नहीं होनी चाहिए। लेकिन इस पूरी बात को दूसरे प्रकार से भी देखने की जरुरत है। रीता जो वाणी बोल रही है वह वास्तव में मायावती की ही देन है और राजनीति में इस प्रकार की अभद्र वाणी की बोलबाला बढी उसमें मायावती का योगदान बहुत बडा है। मायावती किस प्रकार की असंस्कारी और अभद्र वाणी अपने विरोधियों के लिए इस्तेमाल करती है अगर उसकी किताब खोलने बैठेंगे तो बहुत लंबी लिस्ट बन जाये। इसी मायावती ने ढाई साल पहले मुलायम के बारे में इसी प्रकार की अभद्र टिप्पणी की थी। जनवरी २००७ में एक मुस्लिम लडकी पर दुष्कर्म की घटना बनी उस वक्त मुलायम ने दुष्कर्म पीडित लडकी के परिवार को दो लाख रुपये की सहायता दी तब मायावती ने ऐसी टिप्पणी की थी कि मुलायम के घर की बेटी पर इस प्रकार दुष्कर्म होने दो, मुस्लिम उन्हें चार लाख देने को तैयार है। आज रीता ने वही बात कही तब मायावती बौखलाई है। हालांकि यह जरुरी नहीं कि, मायावती अभद्र वाणी कहे तो उसका जवाब देने के लिए दूसरे भी उसी तरीके का इस्तेमाल करे।
जय हिंद

सोमवार, 13 जुलाई 2009

शराब त्रासदी : राजनेता, पुलिस और जनता

अहमदाबाद में जहरीली शराब ने समग्र राज्य में हाहाकार मचाया है और १६६ लोग इस तरह अचानक कुत्ते की मौत मारे गए है। ७ जुलाई को मजूर गाम से यह सिलसिला शुरु हुआ और ८ जुलाई को ओढव, अमराइवाडी, नरोडा सहित के क्षेत्र भी इसकी लपेट में आ गए। पहले दिन जहरीली शराब के सेवन से बीसेक लोगों की मौत हुई और यह आंकडा बढकर १६६ हो गया है। अहमदाबाद में १७ साल बाद जहरीली शराब के कारण इतने लोगों की मौत हुई है। यह गुजरात के इतिहास की सबसे कलंकित घटना है। हमारे देश में जब कभी ऐसी कोई घटना होती है तब लोग नींद में से अचानक जागते है और यह सब कैसे हुआ, क्यों हुआ इसकी कवायद शुरु हो जाती है। राजनेता अपनी खिचडी पकाने के लिए मैदान में आ जाते है और दूसरे कुछेक भी बहती गंगा में हाथ धोने के लिए निकल पडते है और अहमदाबाद में भी यही खेल शुरु हो गया है। चर्चा है कि इस हादसे के लिए पुलिस जिम्मेदार है और इसलिए लोगों ने पुलिस को आक्रोश का शिकार बनाया है। चर्चा का सूर यह है कि, पुलिस शराब के अड्डेवालों से हप्ता वसूलती है और देशी शराब के अड्डेवालों को साथ देती है जिसके कारण ऐसी दुर्घटनाएं होती है।
मैं ऐसा नहीं कहती कि पुलिस दूध की घुली है और वे लोग इन शराब के अड्डेवालों से हप्ता नहीं वसूलते। लेकिन शराब का जो दूषण फूला-फला है उसके लिए केवल पुलिस जिम्मेदार है यह कहना गलत होगा। पुलिस अड्डेवालों से हप्ता वसूलती है और कोई फरियाद करे तो उसकी फरियाद को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देती है, शराब के अड्डेवालों की रक्षा करती है यह सब सही है लेकिन इसके कारण ही शराब का कारोबार चलता है ऐसा नहीं है। अड्डेवालों को जितनी पुलिस मदद करती है उतना ही राजनेता भी मदद करते है। उनसे पुलिस जिस तरह हप्ते वसूलती है उसी तरह राजनेता भी हप्ते वसूलते है और जिस तरह पुलिस इनकी रक्षा करती है उसी तरह राजनेता भी इनकी रक्षा करते है। और यह पाप कोई निश्चित पार्टी नहीं सभी पार्टियां करती है। हमारे देश में देशी शराब का कारोबार सिर्फ एक गैरकानूनी कारोबार नहीं है उसका राजनीति के साथ भी पूरा संबंध है। ऐसा कौन सा राजनीतिज्ञ है जो चुनाव के समय अपने वोटरों को देशी शराब नहीं पहुंचाता ? हां, हो सकता है कोई अपवादरुप राजनीतिज्ञ हो लेकिन सभी बडी पार्टियों के तमाम उम्मीदवार यह पाप करते ही है और उस समय जो शराब आता है वह आसमान से नहीं टपकता। वह शराब भी वही का होता है और उसे खरीदने वाले भी वही के होते है। मतलब कि गुजरात में देशी शराब का जो कारोबार चलता है वह अड्डेवाले, पुलिस और राजनीतिज्ञ इन तीनों का संयुक्त पाप है और इसके लिए केवल पुलिस को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
हालांकि यह पूरी चर्चा ही गलत रास्ते पर है। हकीकत में इस दूषण के लिए अगर सचमुच किसी को दोष देना है तो उन लोगों को देना चाहिए। अड्डेवाले, पुलिस और राजनीतिज्ञ देशी शराब के पाप को पालते-पोषते है क्योंकि उन्हें इसमें आर्थिक लाभ दिखता है लेकिन लोग क्यों यह देशी शराब पीते है ? लोग अगर यह शराब खरीदेंगे नहीं तो इनका कारोबार चलेगा नहीं लेकिन इनका कारोबार चलता है क्योंकि लोगों को देशी शराब के बगैर नहीं चलता। अहमदाबाद में जहरीली शराब के कारण जो लोग मरे है वे वास्तव में अड्डेवाले, पुलिस और राजनीतिज्ञों के पाप से नहीं मरे लेकिन अपने ही पाप से ही मरे है। इसमें दूसरे किसी को दोष देने का कोई मतलब ही नहीं है। इस जहरीली शराब के कारण जो लोग मरे है उनके रिश्ते-नातेदारों ने पुलिस के सामने आक्रोश दिखाया, पथ्थरबाजी की, धमाल मचाया यह बाबत बहुत दु:खदायी है। इन लोगों ने अगर इतना जूनून शराब के कारण अपनी जिंदगी बर्बाद कर रहे उनके स्वजनों को रोकने के लिए दिखाया होता तो शायद यह नौबत ही नहीं आती।
अहमदाबाद के जहरीली शराब के कारण जिन्हें शराब के नाम से ही नशा चढने लगता है वे लोग अलग ही बाजा बजा रहे है। उनके अनुसार इस हादसे के लिए गुजरात की शराबबंदी जिम्मेदार है। गुजरात में अगर शराबबंदी ही ना होती तो यह घटना नहीं घटती ऐसा इनका कहना है। भारत में सबसे ज्यादा शराब कांड कर्नाटक और तामिलनाडु इन दो राज्यों में होता है और इन दो राज्यों में शराबबंदी नहीं है। अहमदाबाद में तो १७ साल बाद यह घटना हुई लेकिन इन दो राज्यों में तो हर साल पांच-सात जगह शराब कांड होता ही है और यह क्यों होता है यह समझने जैसा है।
जो लोग नकली शराब पीकर मरते है वे इसलिए मरते है क्योंकि नकली या देशी शराब यही उनकी औकात है और यह बात गुजरात को भी लागु होती है। अगर गुजरात में शराबबंदी हटा ली जाए और अंग्रेजी शराब मिलने लगे तो भी यह लोग पचास रुपये का एक पेग नहीं खरीद सकते, वे १० रुपये में मिलती थेली ही खरीदेंगे। गुजरात में शराबबंदी ना हो तो भी यह लोग वहीं थेली खरीदेंगे और पीएंगे। शराबबंदी हटे तो जो लोग आराम से घर में बैठकर शराब पीना चाहते है ऐसे लोगों को फर्क पडेगा लेकिन इन लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पडनेवाला। शराब पर प्रतिबंध लगाने के लिए दूसरे अनेक कारण है लेकिन यह शराब कांड कोई कारण नहीं है।
इस प्रकार के शराब कांड को रोकने का सबसे श्रेष्ठ उपाय कि लोग ऐसी हलकी गुणवत्ता का शराब पीना ही बंद करे और गुजरात में कानूनी तौर पर शराबबंदी है उसका पालन कर इस कानून को इज्जत बख्शे। वैसे अचानक बनती ऐसी दुर्घटना में कुत्ते की मौत मरने का विकल्प खुला ही है। और जो लोग खुद कुत्ते की मौत मरना चाहते है उनके पीछे आंसू बहाने का कोई मतलब भी नहीं है।
जय हिंद

शनिवार, 11 जुलाई 2009

डॉ. श्रीधरन की लडाई

यह किस्सा है ........पूरी दुनिया जिसे देख अचंभित हो जाये ऐसी कोंकण रेलवे और दिल्ली मेट्रो जैसी अद्भूत भेंट देनेवाले डॉ. श्रीधरन का।
तो आइये, सबसे पहले जानते है कि कौन है यह डॉ. श्रीधरन....
केरल के पलक्कड जिले में १२ जुलाई, १९३२ के दिन पैदा हुए डॉ. एलात्तुवालापिल श्रीधरन दिल्ली मेट्रो रेलवे के जनक है। इन दो प्रोजेक्टों ने श्रीधरन को विश्वविख्यात बना दिया। श्रीधरन मूल सिविल एन्जिनियर है और १९५७ में सधर्न रेलवे में प्रोबेशनरी आसिस्टन्ट एन्जिनियर के तौर पर जुडकर उन्होंने अपने करियर की शुरुआत की थी। १९६३ में बनी एक घटना ने श्रीधरन की पहली शक्ति का चमत्कार सभी को दिया। उस समय दक्षिण के समुद्र किनारे जोरदार तूफान आया था और उसमें रामेश्वरम को तमिलनाडु से जोडता पुल टूट गया था। रेल्वे ने इस पुल को फिर से बनाने के लिए छह महिने का समय तय किया लेकिन श्रीधरन के बोस ने इस समयावधि को घटाकर तीन महिने का किया और श्रीधरन को उसकी जिम्मेदारी सौंपी। श्रीधरन ने सिर्फ ४६ दिन में इस पुल को तैयार कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। इस सफलता के लिए उन्हें रेलवे मंत्री का खास अवार्ड मिला था। १९७० में उन्हें कोलकात्ता मेट्रो स्थापना का काम सौंपा गया। देश में यह पहली मेट्रो थी। १९९० में श्रीधरन रिटायर्ड हुए उसके बाद केन्द्र सरकार ने कोंकण रेलवे प्रोजेक्ट के लिए उनकी नियुक्ति की। यह प्रोजेक्ट ७६० कि.मी. लंबा है और इसमें १५० पुल आते है। हालांकि सबसे मुश्किल काम पहाडों में टनल बनाने का था। श्रीधरन ने पहाडियों के अंदर ८२ कि.मी. लंबे रुट पर ९३ टनल वाला यह प्रोजेक्ट मात्र सात साल में पूरा कर सबको दंग कर दिया था। श्रीधरन ने बहुत कम खर्च में यह प्रोजेक्ट पूरा किया। श्रीधरन को इसके बाद दिल्ली मेट्रो का प्रतिष्ठित प्रोजेक्ट सौंपा गया और श्रीधरन ने इस प्रोजेक्ट को तय किए गए समय से जल्दी और आवंटित किए गए बजट में पूरा कर दिखाया। इस प्रोजेक्ट ने श्रीधरन की ख्याति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैलाई और उन्हें ढेर सारे अवार्ड मिले है।
श्रीधरन ने इस देश के लिए जो किया इसके मोल में कुछ नहीं आ सकता और बावजूद इसके इस देश का प्रशासन और अधिकारी उन्हें एक छोटी सी बाबत में धक्के खिला रहे है, इसका जो विवरण बाहर आया है उसे सुनने के बाद एक भारतीय के तौर पर हम सभी का सिर शर्म से झुके बिना नहीं रहेगा। श्रीधरन ने जो काम किया है उसके बदले में उन्हें जो पारिश्रमिक तय हुआ है वही लेना है और यह उनका अधिकार है। फिर भी उन्हें अपने हक के पैसे लेने के लिए एक ऑफिस से दूसरी ऑफिस भिखारी की तरह धक्के खाने पड रहे है। सबसे आघातजनक बात तो यह है कि जो लोग श्रीधरन की सफलता पर सत्ता भोग रहे है या वाहवाही लूट रहे है उसमें कोई राजनीतिज्ञ श्रीधरन को मदद करने को तैयार नहीं है। मदद की बात छोडो लेकिन श्रीधरन को अपने अधिकार के पैसे ना मिले इसके लिए इन्ही नेताओं के सरकार के अधिकारी नाटक कर रहे है और फिर भी सब चुप्पी साधे बैठे है।
श्रीधरन पहले भारतीय रेलवे में नौकरी करते थे और इस नौकरी के दौरान उन्होंने ऐसे कई काम किए है जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। १९९० में वे रिटायर्ड हुए उसके बाद इन्हीं सफलताओं के चलते उन्हें कोंकण रेलवे का काम सौंपा गया था। पहाडियों के बीच रेलवे लाईन डालने की बात तो सालों से हो रही थी लेकिन किसी में ऐसी सूझबूझ नहीं थी कि यह प्रोजेक्ट पूरा कर सके। श्रीधरन ने इस चेलेन्ज (प्रोजेक्ट) को सात साल में ही पूरा कर दिखाया। कोंकण रेलवे आज भी दुनिया में एन्जिनियरिंग के एंगल से एक चमत्कार माना जाता है और दुनिया के अच्छे-अच्छे टेक्नोक्रेट उसे देख दंग रह जाते है।
श्रीधरन कोंकण रेलवे में सीइओ के तौर पर जुडे और उनकी नियुक्ति पांच साल के लिए थी। उस समय उनकी तनख्वाह रु. ९००० के बेजिक स्केल पर तय हुई थी। श्रीधरन ने काम तो शुरु कर दिया लेकिन सरकारी अधिकारी ऐसा फतवा ले आए कि श्रीधरन की नियुक्ति केन्द्र सरकार द्वारा की गई पुन:नियुक्ति है इसलिए वे या तो पेन्शन ले सकते है या कोंकण रेलवे के सीइओ के तौर पर तनख्वाह ले सकते है। इस फतवे के आधार पर उन्होंने श्रीधरन की तनख्वाह में से हर महिने ४००० काटने का शुरु किया। श्रीधरन ने उस समय रिकवेस्ट भी की लेकिन उन्हें कोई सुनने को तैयार ही नहीं था। श्रीधरन के लिए प्रोजेक्ट ज्यादा महत्वपूर्ण था इसलिए उन्होंने सोचा कि यह मामला बाद में निपटा लिया जाएगा। प्रोजेक्ट पूरा होने के बाद उन्होंने फिर से अपनी तनख्वाह में से काटे गए पैसे मांगे तभी उन्हें फिर से वही फतवा पकडा दिया गया।
बिफरे हुए श्रीधरन कोर्ट में पहुंचे और केस शुरु हुआ। केस लंबा चला और आखिर में हाइकोर्ट ने श्रीधरन के पक्ष में फैसला सुनाया। कोर्ट ने श्रीधरन की नियुक्ति को नई नियुक्ति बताकर केन्द्र को रु. १० लाख चुकाने का आदेश दिया। हालांकि प्रशासन को यह फैसला रास नहीं आया इसलिए उन्होंने इस फैसले को चुनौती देने का तय किया। इस निर्णय से दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस बिफर गए और उन्होंने केन्द्र सरकार के अधिकारियों पर सख्त दंड डालने की धमकी दी उसके बाद केन्द्र सरकार ने यह अरजी वापिस ली। चीफ जस्टिस शाह ने अधिकारियों को कहा कि जिस इंसान ने इस देश की इतनी सेवा की है उस इंसान को आप इस तरह धक्के खिला रहे हो और बेइज्जत कर रहे हो इसके लिए आपको शर्म आनी चाहिए और जिस अधिकारी ने कोर्ट के फैसले के सामने अपील करने की सलाह दी है उस पर दंड डाल देना चाहिए।
श्रीधरन को हाइकोर्ट के कारण न्याय तो मिला लेकिन पैसे कब मिलेंगे पता नहीं। जिस इंसान ने देश की इतनी सेवा की उसे अपने हक के पैसे देने के लिए दो गज के अफसर लोग इस तरह परेशान करे यह बेहद शर्मनाक है। शीला दीक्षित ने दिल्ली में मेट्रो रेलवे उन्होंने दिया है और लाखों दिल्लीवासियों के कलेजे को ठंडा किया है ऐसा प्रचार कर गद्दी पर बैठी लेकिन वास्तव में जिसके कारण लाखों लोगों को सुविधा मिली है उनकी मदद करने को वे तैयार नहीं है।
जय हिंद

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

प्रणब दा का गांव, गरीब व मध्यमवर्ग को उपहार

समग्र देश जिसका बेसब्री से इंतजार कर था वह आम बजट आखिर पेश हो गया। केन्द्र में मनमोहन सिंह सरकार की वापसी के बाद यह पहला बजट था। लोग ऐसी उम्मीदे पालें बैठे थे कि उन्होंने यूपीए को झोली भर-भरकर वोट दिए और फिर से केन्द्र में सत्ता दिलाई उसका अहसान प्रणब दा थोडी बहुत राहतें देकर जरुर चुकायेंगे लेकिन यह उम्मीद नाकाम साबित हुई है। हालांकि इंसाफ की खातिर कहें तो प्रणब दा ने लोगों को एकदम हलाल भी नहीं किया है और राहतें दी है लेकिन इसके बावजूद लोग निराश है क्योंकि यह राहतें लोगों की उम्मीदों के मुताबिक नहीं है।
लोग और खासतौर पर नौकरी-पेशा वर्ग प्रणब दा से आयकर में जोरदार राहतों की उम्मीदें पाले बैठा था और उनका ऐसा मानना था कि आयकर की छूट सीमा बढकर दो लाख के करीब हो जायेगी। भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में आयकर की छूट सीमा बढाकर तीन लाख रुपये करने का विश्वास दिलाया था और बावजूद इसके इससे बिना ललचाये हमने कांग्रेस को वोट दिया इसलिए नौकरी-पेशा वर्ग का ऐसा मानना था कि कांग्रेस तीन गुना नहीं तो दो लाख तक की आयकर की छूट सीमा कर देगी लेकिन प्रणब दा उन्हें धोखा दे गए। प्रणब दा ने आयकर की छूट सीमा बढाई लेकिन बमुश्किल से १० हजार। इससे नौकरी-पेशा वर्ग को साल में बमुश्किल एकाद हजार का मुनाफा होगा। एक हजार रुपये में अब कुछ नहीं मिलता है तब इन राहतों से नौकरी-पेशा वर्ग निराश है। ऐसी ही हालत कॉर्पोरेट जगत की है। कॉर्पोरेट जगत मंदी का शोर मचाता था और मंदी के नाम से राहतें मांगता था लेकिन प्रणब दा ने उन्हें ठेंगा दिखाया है और कॉर्पोरेट टेक्स के दरों में कोई फेरबदल नहीं किए है। फ्रिन्ज बेनिफिट टेक्स हटाया तो है लेकिन उसका फायदा कॉर्पोरेट कंपनियों को ज्यादा नहीं होनेवाला इसलिए कॉर्पोरेट जगत निराश है। शेयर बाजार इस बार बहुत बडे पैकेज की उम्मीद पालें बैठा था और प्रणब दा ने कोमोडिटी ट्रान्जेक्शन टेक्स को दूर कर कोमोडिटी बाजार को खुश कर दिया और शेयर बाजार को लटका दिया जिसका उन्हें झटका लगा है। शेयर बाजारों में सोमवार को इसी के चलते ऐतिहासिक गिरावट आई। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है और सभी की बात करना यहां मुमकिन नहीं लेकिन थोडे में कहें तो लोगों ने जो बडी-बडी अपेक्षाएं रखी थी उस तरह का बजट प्रणब दा ने पेश नहीं किया। हालांकि इसमें गलती लोगों की है, प्रणब दा की नहीं। यूपीए सरकार की सत्ता में वापसी के बाद का यह पहला बजट है और अभी सरकार को कोई जरुरत नहीं कि वह वोटबैंक को ध्यान में रख बजट पेश करे। लोकसभा चुनाव में अभी पांच साल की देर है और ऐसे किसी राज्यों में चुनाव भी नहीं आ रहे कि उसके कारण सरकार को कोई नाराज ना हो जाये इसकी ऐतियात बरतनी पडे। प्रणब दा ने जो बजट पेश किया है वह वास्तव में तो यूपीए सरकार को लोकसभा चुनाव में मिली सफलता को आगे बढाने की कोंग्रेस की रणनीति का एक हिस्सा मात्र है और उन्होंने उसी वर्ग को खुश रखने का प्रयास किया है जिस वर्ग ने उन्हें फिर से सत्ता में आने में मदद की है। प्रणब दा के इस बजट में गांव के लोगों की सुख-सुविधाएं बढे इसके लिए दोनों हाथों से पूंजी का आवंटन किया गया है और इसी तरह किसानों को भी जहां तक हो सके खुश रखने का प्रयास किया गया है। प्रणब दा ने गांवों में पक्की सडक योजना से लेकर ग्रामीण रोजगार योजना के लिए आवंटन में हाथ खुले रखे है और कोई कसर ना रह जाये इसका खयाल रखा है। इसी तरह किसानों पर भी प्रणब दा मन लगाकर बरसे है।
यूपीए की सफलता में सबसे बडा हाथ किसानों के लिए कर्ज माफी योजना का था और उ.प्र जैसे राज्यों में तो इस योजना के दम पर कांग्रेस फिर से खडी हो पाई है। इस बजट में यह योजना और ६ साल के लिए बढाई गई है। इसके अलावा जो किसान जल्दी लोन भरे उन्हें ब्याज में एक प्रतिशत माफी और तीन लाख रुपये तक के लोन पर मात्र सात प्रतिशत ब्याज जैसे कदम उठाए गए है। ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर्स को मजबूत बनाने के लिए जो कदम उठाए गए है उसका फायदा भी अंत में किसानों को ही मिलनेवाला है जिसे देख किसानों के लिए दोनों हाथों में लड्डू है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि प्रणब दा के बजट के सामने कॉर्पोरेट जगत चाहे रोये या नौकरी-पेशा वर्ग सिर फोडे या शेयर बाजार हाहाकार मचाये लेकिन यह बजट इस देश में बदल रहे समीकरण का संकेत है। भारत में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरु हुआ उसके बाद ऐसा माहौल हो गया था कि अर्थतंत्र यानि शेयर बाजार और मल्टिनेशनल कंपनियां ही सब कुछ है। आर्थिक उदारीकरण के नाम से कॉर्पोरेट क्षेत्र और कंपनियों को राहतें दी जाए तो बजट अच्छा, नहीं दी जाए तो बजट खराब, जैसा माहौल पैदा हो गया था। टीवी चैनलों में बैठे एनालिस्ट और शहरों में रहते पत्रकार इसी गज से बजट को मापते और इसी के आधार पर बजट अच्छा है या बुरा यह तय करते थे। प्रणब दा ने इस परंपरा को तोडने का प्रयास किया है और इसके लिए उन्हें मेरा सलाम। इस देश में ७० प्रतिशत लोग गांवों में बसते है और इस देश के अर्थतंत्र की रीढ ही खेती है तब उसकी उपेक्षा कर भला आप कैसे चल सकते है? इससे इंकार नहीं कि उद्योग किसी भी देश के लिए महत्वपूर्ण है और निवेश भी महत्वपूर्ण है लेकिन उन्हें खेरात करो और खेती की या खेती पर टिकनेवाले गांवों के लोगों की उपेक्षा करो यह ठीक नहीं।
पिछले डेढ-दो दशक के दौरान यही खेल चला और सभी राजनीतिक पार्टियां उदारीकरण की रोशनी से भरमाकर शेयर बाजार और नौकरीपेशा वर्ग को खुश करने के लिए बजट पेश करती गई। इस गलती की किमत तमाम राजनीतिक पार्टियों ने चुकाई और उससे भी ज्यादा इस देश ने चुकाई। इस देश में जो राजनीतिक अस्थिरता पिछले डेढ-दो दशक के दौरान देखने को मिली उसके मूल में यही गिनती थी। भाजपा ने उसके छह साल के शासन में अच्छे काम नहीं किए ऐसा भी नहीं है। इस देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास में इन छह सालों में बहुत काम हुए। एक्सप्रेस वे इसका श्रेष्ठ उदाहरण है और बावजूद इसके भाजपा फिर से सत्ता में क्यों नहीं आई? क्योंकि वह इन्डिया शाइनिंग की बातें कर उन्हीं लोगों को प्रभावित करने के प्रयास करती रही जिनके पास आवाज तो है लेकिन इस देश की बागडोर किसके हाथ में सौंपनी है इसकी चाबी नहीं। यह चाबी तो गांवों में रहते करोडों भारतीयों के हाथों में है और भाजपा उन्हें ही भूला बैठी।
कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार की रचना हुई उसके बाद से शुरुआत में तो कांग्रेस ने भी यही गलती की थी लेकिन बाद में कांग्रेस के कुछेक समझदार लोगों को मालूम हुआ कि ऐसा ही चलता रहा तो भाजपा की तरह हमारा भी काम तमाम हो जायेगा और उन्होंने गांवों को ध्यान में रखकर खेल जमा दिया। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना से लेकर किसानों के कर्ज माफी तक के कार्यक्रमों को अमल में रखा गया और उसका फल कांग्रेस को मिला।
इस बजट से प्रणब दा ने एक संदेश दिया है और अहसास कराया है कि यह बजट सिर्फ शेयर बाजार या नौकरी-पेशा या कंपनियों के लिए नहीं है।
जय हिंद

बुधवार, 1 जुलाई 2009

लिबराहन आयोग का रिपोर्ट

भाजपा के लिए अभी जो समय चल रहा है उसे देख लगता है कि उसके लिए ग्रहदशा खराब चल रही है। लोकसभा चुनाव परिणाम के शिकस्त का जख्म अभी ताजा ही है, वही भाजपा के लिए लिबराहन आयोग के रिपोर्ट के रुप में एक नया झमेला खडा हो गया है। 6 दिसम्बर 1992 के दिन बाबरी मस्जिद को ढहाया गया उसके बाद बाबरी क्यों ध्वंस हुई उसके कारणों की जांच करने के लिए और जिन्होंने बाबरी ध्वंस में खलनायक की भूमिका निभाई थी उन्हें ढूंढने के लिए लिबराहन आयोग की रचना की गई थी। मूल तो इस आयोग को अपना रिपोर्ट 16 मार्च, 1993 को यानि कि बाबरी ध्वंस हुई उसके तीन महिने में देना था लेकिन हमारे देश में किसी जांच आयोग ने तय किए गए समय में अपना रिपोर्ट दिया है तो भला लिबराहन आयोग कैसे देती ? लिबराहन आयोग ने तीन महिने में जो रिपोर्ट देना था उसे तैयार करते-करते 17 साल निकाल दिए। हालांकि उसमें लिबराहन आयोग का दोष नहीं है। लिबराहन आयोग के कहने के मुताबिक इस मामले में जो लोग शामिल थे उनके नखरे और आपत्ति के नाटक के चलते इतनी देर हुई। हालांकि लिबराहन आयोग ने अपना रिपोर्ट दे दिया और ऐसे समय में दिया है कि भाजपा के नेतागण के पास बचने के लिए कोई रास्ता न हो।
लिबराहन आयोग के रिपोर्ट में क्या होगा इसकी घोषणा नहीं की गई है लेकिन इस रिपोर्ट में क्या होगा इसकी कल्पना मुश्किल भी नहीं है। बाबरी मस्जिद ध्वंस हुई उसके मूल में लालकृष्ण आडवाणी मंडली थी। आडवाणी ने हिन्दू वोटबैंक हडपने के लिए राममंदिर का अभियान चलाया और ‘कसम राम की खाते है मंदिर वही बनायेंगे’ के नारे लगवाये उसके कारण हिन्दूओं में एक जबरदस्त उन्माद पैदा हुआ और उस उन्माद को वोटबैंक में तबदील करने के लिए आडवाणी मंडली ने कारसेवा शुरु करवाई। उस समय संघ परिवार में अभी जैसी दरारें है वैसी दरारें नहीं थी और विहिप, बजरंग दल, दुर्गावाहिनी आदि एक थे और आडवाणी उन सभी के प्यारे-दुलारे थे। कारसेवा के नाम से संध परिवार ने 1991 में पहली बार बाबरी मस्जिद पर हल्ला बोला वही राममंदिर बनाने का प्रयत्न किया और आडवाणी ने रथयात्रा निकाली। लेकिन उस समय बिहार में लालूप्रसाद यादव का राज था और लालू ने आडवाणी की रथयात्रा अयोध्या पहुंचे उससे पहले ही उन्हें जेल में भेज दिया।
उ.प्र में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी और मुलायम मुस्लिम वोटों के लिए किसी भी हद तक जाने में उस समय भी नहीं शर्माते थे इसलिए उन्होंने कारसेवकों पर गोलियां चलवाई और कुछेक का काम तमाम करवा दिया। मुलायम के हमले के कारण उस समय तो कारसेवक ठंडे हो गये लेकिन यह गोलियां मुलायम को बहुत भारी पड गई। मुलायम को इसके कारण सत्ता से हाथ धोना पडा और उ.प्र. में पहली बार भाजपा ने अपने दम पर सरकार बनाई, कल्याण सिंह फिर से मुख्यमंत्री बने। भाजपा सत्ता में आते ही संघ परिवार फिर से मैदान में आ गया और फिर कारसेवा का खेल शुरु हुआ। कारसेवकों के लिए यह अच्छा मौका था और जो जी में आये उसे करने की इजाजत थी। इसमें भी कोई कसर बाकी न रहे इसके लिए आडवाणी, उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी सहित के भाजपा नेता उपस्थित थे और उन्होंने सभी कसर पूरी कर ली। इतना बडा गुट हो और कोई कहने वाला नहीं हो वहा क्या नहीं हो सकता ? इसीके चलते बाबरी मस्जिद ध्वंस हुई।
बाबरी मस्जिद टूटने के बाद आडवाणी सहित के नेता उत्साह में थे। कल्याण सिंह ने 6 दिसम्बर 1992 से पहले ही सुप्रीम कोर्ट को यकीन दिलवाया था कि बाबरी मस्जिद का कंकर भी नहीं ढहेगा लेकिन इसके बावजूद बाबरी ध्वंस हुई। हालांकि कट्टरवादी हिन्दू कल्याण सिंह की इस मर्दानगी पर फिदा थे और इसका नशा उनके दिमाग पर छाया हुआ था। आडवाणी भी बराबर उत्साह में थे और उन्होंने इसी उत्साह के चलते 6 दिसम्बर को विजय दिन घोषित कर दिया था। यह बात अलग है कि भाजपा के नेता बाबरी ध्वंस की जिम्मेदारी स्वीकारने को तैयार नहीं थे और इस मामले जो समस्याएं खडी हुई उसके बाद भाजपा ने खुद बाबरी ध्वंस के मामले अपने हाथ ऊपर कर लिए। वाजपेयी ने तो संसद में बाबरी ध्वंस के लिए माफी मांगी थी। तब से लेकर आज तक जब-जब बाबरी ध्वंस की बात निकलती है तब भाजपा के नेता आगे-पीछे होने लगते है। भाजपा के नेताओं में उस समय भी इतनी नैतिक हिम्मत नहीं थी कि बाबरी ध्वंस की जिम्मेदारी स्वीकारे और आज भी उनमें हिम्मत नहीं है। राम मंदिर के लिए जान की बाजी लगाने की बात करनेवाले भाजपा के नेताओं ने उसके बाद चुप्पी साध ली। केन्द्र में 6 साल के लिए भाजपा की सरकार आई और कल्याण सिंह भी वापस उ.प्र. की गद्दी पर बैठे लेकिन ‘कसम राम की खाते है, मंदिर वहीं बनायेंगे’ का उदघोष करनेवाले भाजपा को इस दौरान कभी राममंदिर बनवाने की याद नहीं आई। वे हिन्दुत्व को नहीं भूले यह बताने के लिए भाजपा के नेतागण बीच-बीच में अयोध्या में भव्य राममंदिर बनवाने की बाते कर लेते है लेकिन राममंदिर कब बनायेंगे यह नहीं बताते। और इस माहोल में लिबराहन आयोग का रिपोर्ट आया है। लिबराहन आयोग के रिपोर्ट में क्या होगा यह कहने की जरुरत नहीं है। बाबरी ध्वंस के लिए आडवाणी मंडली जिम्मेदार है ऐसा इस रिपोर्ट में लिखा होगा इस रिपोर्ट को बिना पढे ही कह सकते है। अभी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है और उसे तो इस रिपोर्ट के रुप में मिठाई की दुकान ही मिल गई है। वह ऐसा मौका जाया करे ऐसा हो नहीं सकता। कांग्रेस बहुत तेजी से यह रिपोर्ट संसद में रखेगी और भाजपा का बेन्ड बजा देगी। बाबरी ध्वंस का मामला आज 17 साल बाद भी एकदम संवेदनशील है और खास तौर पर भाजपा के लिए। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपनी हार के लिए जो कारण दिए है उसमें एक कारण मुस्लिमों का भाजपा की ओर आक्रोश भी है और भाजपा हिन्दुत्व का बाजा बजाने गया उसमें मुस्लिमों ने भाजपा का बेन्ड बजा दिया ऐसा भाजपा के नेतागण कह चुके है।
इस रिपोर्ट के बारे में भाजपा ने जो प्रतिक्रिया दी है वह भी देखने जैसी है। भाजपा के कहने के मुताबिक आडवाणी सहित के उसके नेतागण बाबरी ध्वंस के मामले एकदम निर्दोष है और उन्हें राजनीतिक कारण से फंसाया गया है। यह प्रतिक्रिया भाजपा का पलायनवाद है। अयोध्या में लाखों कारसेवकों को इकट्ठा किसने किया ? उनके सामने उकसाने वाले प्रवचन किसने दिया ? भगवान राम और हिन्दुत्व की दुहाई किसने दी? और यह सब करने के बाद यह लाखों लोगों का गुट वहां भजन थोडे ही करेगा, मस्जिद तोडे इसमें कोई आश्चर्य नहीं।
भाजपा दोनों ओर मलाई चाहती है और यही उसकी समस्या है। बाबरी ध्वंस हुई यह अच्छा हुआ या गलत यह मुद्दा अभी अप्रस्तुत है। अगर भाजपा को लगता हो कि बाबरी मस्जिद टूटी यह गलत हुआ तो उसे मुसलमानों की माफी मांगनी चाहिए और लगता हो कि बाबरी टूटी इसमें कुछ गलत नहीं हुआ तो उसे स्वीकार करना चाहिए कि हमारे अभियान के कारण मस्जिद टूटी इसका हमें जर्रा भी अफसोस नहीं है। ऐसी हिम्मत आडवाणी को दिखानी चाहिए।
जय हिंद

मंगलवार, 30 जून 2009

भारत रत्न के हकदार है दिवंगत नरसिंह राव

पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव की 89वीं जयंती के मौके पर पीआरपी सुप्रीमो चिरंजीवी ने यह मांग कर डाली कि आंध्र के महान सपूत नरसिंह राव को भारत रत्न दिया जाना चाहिए। तो आइए जानते है कि दिवंगत नरसिंह राव किस तरह भारत रत्न के हकदार है।
मनमोहन सिंह इस देश के 14 वें प्रधानमंत्री है और उनसे पहले जो 13 प्रधानमंत्री आए उनमें से अधिकांश लोग ऐसे थे जिनका इस देश के विकास या देश को नई दिशा देने में ज्यादा योगदान नहीं है। वे लोग अपनी किस्मत के बलबूते और हमारी बदकिस्मती से इस देश की गद्दी पर बैठे और शासन कर बिदा हुए। आज हमें उनकी सूची खोलकर नहीं बैठना है लेकिन सकारात्मक बात करनी है, इस देश को एक नई दिशा देने में जिनका योगदान बहुत बडा है ऐसे लोगों की बात करनी है। हमारा देश आज जिस मुकाम पर है उसे वहां तक पहुंचाने में तीन प्रधानमंत्रियों का हाथ है। पहले जवाहर लाल नेहरु, दूसरे राजीव गांधी और तीसरे नरसिंह राव।
जो लोग नेहरु-गांधी खानदान को गालियां देते रहते है उन लोगों को शायद यह बात पसंद नहीं आयेगी लेकिन पसंद-नापसंद से हकीकत नहीं बदल जाती। नेहरु ने इस देश में बहुत गडबड की लेकिन उसके साथ इस देश को स्थिरता देने में और एक दिशा देने में उनका योगदान बहुत बडा था। देश के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने कुछेक गलत नीतियां अपनाई लेकिन कृषि से लेकर बडे बांध बांधने तक के मामले उन्होंने जो अवलोकन बताया उसके लिए उन्हें सलामी देनी पडेगी। आधुनिक भारत की नींव नेहरु ने ही डाली थी। राजीव गांधी का योगदान नेहरु जितना ही बडा है। राजीव गांधी के आगमन से पहले यह देश अक्षरश: 18वीं सदी में जीता था। जरा सोचे, उस जमाने में अमरिका फोन लगाना हो तो भी कम से कम 24 घंटे तो लगते थे। राजीव ने इस देश में टेलिकॉम क्रांति कर इस देश को अत्याधुनिक बनाया। आज इस देश में भिखारी भी मोबाइल फोन पर बात करते है और इन्टरनेट तो सहज है ही जो राजीव गांधी की मेहरबानी है। राजीव गांधी ने इस देश में से लाइसन्स-राज हटाने की भी शुरुआत करवाई।
नरसिंह राव का योगदान राजीव और नेहरु जितना ही है। हम आज जो आर्थिक समृद्धि भोग रहे है और दुनियाभर के आर्थिक समृद्ध देशों के निकट है यह नरसिंह राव की मेहरबानी से है। नरसिंह राव को प्रधानमंत्री पद किस्मत के दम पर ही मिला। नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने तब यह देश अक्षरश: आर्थिक गिरावट के करीब था। नरसिंह राव से पहले चंद्रशेखर प्रधानमंत्री थे और पूरी जिंदगी समाजवाद का बिन बजाने वाले चंद्रशेखर ने इस देश के सोने को बेचने निकाला था। नरसिंह राव आये तब सरकारी खजाना खाली था। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करना चाहिए। नरसिंह राव ने बहुत सोचा और उसके बाद एक ऐतिहासिक निर्णय लिया। उन्होंने मनमोहन सिंह को वित्तमंत्री बनाया और इस देश के अर्थतंत्र को उदारीकरण के रास्ते ले गये और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए दरवाजे खोले। मनमोहन सिंह को राजनीति से कोई संबंध नहीं था और इस देश में कोई गैरराजनीतिज्ञ वित्तमंत्री पद जैसे महत्व के पद पर बैठे तो आसमान टूट जाए ऐसी स्थिति थी। नरसिंह राव के इस निर्णय के सामने कांग्रेस में ही बहुत हंगामा हुआ था। पुराने कांग्रेसियों ने ऐसी कांय-कांय शुरु की कि कांग्रेस ने इस देश में जिसकी नींव डाली उस समाजवाद को नरसिंह राव ने तहस-नहस किया। लेकिन नरसिंह राव इन सब विरोधों के बावजूद आर्थिक उदारीकरण के मामले आगे बढे। नरसिंह राव ने उसके बाद पांच साल में जो कुछ किया वह इतिहास है। नरसिंह राव ने शेयर बाजार पर नियंत्रण दूर किए, लाइसन्स-राज हटाया और विदेशी निवेश के लिए देश के दरवाजे खोल दिए। नरसिंह राव के कारण ही 1991-92 में भारत में मुश्किल से 13 करोड डोलर का विदेशी निवेश आया जो पांच साल बाद बढकर साढे पांच अरब डोलर हो गया था। नरसिंह राव ने इस देश के आर्थिक तसवीर को बदलने में जो योगदान दिया है उसके आगे मेरा यह आलेख बहुत ही छोटा है।
राव के एक ओर योगदान की बात करे तो भले ही भाजपा 1998 में पोखरन में किए परमाणु परीक्षण का श्रेय ले जाए और खुद ने इस देश को परमाणु ताकतवाला बनाया ऐसा दावा करे लेकिन हकीकत यह है कि उस परमाणु परीक्षण का श्रेय राव को जाता है। यह कोई मजाक या गप्प नहीं है, हकीकत है। भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री रह चुके अटल बिहारी वाजपेयी ने कूबुल किया है। नरसिंह राव की मृत्यु हुई तब वाजपेयी ने उन्हें श्रध्धाजंलि देते हुए कहा था कि वे 1996 में प्रधानमंत्री बने तब नरसिंह राव ने उन्हें एक चिट्ठी दी थी और उसमें लिखा था कि, बम तैयार है, कभी भी फोड देना। राव ने वाजपेयी को यह बात सार्वजनिक नहीं करने के लिए बिनती की थी। वाजपेयी उस समय सत्ता में 13 दिन ही टिक पाये थे इसलिए बम नहीं फोड सके लेकिन दूसरी बार सत्ता मिली तभी उन्होंने यह काम किया और श्रेय लिया। वाजपेयी ने नरसिंह राव की बिनती के कारण यह बात सार्वजनिक नहीं होने दी लेकिन उनके अवसान के बाद यह रहस्य खोला। नरसिंह राव के योगदान को भारत में बहुत सामान्य तरीके से लिया गया है और उनके काल में जो कौभांड हुए उसे ज्यादा महत्व दिया गया है। JMM कौभांड या अन्य कौभांड सचमुच गंभीर थे लेकिन राव का दूसरा योगदान उन कौभांडों से ज्यादा बडा है यह मानना पडेगा।
हमारे देश में अवार्डस देने के लिए कोई नीति-नियम नहीं है और यह बात भारत रत्न जैसे सर्वोच्च माने जाते अवार्ड को भी लागू होता है। जिन्हें भारत रत्न मिला है ऐसे लोगों की सूची देखे तो पता चलेगा कि यहां पर सब पोलमपोल है । इस सूची में अधिकांश ऐसे नमूने आ गए है जिनकी औकात कुछ नहीं लेकिन राजनीति के दम पर वे लोग भारत रत्न बनकर बैठे है। भारत रत्न का अपमान हो ऐसे लोगों को यह अवार्ड मिला है। ऐसे लोगों की चर्चा कर भारत रत्न अवार्ड को अपमानित नहीं करना चाहती हूं लेकिन उनकी तुलना में नरसिंह राव 100 प्रतिशत ज्यादा योग्य है।
जय हिंद

बुधवार, 24 जून 2009

बहुत पुराना है खंडूरी के इस्तीफे का झमेला

लोकसभा चुनाव में भाजपा का सूपडा साफ होने और उसके कारण चल रहे धमासान के चलते पहला विकेट गिरा है और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूरी ने इस्तीफा दे दिया है। उत्तराखंड में लोकसभा की पांच बैठके है जिस पर कांग्रेस ने अपना बुजडोलर घुमाकर यह पांच बैठके जीत ली थी और भाजपा का सफाया कर दिया था। इस हार की वजह से खंडूरी के विरोधी तलवार लेकर खडे हो गए थे और हल्ला मचाना शुरु कर दिया था। खंडूरी के विरोधियों की जो सेना है उसकी अगवानी भूतपूर्व मुख्यमंत्री भगतसिंह कोशियारी ने की है। कोशियारी २००१ में दो साल के लिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे लेकिन २००२ के चुनाव में नारायण दत्त तिवारी के कांग्रेस ने भाजपा का सफाया कर दिया था।
दो साल पूर्व मार्च में उत्तराखंड विधानसभा चुनाव हुए तब भाजपा को स्पष्ट बहुमती नहीं मिली थी लेकिन वह सबसे बडी पार्टी के रुप में उभरी थी। कोशियारी उस समय भी गद्दी पर बैठना चाहते थे लेकिन वे कामयाब नहीं हुए। कोशियारी ने उस समय बहुत तिकडम किए लेकिन भाजपा के नेताओं ने उन्हें एक ओर बैठा दिया था और वाजपेयी के करीबी खंडूरी का राजतिलक कर उन्हें गद्दी पर बिठा दिया था। कोशियारी खंडूरी के लिए कोई झमेला खडा न करे इसलिए उन्हें राज्यसभा के सदस्य बनाकर दिल्ली भेज दिया गया। हालांकि कोशियारी बाज नहीं आते थे लेकिन उस समय खंडुरी को हटाने के लिए उनके पास कोई बहाना नहीं था इसलिए उनकी दाल नहीं गली। इस तरह खंडूरी के इस्तीफे का झमेला बहुत पुराना है।
उत्तराखंड में भाजपा की सरकार होने के बावजूद कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में जो जीत हासिल की उसके साथ ही कोशियारी को बहाना मिल गया और वे फिर से शुरु हो गए। कोशियारी ने सबसे पहले राज्यसभा में से इस्तीफा देने का नाटक किया और बाद में अपने समर्थको के जरिए तिकडम शुरु करवाये। राजनाथ के मना लेने के बाद कोशियारी ने इस्तीफा तो वापस ले लिया लेकिन उनके खेल जारी ही थे। भाजपा ने कोशियारी के समर्थको को एकसाथ पार्टी में से निकालने का प्रयास भी करके देखा लेकिन हुआ उल्टा। उसके कारण ज्वालामुखी ज्यादा भयानक स्वरुप में तब्दील हो गई और भाजपा की सरकार गिरे ऐसी हालत हो गई इसलिए खंडूरी को बलि का बकरा बनाने का निर्णय लिया गया।
लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सिर्फ उत्तराखंड में हार सहा हो ऐसा नहीं है। मध्यप्रदेश, कर्नाटक और छत्तीसगढ को छोड भाजपा का परफोर्मन्स हर जगह कमजोर रहा है। इसका विश्लेषण होना चाहिए, हार के सही कारण ढूंढे जाने चाहिए लेकिन भाजपा यह सब करने के बजाय इस प्रकार के निर्णय लेकर संतोष मान रही है। मैं खंडूरी की तरफदारी नहीं कर रही हूं। लेकिन मुख्य मुदा यह है कि भाजपा जो कर रही है वह पलायनवाद ही है।
लोकसभा चुनाव का सीधा मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच था और इससे भी ज्यादा साफ शब्दों में कहूं तो जनता को मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी में से किसी एक को चुनने का था और जनता ने वो किया। इसमें खंडूरी या रमनसिंह या अन्य कोई मुख्यमंत्री बीच में कहां से आए ? लोकसभा चुनाव में जनता राष्ट्रीय स्तर पर नेतागीरी को देख चुनाव करती है और भाजपा के राष्ट्रीय दर्जे की नेतागीरी में कुछ नही था। क्योंकि यह लोग मनमोहन सिंह टीम से अच्छा वहीवट नहीं दे सकते है ऐसा फैसला इस देश की जनता का था। ऐसा नहीं है कि लोकसभा चुनाव में लोग राज्य सरकार के काम को ध्यान में नहीं लेते लेकिन सबसे ज्यादा प्रभाव राष्ट्रीय दर्जे की नेतागीरी का होता है और भाजपा के राष्ट्रीय नेतागण यह प्रभाव डालने में असफल रहे है। वास्तव में उनमें नैतिक हिम्मत होती तो उन्हें सबसे पहले इस्तीफा दे देना चाहिए था और बाद में खंडूरी की बलि लेनी चाहिए थी।
हालाकि भाजपा में स्थिति उल्टी है। भाजपा में हार के लिए जो सचमुच में जिम्मेदार है ऐसे लालकृष्ण आडवाणी को कुछ नहीं होता। अगर उत्तराखंड में भाजपा के हार के लिए वहा के मुख्यमंत्री को दोषी माने जाते हो तो फिर समग्र देश में भाजपा की जो हार हुई उसके लिए राजनाथ सिंह और आडवाणी को भी इस्तीफा दे देना चाहिए। यह न्याय की बात है। नैतिकता की बात है। राजनाथ सिंह ने भाजपा कार्यकारिणी बैठक में हार के लिए खुद को दोषी ठहराया और खुद महान बलिदान दे रहे हो ऐसा दंभ भी किया लेकिन उसके बाद क्या हुआ ? आडवाणी तो उनसे भी बडे उस्ताद है। लोकसभा चुनाव परिणाम घोषित हुए और भाजपा का सूपडा साफ हुआ उसके साथ ही उन्होंने घोषणा की थी कि वे खुद लोकसभा में विरोध पक्ष के नेता नहीं बनेंगे। आडवाणी को भला किसने कहा था कि उन्हें विरोध पक्ष का नेता बनाना है। आडवाणी ने अपनी चालाकी दिखाई और किसी को उन्हें हटाने का खयाल आये उससे पहले ही आनाकानी कर वे खुद इस पद के दावेदार है ऐसी घोषणा कर दी और आनाकानी के बाद विपक्ष के नेता पद पर बैठ गए। राजनाथ ने यही चालाकी भाजपा के कार्यकारिणी बैठक में बताई। चलो भई, यह उनका प्रश्न है हमें इससे क्या? भाजपा कुछ भी करे, खंडुरी को बिना कसूर के घर भेज दे, आडवाणी और राजनाथ की पालखी उठाकर घूमे या उनके मंदिर बनवाकर उनकी सुबह शाम आरती करे मैंने तो सिर्फ ईमानदारी और पारदर्शिता की बात की है। भाजपा इस देश के दो मुख्य राजनीतिक पार्टीओं में से एक है और अगर जनता उनसे इमानदारी और पारदर्शिता की उम्मीद रखती है तो इसमें गलत कुछ भी नहीं । कोई भी पार्टी सत्ता में आए तब किस तरह पेश आयेगी उसका तर्जुबा हमें उनके रवैये और बर्ताव की छाया से मिलता है लेकिन भाजपा जिस प्रकार का रवैया अपना रही है उसे देख लगता है उसे इमानदारी और पारदर्शिता में दिलचस्पी नहीं है। भाजपा के नेताओं को तटस्थ मूल्यांकन में दिलचस्पी नहीं है और ना ही हार की नैतिक जिम्मेदारी को स्वीकारने में। भाजपा के लिए लोकसभा का यह चुनाव सबक है लेकिन भाजपा उसमें से कुछ भी स्वीकारने को तैयार नहीं है, और नेता कुछ भी छोडने को तैयार नहीं है और यह भाजपा की बदकिस्मती है जिसकी किमत वह चुका रही है।
जय हिंद
जय जगन्नाथ

शनिवार, 20 जून 2009

लालगढ से दरक रहा है वामपंथ का दुर्ग

पश्चिम बंगाल के तख्त पर काले नाग की तरह लिपटे वामपंथियों के सामने जिस तरह एक के बाद एक झमेले आ रहे है उसे देख लगता है कि उनके दिन भारी चल रहे है। बंगाल में पहले नंदीग्राम का झमेला खडा हुआ और इस मुद्दे के बलबूते एकदम थक-हार चुकी ममता फिर से खडी हो पाई। बंगाल सरकार ने किसानों की जमीन हडपकर इन्डोनेशिया के सलीम ग्रूप को दी उसके सामने ममता ने ऐसी सख्त लडाई चलाई की वामपंथियों को दिन में तारे दिखा दिए। वामपंथी बंगाल में इतने सालों तक टिक पाए उसका मुख्य कारण उनकी गुंदागर्दी है और नंदीग्राम में ममता की लडाई को रोकने के लिए उन्होंने गुंदागर्दी ही की लेकिन ममता ने उनकी गुंदागर्दी का ऐसा जवाब दिया कि वामपंथी और सलीम ग्रूप को दूम उठाकर भागना पडा।
नंदीग्राम के झटके से उबरे उससे पहले तो सिंगुर का झमेला खडा हो गया और ममता ने इसबार बडे पैमाने पर बंगाल में एक लाख रुपये की नेनो कार बनाने निकले ताता को चमत्कार दिखा भगा दिया और बुद्धदेव की इज्जत का खुरदा कर दिया। वामपंथी इस चोट से उबरे उससे पहले लोकसभा चुनाव आ गए और नंदीग्राम कथा सिंगुर की लडाई के बल पर ममता बेनर्जी जम गई और वामपंथियों का सूपडा साफ कर दिया। ममता-कांग्रेस की जुगलबंधी ने बंगाल की ४८ में से २५ बैठक कब्जे कर वामपंथियों को हतप्रभ कर दिया।
वामपंथी इस चोट से उबरे उससे पहले उनके लिए नया झमेला खडा हुआ है और नंदीग्राम, सिंगुर के बाद अब लालगढ में होली जली है। हालांकि, नंदीग्राम और सिंगुर की तरह लालगढ को जलाने के पीछे ममता का हाथ नहीं है लेकिन वामपंथियों के नाते-रिश्तेदार सीपीआइ - एनएल वाले ही है। वामपंथियों के लिए लालगढ की समस्या ज्यादा खतरनाक है क्योंकि ममता चाहे निजी तौर पर तोडफोड को बढावा देती हो लेकिन उन्होंने जो लडाई चलाई वह सार्वजनिक रुप से तो अहिंसक और शांतिपूर्ण थी जबकि लालगढ में तो मामला पहले से ही जिसकी लाठी उसकी भेंस का है और सीपीआइ-एमएल वाले गोली का जवाब गोली से देने में मानते है।
लालगढ में अभी जो होली सुलगी है उसके मूल में गत नवम्बर में घटित घटना है। बंगाल के मुख्यमंत्री भट्टाचार्य एक स्टील प्लान्ट के भूमिपूजन में से वापिस आ रहे थे तब इस प्लान्ट का विरोध कर रहे सीपीआइ-एमएल ने ब्लास्ट कर भट्टाचार्य को उडा देने का प्रयास किया और उसके कारण पुलिस टूट पडी। पुलिस ने यह ब्लास्ट करनेवालों को ढूंढने के लिए गांवों में छापे मारे। क्रोधित लोगों ने पुलिस के सामने मोरचा शुरु किया और उसका फायदा उठाकर सीपीआइ-एमएल वाले टूट पडे। अभी जो हालात है वह यह है कि लालगढ की ओर जाते मार्ग सीपीआइ-एमएल के कार्यकर्ताओं ने तोड दिये है या बंद कर दिये है और पुलिस अंदर घुस नहीं सकती। यह क्षेत्र जंगल का क्षेत्र है और यहा आदिवासियों का प्रमाण ज्यादा है। सीपीआइ-एमएल आदिवासियों को आगे कर लडाई लड रहे है और उसमें बंगाल पुलिस त्रस्त हो गई है। लालगढ का झमेला कब सुलझेगा पता नहीं लेकिन वास्तव में अभी जो कुछ भी हो रहा है वह वामपंथियों के लिए अपने हाथों से अपने गाल पर तमाचा मारने जैसा है। सीपीआइ-एमएल मूल तो सीपीएम का ही पाप है और इसकी जडें १९६० के दशक में सीपीएम ने शुरु की नक्सलवादी अभियान में है। १९६२ के भारत-चीन युद्ध के समय साम्यवादियों में कुछेक भारततरफी थे जबकि ज्योति बसु, हरकिशनसिंह सुरजित आदि गद्दार चीन तरफी थे। इन गद्दारों ने बाद में सीपीआइ में बंटवारा कर सीपीएम की रचना की थी। उस समय बंगाल में कांग्रेस मजबूत थी और सीपीएम को ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वह सत्ता में आयेगी इसलिए उसने अपने दो नेता चारु मजुमदार और कनु सान्याल को आगे कर हिंसक अभियान की शुरुआत करवाई थी। तो आइये जानते है कौन है यह चारु मजुमदार और कनु सान्याल....
* भारत में वामपंथी हिंसा यानि कि नक्सलवाद के प्रणेता माने जाते चारु और सान्याल दोनों मूल सीपीएम के सदस्य थे। इन दोनों ने बंगाल के नक्सलबारी गांव से जमींदारों के सामने सशस्त्र लडाई की शुरुआत करवाकर भारतीय इतिहास में नक्सलवाद नामक एक नये विचारधारा का बीज बोया।
* चारु मजुमदार के पिताजी स्वातंत्र्य सेनानी थे और चारु कॉलेजकाल से ही क्रांति के रंग में रंगे हुए थे। १९४६ में उन्होंने जमींदारों के सामने तेभागा अभियान में हिस्सा लिया था और आजादी के बाद वे साम्यवादी पार्टी में जुडे थे। १९६२ में उन्हें जेल हुई थी और साम्यवादियों में बंटवारा होने के बाद वे चीन के पीठ्ठु नेताओं के सीपीएम के साथ गए थे।
* सान्याल और मजुमदार हिंसक क्रांति के जरिये इस देश में साम्यवादी शासन की स्थापना करने के ख्वाब देखते थे। १९६९ में कनु सान्याल और चारु मजुमदार ने नक्सलवादी अभियान शुरु करवाकर और सीपीएम में बंटवारा करवाकर नये गुट की रचना की। १९६९ में दोनों ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्कसीस्टलेनिन) की रचना की और मजुमदार उसके जनरल सेक्रेटरी बने। हालांकि दोनों के सिर पर तवाई के कारण दोनों भागते फिरते थे।
* सान्याल १९७० में पकडे गये उसके बाद उन्हें आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम जेल में धकेल दिया गया और एक केस में उन्हें सात साल की सजा हुई थी।
* १९७२ में चारु मजुमदार पकडे गये और उन्हें जेल भेजा गया। गिरफ्तारी के १२ दिन बाद ही मजुमदार की अलीपोर जेल में रहस्यमय मौत हुई और उसके साथ ही नक्सलवाद के तांडव की शुरुआत हुई।
* मजुमदार के मौत के बाद सान्याल डर गये और उन्होंने खुद हिंसा का रास्ता छोड देने की घोषणा की। हालांकि उसके बाद भी सान्याल की रिहाई संभव नहीं हो पाई लेकिन १९७७ में जनता पार्टी की सरकार आई और बंगाल में ज्योति बसु मुख्यमंत्री बने उसके बाद बसु ने खुद दिलचस्पी ले सान्याल को जेल में से मुक्त करवाया था।
* जेल में से रिहा होने के बाद सान्याल ने राजनीतिक अभियान शुरु किए और साथ में हिंसा का रास्ता छोड दिया। अभी सान्याल सीपीआइ (एम-एल) के महासचिव है और ममता बेनर्जी के करीबी है। सिंगुर में ममता ने किए आंदोलन में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर इस आंदोलन को सफल बनाने में मदद की थी।
सीपीएम उस वक्त चीन की तरह भारत में भी हिंसक क्रांति कर साम्यवादी शासन की स्थापना का ख्वाब देखती थी। सान्याल और मजुमदार को सीपीएम का समर्थन था इसलिए वे जम गए और बंगाली युवकों के हाथों में बंदूक और बम थमाकर उन्हें हिंसा के रास्ते भेज दिया। १९६४ में सीपीएम की रचना हुई और १९६५ से यह खेल शुरु हुआ लेकिन १९६७ में लोकसभा चुनाव में सीपीएम को अच्छी बैठके हासिल हुई उसके साथ ही उसके तेवर बदल गए और उसे लगने लगा कि चुनाव जीत कर ही सत्ता हासिल की जा सकती है तो फिर यह मौत का तांडव करने से क्या फायदा? सीपीएम ने तुरंत ही सान्याल और मजुमदार से दूरी बना ली। गिन्नाये मजुमदार-सान्याल ने सीपीएम से अलग होकर नया चोका मारा यानि कि सीपीआइ-एमएल। दोनों ने नक्सलवाद चलाया। हालांकि बंगाल में सिध्धार्थ शंकर रे मुख्यमंत्री बने उसके बाद उन्होंने नक्सलवाद को गोली का जवाब गोली से दे-देकर लगभग खत्म कर दिया और मजुमदार को भी जेल में खत्म कर दिया लेकिन इन दोनों ने हिंसा का जो बीज बोया उसे खत्म नहीं कर पाये। वामपंथियों ने जिस हिंसा के नाग को पाला है आज वही नाग उसके सामने फन फैलाये खडा है और उसे डस रहा है।
जयहिंद

बुधवार, 17 जून 2009

भाजपा में ज्वालामुखी और ईमानदारी का ढोंग

लोकसभा चुनाव में बुरी तरह परास्त भाजपा के नेताओं में अब अचानक ईमानदारी का ज्वर फैल रहा है। इस ढोंग की शुरुआत लालकृष्ण आडवाणी ने की थी। आडवाणी लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे उस कारण ही भाजपा का राम बोलो भाई राम हो गया उसके बाद आडवाणी ने खुद हार की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार कर लोकसभा में विपक्ष का नेता पद नहीं स्वीकारेंगे ऐसा तिकडम रचाया था। हालांकि, यह तिकडम ज्यादा नहीं चल पाया और भाजपा के नेताओं द्वारा मनाने से आडवाणी मान गए और गुपचुप लोकसभा में विपक्ष पद पर बैठ गये। आडवाणी का यह ढोंग खत्म होने के बाद यशवन्त सिन्हा की बारी आई। यशवन्त सिन्हा भाजपा उपाध्यक्ष थे और उन्होंने भी आडवाणी की तरह भाजपा के हार के लिए नैतिक जिम्मेदारी के नाम से इस्तीफा धर दिया। हालांकि, आडवाणी की तरह यशवन्त सिन्हा को मनाने के लिए कोई आगे नहीं आया और उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया। जख्मी सिन्हा ने उसके बाद नया तिकडम खेला और उनकी तरह भाजपा के दूसरे नेतागण भी भाजपा के हार के लिए उतने ही जिम्मेदार है और उन्हें भी नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने के लिए आगे आना चाहिए ऐसा रिकार्ड बजाने की शुरुआत की है। सिन्हा के इस तिकडम का भाजपा के दूसरे नेतागण पर कोई असर तो नहीं हुआ लेकिन भाजपा में जिनके सामने सबसे ज्यादा टकराव है ऐसे यशवन्त सिन्हा ने भी अरुण जेटली को निशाना बना अपना रेकर्ड बजाया और अरुण जेटली का इस्तीफा आ गया है। ऐसा नहीं कि जेटली को यशवन्त सिन्हा की कही बात का बुरा लगा हो और उन्होंने इस्तीफा धर दिया हो क्योंकि जेटली ने एकाद हफ्ते पहले ही पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को इस्तीफा दे दिया था और लंदन यात्रा के लिए रवाना हुए थे। राजनाथ ने अभी तक यह इस्तीफा दबा रखा लेकिन जेटली के सामने टकराव बढा उसके बाद उसे ठंडा करने के लिए उन्होंने इस्तीफे का स्वीकार किया है ऐसी घोषणा कर दी। अरुण जेटली ने भी आडवाणी और यशवन्त सिन्हा की तरह इस्तीफा देने का ढोंग ही रचाया है लेकिन उनका तरीका अलग है। आडवाणी ने और सिन्हा ने चुनाव परिणामो में भाजपा की हार हुई उस मामले इस्तीफा दिया लेकिन जेटली उस बहाने से ढोंग नहीं कर सकते है क्योंकि अगर ऐसा करने जाते तो यशवन्त सिन्हा से लेकर जसवन्त सिंह तक के सभी विरोधी मैदान में आ जाते और वे लोग सही थे ऐसा डींग हाकते इसलिए जेटली ने नया खेल खेला है। उन्होंने ऐसी घोषणा की है कि, वे एक व्यक्ति एक पद के सिध्धांत में मानते है इसलिए इस्तीफा दिया है। जेटली भाजपा के महासचिव के अलावा राज्यसभा में भाजपा के नेता पद पर है और भाजपा में अभी जो धमासान चल रहा है उसके मूल में हकीकत में तो जेटली को दिया गया राज्यसभा का नेता पद है लेकिन जेटली ने वह पद नहीं छोडा।
लोकसभा चुनाव में जेटली भाजपा के मुख्य रणनीतिकार रहे और उन्होंने ना जाने कैसी रणनीति बनाई कि भाजपा ही गर्क में चला गया। भाजपा के पराजय में वैसे तो आडवाणी का योगदान सबसे बडा है लेकिन उन्हें ऐसा कहने की हिम्मत किसी में नहीं है। इसलिए जो कमजोर उसी पर अपना निशाना बना सभी ने जेटली को लपेटे में ले लिया। यह धमासान जारी था वही जशवंत सिंह लोकसभा में चुने गये है इसलिए राज्यसभा में विपक्ष के नेता का पद खाली पडा है और उस पद के लिए दूसरा कोई नहीं था इसलिए जेटली के सिर पर कलश गिरा और उसी में से नया झमेला शुरु हो गया। भाजपा की कोर कमिटी की बैठक में जशवंत सिंह इस मामले तलवार लेकर कूद पडे और उन्होंने जेटली को लपेटे में ले लिया। भाजपा को हराने वाले लोगों को पद देकर नवाजा जाता है ऐसा कह उन्होंने आलोचना की और जेटली से जो जलते है उन सभी ने उनकी हां में हां मिलाई।
यूं तो जशवंत सिंह और यशवन्त सिन्हा यह दोनो जेटली को राज्यसभा के नेता पद पर बैठाने के सामने विरोध जताये यह बात कुछ हजम नहीं होती है। जशवंत सिंह भूतकाल में इसी तरह पद भोग चुके है। १९९९ में लोकसभा चुनाव में जशवंत सिंह खुद हार गये थे और उसके बावजूद पिछले दरवाजे से राज्यसभा में घुस कर वाजपेयी सरकार में कैबिनेट मंत्री बने थे। लोकसभा में हारने के बावजूद वे राज्यसभा में विपक्ष के नेता भी बने थे और उस समय उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। यशवन्त सिन्हा खुद २००४ में लोकसभा के चुनाव में हार गये थे और उसके बाद भी भाजपा के उपप्रमुख पद से चिटके रहे थे। उस समय उन्हें नैतिकता क्यों याद नहीं आई? जेटली ने अभी जो किया है वह जशवंत सिंह और यशवंत सिंहा पहले ही करके बैठे है। उन्हें ऐसा कि लोगों को यह सब कहां याद रहता है। इसलिए उन्होंने जेटली को लपेटे में लिया और इसमें दूसरे भी जुड गये। हालांकि, जेटली जशवंत सिंह और यशवंत सिन्हा से हार माने ऐसे नहीं है। इन दोनों के इस नैतिकता के तिकडम के सामने उन्होंने एक व्यक्ति और एक पद का नाटक कर दिया। इसके जरिए जेटली ने एक तीर से दो शिकार किए है। एक तो राज्यसभा के विपक्ष के नेता का मलाईदार पद अपने पास रखा है और दूसरा भाजपा के जलते घर को राम राम कर जिम्मेदारी से मुक्त हो गये है। राज्यसभा में विपक्ष के नेता का पद कैबिनेट मंत्री जैसा माना जाता है जबकि भाजपा के महासचिव पद में अभी कुछ कमाने जैसा नहीं है। उल्टा यश के बजाय जूते पड रहे है। ऐसी स्थिति में जेटली ने अपनी अक्लमंदी दिखाई है।
हालांकि, जेटली हो या जशवंत सिंह, आडवाणी या यशवंत सिन्हा सभी नाटक ही कर रहे है और सत्ता छोडने को तैयार नहीं है। भाजपा के नेताओं को इस मामले कांग्रेस के दिग्विजय सिंह से सीखना चाहिए। २००३ में म.प्र. विधानसभा चुनाव के समय दिग्विजय मुख्यमंत्री थे और उस समय उन्होंने ऐसी घोषणा की थी कि, अगर वे इस चुनाव में कांग्रेस को जीत नहीं दिलवा सके तो १० साल तक कोई सरकारी पद नहीं स्वीकारेंगे और दिग्विजय ने अपना कहा कर दिखाया अपना दिया वचन निभाया। इस बार लोकसभा में कांग्रेस ने उ.प्र. में जो जोरदार प्रदर्शन किया उसमें दिग्विजय का योगदान सबसे बडा है और उसके कारण उनके लिए केन्द्र में मंत्री पद हासिल करने का अच्छा मौका था। उन्हें मंत्री पद का ऑफर भी हुआ और इसके बाद भी दिग्विजय ने उसे नहीं स्वीकारा और अपने वादे से चिपके रहे। खुद पार्टी को मजबूत बनाने के लिए काम करेंगे ऐसी घोषणा की। भाजपा के नेताओं को दिग्विजय से प्रेरणा लेनी चाहिए।
जय हिंद

मंगलवार, 9 जून 2009

पाटिल और विजयन के बीचबचाव में राजनीतिक पार्टियां

हमारे देश में कुछेक राजनेता खुद को कानून से ऊपर मानते है और वे ऐसा समझते है कि वे कुछ भी करे लेकिन उनके सामने कोई ऊंगली भी नहीं उठा सकता। यह लोग इस देश के कायदे-कानून को सन्मान देना सीख ही नहीं पाये। देश की नैतिकता और मूल्यों की रक्षा की जिम्मेदारी सामान्य जनता से ज्यादा उनकी होती है लेकिन राजनीतिज्ञ इससे उल्टा ही व्यवहार करते है। ऐसी ही गिरी हुई मानसिकता का ताजा सुबूत है एनसीपी और सीपीएम जैसे दो अग्र राजनीतिक पार्टियां। इन पार्टियों ने उनके दो नेताओं की गंभीर प्रकार के आरोपों में शामिलगिरी के सामने हुए केसों के बारे में दी प्रतिक्रियाएं है।
शरद पवार की एनसीपी के सांसद पद्मसिंह पाटिल एक कांग्रेसी नेता की हत्या के केस में फंसे हुए है और सीपीएम के नेता पिनारायी विजयन अपने पद का दुरुपयोग कर भ्रष्टाचार करने के केस में शामिल है। ऐसी स्थिति में एनसीपी और सीपीएम दोनों दलों को इन नेताओं को पार्टी से बेदखल करना चाहिए इसके बदले दोनों पार्टी के नेता उन्हें बचाने में लगे हुए है। अब हद तो इस बात की हो गई कि दोनों ऐसा ही मानते है कि उनके नेतागण दूध के धुले हुए है। खुद के नेताओं ने गलत किया है ऐसा स्वीकारने की उनकी अपेक्षा पहले से ही नहीं है लेकिन कम से कम इस देश का न्यायतंत्र उनका न्याय करे तब तक तो सब्र करना चाहिए ना। लेकिन वे इसके लिए भी तैयार नहीं है और दोनों के इमेज एकदम साफ है ऐसा सर्टिफिकेट अभी से देने लगे है।
२००६ में नई मुंबई के कालाम्बोली में पवनराज ने निम्बालकर नामक कांग्रेसी नेता की हत्या की थी। इस हत्या के मामले बहुत हो-हा मची थी उसके बाद इस हत्या की जांच सीबीआई को सौंपी गई थी। सीबीआई ने इस केस की जांच की और जिसने हत्या की उसे ढूंढ निकाला। इस हत्यारे ने कुबूला है कि शरद पवार की एनसीपी के सांसद पद्मसिंह पाटिल ने उसे कांग्रेसी नेता निम्बालकर की कथित तौर पर हत्या की सुपारी ३० लाख में दी थी। इस कुबूलनामे के आधार पर सीबीआई ने पाटिल को गिरफ्तार किया है। इस पूरे मामले में सबसे शर्मनाक बात यह है कि, पद्मसिंह पाटिल और निम्बालकर दोनों चचेरे भाई थे। पद्मसिंह के साथ निम्बालकर को किस मामले अनबन हुई पता नहीं लेकिन पाटिल ने निम्बालकर का काम तमाम करवा दिया ऐसा सीबीआई का कहना है लेकिन शरद पवार या एनसीपी को इससे कोई फर्क नहीं पडता। एनसीपी ने इस पूरे मामले ऐसा कह अपना हाथ उठा लिया है कि यह मामला पद्मसिंह पाटिल का निजी मामला है और इस मामले अदालत पद्मसिंह को सजा सुनायेगी तो पार्टी उन्हें निकाल देगी लेकिन तब तक उन्हें निकालने का कोई सवाल ही नहीं है। एनसीपी का जो दूसरा बयान है वह एकदम बकवास ही है। एनसीपी के कहने के मुताबिक पद्मसिंह पाटिल के मामले पार्टी ने वकीलों के साथ चर्चा की है और वकीलों का ऐसा कहना है कि पाटिल के बचने के पूरे चान्स है क्योंकि यह पूरा केस निम्बालकर की हत्या करनेवाले सुपारीबाज के बयान पर टिका हुआ है। मतलब साफ है कि यह दूसरा आरोपी मुकर जाये और अपना बयान बदल दे तो पाटिल बरी हो जाए। फिलहाल एनसीपी यही उम्मीद पाले बैठी है और ऐसा होने की संभावना ज्यादा है। महाराष्ट्र में एनसीपी और कांग्रेस की सरकार है। एनसीपी के जयंत पाटिल गृहमंत्री और उपमुख्यमंत्री है और खुद पद्मसिंह पाटिल का बेटा राणा जगजित सिंह पाटिल महाराष्ट्र में मंत्री है। यही नहीं केस सीबीआई के हाथ में है। ऐसी स्थिति में एक आरोपी मुकर जाये ऐसा प्लान बनाना बहुत आसान है। पद्मसिंह पाटिल दोषी है या नहीं यह तय करने का काम अदालत का है लेकिन जिसके सिर पर हत्या का आरोप है उसे अपनी पार्टी में रखना है या नहीं यह तय करना एनसीपी का काम है और शर्मनाक बात तो यह है कि, एनसीपी नैतिकता को बरकरार रखने में असफल रही है। कोई भी व्यक्ति खून करे या करवाए तब अधिकतर वह निजी वजह या निजी फायदे के लिए ही होता है। वह थोडे ही दूसरों के लिए खून करवायेगा। एक हत्या की घटना को निजी मामले में खपाकर एनसीपी के नेताओं ने बेशर्मी की तमाम हदें पार कर ली है।
एनसीपी जैसी बेशर्मी सीपीएम के नेतागण दिखा रहे है। सीपीएम के नेता पिनारायी विजयन १९९७ में केरल सरकार में बिजली मंत्री थे और उस समय उन्होंने ३०० करोड का लवलिन कौभांड किया था। इस कौभांड में उन्होंने केरल के दो पावर प्लान्ट के रीनोवेशन का कॉन्ट्राक्ट केनेडा की कंपनी एसएनसी लवलिन को दिया था। वास्तव में ऐसे कोई रीनोवेशन की जरुरत ही नहीं थी। इस मामले उस बार भी जोरदार हो-हल्ला मचा था और विजयन के सामने उनके ही पार्टी के नेताओं ने गंभीर आक्षेप किए थे। अभी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है इसलिए यह मामला फिर से बाहर आया है और सीबीआई ने विजयन को शिकंजे में ले लिया है। विजयन ने सार्वजनिक सेवक के रुप में यह कौभांड किया था इसलिए उनके सामने केस दर्ज करना हो तो केरल के राज्यपाल की इजाजत लेनी पडती है। केरल के राज्यपाल पद पर अभी महाराष्ट्र के नेता रामकृष्णन गवई है और वे कांग्रेस के वफादार है। सीबीआई ने विजयन के सामने जांच की मंजूरी मांगी कि तुरंत ही उन्होंने दे दी। सीबीआई ने भी मंजूरी मिलते ही केस दाखिल करने की कार्यवाही निपटा ली। हालांकि, सीबीआई की इस कार्यशीलता से सीपीएम को मिर्ची लगी है और उसने यह पूरा केस राजनीतिक है ऐसी घोषणा कर दी है। सीपीएम के कहने के मुताबिक राज्यपाल ने केन्द्र की कांग्रेस सरकार के इशारे विजयन को फंसाने के लिए यह जाल बिछाया है। सीपीएम के नेताओं ने विजयन के मामले आखिर तक लड लेने की तैयारी शुरु की है।
सीपीएम अभी जो नाटक कर रही है उसे देख आपको क्या लगता है? विजयन ने सरकारी तिजोरी को ३०० करोड का चूना लगाया है यह मामला सीपीएम के नेताओं ने ही उठाया था और उसी कारण से तो विजयन को केरल सरकार में नहीं लिया गया और अब जब सीबीआई यह बात कह रही है तब सीपीएम को पूरा मामला राजनीतिक लग रहा है। अब देखना यह है कि न्यायतंत्र क्या फैसला लेती है।
जय हिंद

भारतीय राजनीति में महिलाएं

हमारे देश में महिलाओं की आबादी लगभग पुरुष के बराबर ही है। हमारी पुरुषप्रधान समाज व्यवस्था और लडकों को लडकियों से ज्यादा तवज्जो देने की मानसिकता की वजह से पुरुषों की आबादी थोडी ज्यादा है लेकिन इतनी भी ज्यादा नहीं कि वे महिलाओं पर अपना प्रभुत्व जमा सके और फिर भी देश की आजादी के ६० साल में पहलीबार एक महिला लोकसभा अध्यक्ष पद पर बैठी। देश की आजादी से लेकर अभी तक १५ लोकसभाओं की रचना हुई और २० सरकारें आई और गई और उसके बाद भी किसी पार्टी को किसी महिला को स्पीकर पद पर बिठाने के बारे में सुझा ही नहीं। आखिर क्यों? क्या हमारे देश में स्पीकर पद पर बैठ सके ऐसी महिलाओं की कमी है? क्या महिलाएं इस पद के योग्य नहीं? वास्तव में इस देश के राजनीतिज्ञ यानि कि पुरुष राजनीतिज्ञों की महिलाओं को सत्ता में हिस्सेदारी देने की नियत ही नहीं है। हालांकि इसमें पुरुष और महिलाएं जैसा कोई भेद नहीं लेकिन इस देश के राजनीतिज्ञ तो खुद के सिवा दूसरे किसी को सत्ता मिले ऐसा चाहते ही नहीं है। लेकिन कुछेक शेर के आगे सवाशेर भी निकलते है और अपने दम पर जगह बना ही लेते है। लेकिन महिलाएं इस मामले कम बलशाली है। इंदिरा गांधी जैसी महिलाएं इस देश में बहुत कम पैदा हुई है। हमारे देश के पुरुष राजनीतिज्ञों ने महिलाओं की इस कमजोरी का भरपूर लाभ उठाया है और महिलाओं को एक ओर रख एक तरफा सत्ता हासिल की है। मैं सिर्फ लोकसभा के स्पीकर पद की बात नहीं कर रही हूं वरन इस देश में संविधान के मुताबिक महत्वपूर्ण पदों पर बैठी महिलाओं की लिस्ट पर नजर डालें तो पता चलता है कि इस देश में महिलाओं का राजनीति में क्या स्थान है।
जवाहर लाल इस देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे और मनमोहन सिंह बीसवें प्रधानमंत्री। इन दोनों के समय काल में इस देश में सिर्फ एक ही महिला प्रधानमंत्री आई। इंदिरा गांधी इस देश की प्रधानमंत्री बनी इसके लिए सबसे बडा कारण वह नेहरु की बेटी थी और इंदिरा गांधी इस देश के प्रधानमंत्री पद पर टिक गई इसका कारण था कि उनमें किसी से भी टक्कर लेने की जबरदस्त क्षमता थी। इंदिरा गांधी के लिए भी प्रधानमंत्री पद का सफर आसान नहीं था। लालबहादुर शास्त्री के अवसान के बाद मोरारजी देसाई किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री बनना चाहते थे और कांग्रेस के गद्दारों का उन्हें समर्थन था। इसके बावजूद इंदिरा गांधी गद्दी पर बैठी क्योंकि कांग्रेस में कामराज सहित के नेताओं का मानना था कि मोरारजी देसाई से ज्यादा इंदिरा गांधी इस गद्दी पर बैठे यह बेहतर रहेगा, क्योंकि इंदिरा उनके कहने में रहेंगी और वे जैसा कहेंगे वैसा कहेगी जबकि मोरारजी अपनी मनमानी ही करेंगे। कांग्रेस के नेताओं ने बेकसीट ड्राइविंग के मोह में जिसे गुंगी गुडिया मानते थे उस इंदिरा गांधी को समर्थन दिया और उन्हें प्रधानमंत्री पद पर बैठा दिया। यह बात अलग है कि इंदिरा ने कांग्रेस के उन्हीं नेताओं की हालत बिगाड दी थी और खुद गुंगी गुडिया नहीं है यह साबित कर दिखाया था। कांग्रेस के दिग्गज राजनीतिज्ञ इंदिरा गांधी को समझने में चुक गये और उस वजह से देश को एकमात्र महिला प्रधानमंत्री मिली। इंदिरा गांधी शायद अपने बलबूते प्रधानमंत्री बन सकती थी लेकिन उन्हें जो पहला मौका मिला वह किस्मत के जोर पर ही मिला था।
प्रधानमंत्री पद इस देश का सबसे शक्तिशाली पद है तो राष्ट्रपति पद संविधान के रुप से सर्वोच्च पद है और इस पद पर बैठनेवाली एकमात्र वर्तमान महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल है। उप प्रधानमंत्री पद पर इस देश में कोई महिला नहीं आई और देश के ६० साल के इतिहास में केन्द्र में प्रधान पद हासिल करनेवाली महिलाओं की संख्या इसबार १०० के पार पहुंची है। इसबार केन्द्र के मंत्रीमंडल में ९ महिलाएं है और मीराकुमार ने इस्तीफा दिया उसके बाद तो ८ ही रह गई है। इन आंकडों के सामने पुरुष मंत्रियों की संख्या ७० है। यानि कि महिलाओं से १० गुना ज्यादा। देश की आजादी से लेकर अब तक जितने भी मंत्रीमंडल की रचना हुई उसमें वित्त, गृह, संरक्षण इन तीन महत्वपूर्ण पदों पर अभी तक कोई महिला नहीं बैठी।
केन्द्र की बात छोडो लेकिन राज्यों की भी यही हालत है। देश के २८ राज्यों में मुख्यमंत्री पद पर बैठनेवाली महिलाओं की संख्या गिनकर १३ है। सुचेता कृपलानी (उ.प्र) इस देश की प्रथम मुख्यमंत्री थी और अभी शीला दीक्षित (दिल्ली) तथा मायावती (उ.प्र) यह दो महिलाएं मुख्यमंत्री है। इन तीन महिलाओं के बीच नंदिनी सत्पथी (उडीसा), शशीकला काडोकर (गोआ), सैयदा अनवर तैमुर (आसाम), जानकी रामचंद्रन (तमिलनाडु), जयललिथा (तमिलनाडु), राजिन्दर कौर भट्टल (पंजाब), राबडी देवी (बिहार), सुषमा स्वराज (दिल्ली), उमा भारती (म.प्र) और वसुंधरा राजे सिंधिया (राजस्थान) यह दस महिलाएं मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच पाई है। इन १३ महिलाओं में से भी जानकी, जयललिथा, राबडी देवी, मायावती, वसुंधरा आदि तो ऐसी महिलाएं है जो वंशपरंपरागत राजनीति की देन है या किसी नेता के साथ अति निकटता के कारण मुख्यमंत्री पद उन्हें मिला है।
वर्तमान लोकसभा में महिलाओं की संख्या ५९ है और देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि लोकसभा में महिलाओं की संख्या १० प्रतिशत ज्यादा हो और पहली बार महिलाओं की संख्या ५० का आंकडा पार किया है। हालांकि इन ५९ महिलाओं में से भी ३५ महिलाएं तो ऐसी है कि जो इसलिए राजनीति में है क्योंकि उनका खानदान राजनीति में है और वे उनके वारिस बनी है। राजनीति के साथ कोई संबंध ना हो और बावजूद इसके चुनी गई हो ऐसी महिलाएं है अन्नु टंडन और सुषमा स्वराज।
अब सवाल है कि हमारे देश में महिलाओं की संख्या ५० प्रतिशत की है और फिर भी महिलाएं राजनीति में अपनी जगह क्यों नहीं बना पाती? हम ऐसी बातें करते है या सुनते है कि महिलाएं पुरुष जितनी सक्षम हुई है लेकिन राजनीति में आपको कही दिख रहा हो तो मुझे बताइयेगा। सोनिया गांधी की मेहरबानी से इस देश को प्रथम महिला राष्ट्रपति मिली और प्रथम महिला स्पीकर मिली। बाकी अब तक किसी राजनीतिक दल ने इस बारे में सोचा तक नहीं। यह स्थिति क्यों है? क्योंकि महिलाएं पुरुष की परछाई से बाहर आने को तैयार नहीं है। खास तो इसलिए कि ऐसी छाप है कि इस देश की राजनीति गंदकी से लबालब है जिसके चलते महिलाएं इसमें आने को तैयार नहीं होती। राजनीति में जो महिलाएं आती है उनमें से अधिकांश महिलाएं ऐसी होती है जो किसी न किसी राजनीतिज्ञ का हाथ थामकर अपनी जगह बनाने का प्रयास करती है और इसके बदले में जो कीमत चुकानी पडे उसे चुकाने की तैयारी रखती है।
हमारे देश में महिलाओं को सत्ता में ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी मिले इसके लिए संसद और विधानसभा में ३३ प्रतिशत आरक्षण की ऐसी सब बाते होती है लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पडने वाला। फर्क लाना है तो सबसे पहले राजनीति के इस माहौल को बदलना पडेगा।
जय हिंद

मंगलवार, 2 जून 2009

नई लोकसभा में महिला स्पीकर !


नई लोकसभा का पहला सत्र आरंभ हो चुका है और यह लोकसभा मीराकुमार को अध्यक्ष पद पर बिठाकर एक नया इतिहास जरूर बनायेगी। जबसे लोकसभा चुनाव नतीजे आये है तब से लोकसभा के अध्यक्ष पद पर कौन बैठेगा इसकी अटकलें चल रही थी। जिस तरह मनमोहन सिंह ने कांग्रेस के अधिकांश दिग्गजों को अपने मंत्रीमंडल में शामिल किया उसके कारण अध्यक्ष पद पर कौन बैठेगा इस मामले जोरदार सस्पेन्स बना हुआ था। कांग्रेस ने एकाद हफ्ते पहले इस सस्पेन्स का अंत करते हुए किशोर मोहन देव स्पीकर पद पर बैठेंगे ऐसा संकेत दे दिया था। हालांकि, इसके बाद अचानक क्या हुआ कि सोनिया गांधी ने देव के नाम पर चोकडी लगा ऐसी घोषणा की कि पंद्रहवी लोकसभा के स्पीकर पद पर किसी महिला को बिठाया जायेगा। किसी ने ऐसी कल्पना भी नहीं की होगी। फिर से अटकलों का बाजार तेज हुआ और अनेक नाम आये। इन नामों में राजस्थान के गिरजा व्यास का नाम आगे था और साथ में मीराकुमार का नाम भी आ रहा था। हालांकि गिरजा का नाम आगे था उसके दो कारण थे। पहला कारण यह कि गिरजा व्यास ने मनमोहन सिंह की पहली टर्म में राष्ट्रीय महिला आयोग की चेरपर्सन के रूप में अच्छी कामगीरी की थी और दूसरा कारण यह कि मीराकुमार कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ ले चुकी थी। हालांकि, सोनिया गांधी ने फिर से सभी की धारणा को गलत साबित कर मीराकुमार के नाम पर पसंदगी की मोहर मार सबको अचंभे में डाल दिया।
तो आईये जानते है मीराकुमार के बारे में... 31 मार्च 1945 के दिन बिहार के पटना में पैदा हुई मीराकुमार दिग्गज दलित नेता जगजीवनराम की बेटी है। पिता जगजीवनराम और माता इन्द्राणीदेवी दोनों स्वातंत्र्यसेनानी थे। मीराकुमार की शादी मंजुलकुमार के साथ हुई है और उनकी तीन संतानें है। मंजुलकुमार सुप्रीमकोर्ट के वकील है। अंग्रेजी में मास्टर्स डिग्रीधारी मीराकुमार ने सिविल सर्विस परीक्षा उत्तीर्ण की है और 1973 में वे भारत में संचालन में सबसे उच्च मानी जाती इन्डियन फोरेन सर्विस (आइएफएस) में जुडी थी। मीराकुमार ने आइएफएस ऑफिसर के तौर पर स्पेन, ब्रिटन और मोरेशियस में काम किया था। मीराकुमार राजीव गांधी के आग्रह से 1985 में सरकारी नौकरी छोड राजनीति में जुडी थी और 1985 में ही उ.प्र की बिजनौर बैठक पर से चुनाव लडी थी। उनके सामने मायावती और रामविलास पासवान जैसे दो धुरंधर नेता मैदान में थे और मीराकुमार दोनों को पछाडकर चुनाव जीत गई थी। मीराकुमार उसके बाद दो बार दिल्ली के कारोलबाग बैठक पर से चुनी गई थी लेकिन 1999 में हार गई थी। उसके बाद उन्होंने अपनी बैठक बदलकर 2004 में पिता जगजीवनराम की परंपरागत बैठक ससाराम पर से चुनाव लडी और जीत गई। इसबार बिहार में से कांग्रेस ने मात्र दो बैठके जीती है और उसमें से एक मीराकुमार की है। 2004 में मीराकुमार का समावेश मनमोहनसिंह सरकार में किया गया था। मीराकुमार ने निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण रखने का अभियान चलाया था। मीराकुमार कॉलेज के जमाने में राइफल शूटिंग में चैम्पियन थी और उन्होंने नेशनल लेवल पर ढेर सारे मेडल भी जीते है। उसी तरह मीराकुमार कवियत्री के तौर पर भी जानी मानी है।
अभी जिस तरह की बाते हो रही है उसे देख मीराकुमार तीन जून को लोकसभा के अध्यक्ष पद का शपथ लेगी और उसके साथ ही एक नया इतिहास बनेगा। मीराकुमार इस देश की प्रथम महिला अध्यक्ष के साथ प्रथम दलित अध्यक्ष भी होंगी। जिस देश में 50 प्रतिशत जनसंख्या महिलाओं की हो और बावजूद इसके अभी तक देश के राष्ट्रपति पद पर एक ही महिला बैठी हो और जिस देश में प्रधानमंत्री पद पर सिर्फ एक महिला आई हो उस देश में लोकसभा के स्पीकर पद पर एक महिला बैठे यह घटना सचमुच बहुत एहमियत रखती है।
इस देश में महिलाओं की समानता की बाते सभी करते है लेकिन यह सब सिर्फ कोरी बाते होती है। कोई राजनीतिक दल इसका पालन नहीं करता है। इस देश में कितनी महिलाओं को उच्च पद मिला है इसकी लिस्ट पर नजर डालें तो पता चलेगा कि एक महिला का स्पीकर पद पर बैठना कितनी बडी खबर है।
राष्ट्रपति पद और प्रधानमंत्री पद की बात छोडे तो भी केन्द्र में मंत्री पद पर बैठनेवाली महिलाओं की संख्या इन 60 सालों में सिर्फ 100 का आंकडा पार कर सकी है और इन 60 सालों में देश के राज्यों में मुख्यमंत्री पद पर बैठनेवाली महिलाओं की संख्या गिनकर 12 है। इन किस्मतवाली महिलाओं में भी अधिकांश तो ऐसी है जिन्हें उनके खानदान के कारण यह पद मिला हो। बाकी अपने दम पर जगह बनानेवाली महिलाओं की संख्या बहुत कम है। ऐसी स्थिति में मीराकुमार स्पीकर पद पर बैठे यह घटना इस देश के लिए इतिहास सर्जक ही है। मीराकुमार दलित है। इस देश में महिलाओं की जो हालत है वही हालत दलितों की है। आज जब दलित वोटबैंक मजबूत बन गई है इसलिए सभी दलों को उन्हें मंत्रीमंडल में शामिल करना पडता ही है लेकिन उन्हें भी बडे पद देने के बारे में कोई नहीं सोचता। कांग्रेस ने यह पहल कर बहुत अच्छा काम किया है।
मीराकुमार उनके पिता और भाई से विरोधी साफ इमेज रखती है। वह खुद आइएफएस ऑफिसर थी और इस तरह उनकी काबिलियत के बारे में कोई सवाल ही खडा नहीं होता।
जय हिंद

शुक्रवार, 29 मई 2009

टीम मनमोहन और नाइंसाफी का शोर !

आखिरकार टीम मनमोहन का विस्तार हो गया। मनमोहन सिंह ने अपने कैबिनेट में हर तरह से योग्य बेलेन्स बनाने का प्रयास किया है और उनके इस प्रयास की जितनी सराहना की जाये कम है। मनमोहन सिंह ने 22 मई को शपथ लिया तब उनके साथ जिन 19 मंत्रियों ने शपथ लिया उन्हें देख ऐसा लगता था कि मनमोहन सिंह वही पुराने चेहरे लेकर आये है। वही प्रणब मुखर्जी और वही शरद पवार, वही चिदम्बरम और वही सुशील कुमार शिंदे। लगता था कि कांग्रेसी नेता सिर्फ युवाओं को अवसर देने की बाते ही करते है उसका पालन नहीं करते।
मनमोहन सिंह ने कैबिनेट विस्तार किया उसके बाद इस सोच को बदलना पडेगा। मनमोहन सिंह के कैबिनेट विस्तार में पुराने चेहरे तो है ही लेकिन युवाओं को भी अच्छे प्रमाण में प्रतिनिधित्व दिया गया है। वीरभद्र सिंह और फारुक अबदुल्ला जैसे पुराने चेहरे है वही अगाथा संगमा और सचिन पायलोट जैसे एकदम तरोताजा चेहरे भी है। इस कैबिनेट में मल्लिकार्जुन खरगे और पवन कुमार बंसल जैसे पुराने राजनीतिक खिलाडी है तो शशी थरूर जैसे आंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त डिप्लोमेट और सौगात रे जैसे आइआइएम के प्रोफेसर भी है। इस कैबिनेट में विलासराव देशमुख और जयराम रमेश जैसे संचालन के अनुभवी राजनेता है तो सामने मोहन जतुआ और नमोनारायण मीना जैसे आइएएस-आइपीएस में से राजनेता बने संचालन के अनुभवी भी है। अझागिरि या ए.राजा जैसे लोगों को मनमोहन सिंह ने राजनीतिक मजबूरी के चलते मंत्रीमंडल में शामिल किया है उसे छोड मनमोहन सिंह की कैबिनेट काबिलेतारीफ है।
मनमोहन सिंह ने राज्यों को प्रतिनिधित्व के मामले भी जोरदार बेलेन्स बनाया है। छत्तीसगढ जैसे अपवादरुप राज्यों को छोड कांग्रेस को जहां से भी सफलता मिली या नहीं मिली उन सभी राज्यों को योग्य प्रतिनिधित्व देने का पूरा प्रयास किया गया है। हालांकि इन सभी प्रयासों के बावजूद माथापच्ची तो जारी ही है और उसमें सबसे बडी माथापच्ची यूपी की ओर से उठा नाइंसाफी का शोर है।
मनमोहन सिंह के मंत्रीमंडल में यूपी के पांच मंत्री शामिल है, बावजूद इसके ऐसी शिकायत आ रही है कि यूपी को योग्य संख्या में प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। यूपी में से जिन पांच सांसदों को कैबिनेट में स्थान मिला है उनमें श्रीप्रकाश जायस्वाल और सलमान खुरशीद स्वतंत्र प्रभार के साथ राज्य मंत्री है जबकि जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंघ और प्रदीप जैन राज्य मंत्री है। यूपी में कांग्रेस ने इसबार सचमुच चमत्कार ही किया है और 2004 के लोकसभा चुनाव में जीती हुई 9 बैठक पर से 21 पर पहुंच गई है। ऐसा माना जाता था कि इन हालातों के मद्देनजर कांग्रेस यूपी को ज्यादा महत्व देगी, लेकिन राजनीतिक कारणों के चलते यह संभव नहीं हो पाया। मनमोहन सिंह का मंत्रीमंडल अभी 78 सदस्यों का है और उसमें से 19 सदस्य तो समर्थक दलों के है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस के पास मनमोहन सिंह को छोड 59 सदस्य बचे और उसमें से कांग्रेस अगर यूपी के पांच को मंत्री बनाए तो यह प्रमाण बराबर ही कहा जाएगा। अब बताइए भला इसमें यूपी के साथ कहां नाइंसाफी हुई।
हालांकि राजनीतिज्ञ अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकते है और यूपी में जो लोग लटक गये है वे यही काम कर रहे है। उनका दावा है कि यूपी की जनता ने कांग्रेस को दोनों हाथों से वोट दिया है बावजूद इसके कांग्रेस ने यूपी के किसी भी सांसद को कैबिनेट मंत्री नहीं बनाकर नाइंसाफी की है।
इस माथापच्ची के पीछे बेनी प्रसाद वर्मा और पी.एल.पुनिया जैसे नेता है जो ऐसा मानकर चलते थे कि उनका कैबिनेट प्रवेश निश्चित है लेकिन अंतिम घडी में उनकी शामिलगिरी नहीं हुई इसलिए वे बौखला गए है। बेनी प्रसाद वर्मा और पी.एल.पुनिया की मनमोहन सिंह कैबिनेट में शामिलगिरी नहीं हुई इसके पीछे दो कारण है। पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण कांग्रेस के वोटबैंक का समीकरण है। यूपी में कांग्रेस का वोटबैंक मुस्लिम, ब्राह्मण, सवर्ण और अन्य पिछडी जाति के लोगों का है। कांग्रेस का यूपी में दबदबा नहीं था उसके पीछे कारण यह था कि सालों से कांग्रेस के साथ रहे मुस्लिम मुलायम की ओर खींचे चले गए और ब्राह्मण-सवर्णो को पहले भाजपा ने और बाद में मायावती ने अपनी ओर खींच लिया। अभी कांग्रेस यूपी में फिर से उठ खडी हुई है इसका कारण भी यही है कि मुस्लिम और ब्राह्मण-सवर्ण वापिस कांग्रेस की ओर मुडे है। ओबीसी का अमुक वर्ग कांग्रेस के साथ था ही इसलिए यह वोटबैंक वापिस मिला और कांग्रेस का बेडा पार हो गया। कांग्रेस ने इन बाबतो के मद्देनजर मंत्रियों की पसंदगी की है। श्रीप्रकाश जायस्वाल ओबीसी के है जबकि जितिन प्रसाद ब्राह्मण है। सलमान खुरशीद मुस्लिम है जबकि प्रदीप जैन और सिंघ सवर्ण है। कांग्रेस को अभी अपनी इस वोटबैंक मजबूत करने की जरुरत लगी इसलिए उसने इन पांच को पसंद किया।
कांग्रेस ने बेनी प्रसाद वर्मा और पुनिया को पसंद नहीं किया इसके पीछे दूसरा राजनीतिक कारण मुलामय सिंह यादव और मायावती है। बेनी प्रसाद वर्मा मूल समाजवादी पार्टी के आदमी है और मुलामय सिंह को छोडकर आये है और इसी तरह पुनिया मायावती के खास माने जाते थे और बाद में मेडम को छोड कांग्रेस में आ गए है। बेनी प्रसाद की शामिलगिरी के सामने मुलायम सिंह को आपत्ति है जबकि पुनिया के नाम से ही मायावती गिन्नाती है। अभी कांग्रेस की सरकार मुलायम और मायावती दोनों के समर्थन पर टिकी हुई है। कांग्रेस को जिस प्रमाण में बैठके मिली है उसे देखते हुए उसे मुलायम या मायावती दोनों में से किसी की भी जरुरत नहीं है और यह लोग समर्थन दे या ना दे कोई फर्क नहीं पडता लेकिन कांग्रेस सामने चलकर क्यों दुश्मनी मोड ले। अभी वैसे भी कोई चुनाव नहीं है तो फालतू में माथापच्ची करने से क्या फायदा, ऐसा समझ कांग्रेस ने बेनी प्रसाद और पुनिया को एक ओर रख समझदारी बर्ती है। वैसे भी बेनी प्रसाद या पुनिया कोई बडी तोप तो है नहीं कि यह लोग नाराज हो जायेंगे तो कांग्रेस का जहाज डूब जाये फिर चिंता करने की कोई जरुरत ही नहीं है। ऐसे बेबुनियाद मुद्दों से कोई फर्क नहीं पडता। आखिर में, टीम मनमोहन को पूरे देश की ओर से शुभकामनाएं।
जय हिंद

गुरुवार, 28 मई 2009

टीम मनमोहन का कुनबा

आईए, देखते है टीम मनमोहन के नये कुनबे में क्या है। पिछले एक हफ्ते से चल रहे रुठने-मनाने का सिलसिला थम गया है और मनमोहन सिंह कैबिनेट विस्तार की पहेली बूझ गई है और आज 59 मंत्रियों के शपथ ग्रहण के साथ मनमोहन सिंह कैबिनेट रचना की कवायद पूर्ण हो जायेगी। 59 मंत्रियों की शपथ के साथ मनमोहन सिंह कैबिनेट की संख्या बढकर 78 पर पहुंच जायेगी। यह संख्या पिछली बार जितनी ही है। हमारे यहां संविधान में संशोधन हुआ उसके बाद प्रधानमंत्री लोकसभा के सदस्यों की संख्या के 15 प्रतिशत जितने मंत्रियों को अपने मंत्रीमंडल में शामिल कर सकते है उस हिसाब से मनमोहन सिंह अपने मंत्रीमंडल में 81 सदस्यों को शामिल कर सकते है। मनमोहन सिंह ने दो चरण में ही 78 सदस्यों को शामिल कर लिया है। मनमोहन सिंह ने मंत्रीमंडल में ज्यादा बदलाव की गुंजाइश नहीं रखी है। हालांकि मनमोहन सिंह अभी दूसरे तीन सदस्यों को शामिल कर सकते है लेकिन उन्होंने यह जगह इमरजन्सी के लिए रखी है।
मनमोहन सिंह ने दूसरे चरण में जिन्हें चुना है उसमें से अधिकांश नाम पूर्व निर्धारित है और नये मंत्रियों में भी कैबिनेट या राज्य में जिन्हें बिठाया गया है उसमें भी नयापन कम है। हालांकि कुछ नया नहीं ऐसा भी नहीं है। कैबिनेट मंत्रियों में करुणानिधि के दो रिश्तेदार और तीसरे ए.राजा का नाम पूर्व निर्धारित है। इन तीनों में से दयानिधि मारन को छोड बाकी के दो की योग्यता कैबिनेट मंत्री बनने की नहीं है लेकिन मनमोहन सिंह को उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाये बिना चलता भी नहीं इसलिए उनको निभा लिया गया। ए.राजा और अझागिरि के किस्से में तो मनमोहन सिंह की राजनीतिक मजबूरी थी लेकिन कुमारी सेलजा किस आधार पर कैबिनेट रेन्क में आ गई यह पता नहीं चलता। सेलजा 1990 में लोकसभा में पहली बार चुने जाने के बाद नरसिंहराव सरकार में मंत्री बनी थी। 1996 में वे फिर से चुनी गई लेकिन 1998 और 1999 में हार गई। सेलजा के पिता चौधरी दलबीरसिंह हरियाणा के दलित नेता थे और उसी कारण सेलजा भी राजनीति में आ गई। सेलजा दो बार केन्द्रीय मंत्रीमंडल में आई लेकिन उनका कामकाज ऐसा नहीं था कि उन्हें कैबिनेट की रेन्क मिल जाये। दूसरी ओर मनमोहन सिंह ने राज्य मंत्रियों में जिन्हें चुना है उसमें ही कुछेक लोग ऐसे है जो सेलजा से सिनियर है और उनसे भी ज्यादा सक्षम है। महत्वपूर्ण बात यह है कि वे लोग उनकी क्षमता साबित कर चुके है। उदाहरण के तौर पर जैसे कि, प्रफुल पटेल, जयराम रमेश, दिनशा पटेल। मनमोहन सिंह ने उन्हें स्वतंत्र चार्ज के साथ चाहे राज्य मंत्री बनाया हो लेकिन वे लोग सेलजा से निम्न श्रेणी में गिने जायेंगे। इसी तरह शशी थरूर या भरतसिंह सोलंकी जैसे सांसद राज्यमंत्री के रुप में है और इन लोगों को तो दूसरे किसी कैबिनेट मंत्री के हाथ के नीचे काम करना पडेगा। हो सकता है उन्हें सेलजा के हाथ के नीचे ही काम करना पडे। शशी थरूर चाहे लोकसभा में पहली बार चुने गये हो लेकिन इसमें दो राय नहीं कि उनका अनुभव देखते हुए वे कैबिनेट मंत्री बनने की योग्यता रखते है और बावजूद इसके उनके जैसे लोगों को एक ओर रख सेलजा जैसो को कैबिनेट रेन्क मिला यह बडे आश्वर्य की बात है। सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को जैसा ठीक लगे वैसा। हो सकता है कि इसके पीछे भी उनकी कोई गिनती होगी जो हमारे जैसो के समझ में ना आये।
मनमोहन सिंह की बिदा होनेवाली कैबिनेट में ज्योतिरादित्य सिंधिया थे उन्हें यथावत रखा गया है। राहुल गांधी ब्रिगेड के ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलोट और जितिन प्रसाद को मनमोहन सिंह कैबिनेट में जगह दे दी गई है और एकमात्र मिलिन्द देवरा ही बाकी रह गये है। मिलिन्द देवरा के पिताजी मुरली देवरा पहले ही कैबिनेट मंत्री पद पर बैठ गये है इसलिए शायद मिलिन्द का पत्ता कट गया हो।
मनमोहन सिंह के बिदा होते मंत्रीमंडल में गुजरात में से तीन मंत्री थे और उसमें से एक केन्द्रीय और दो राज्य मंत्री थे। शंकरसिंह वाघेला केन्द्रीय मंत्री थे जबकि नारणभाई राठवा और दिनशा पटेल राज्यमंत्री थे। शंकरसिंह बापु और नारण राठवा चुनाव हार गये इसलिए यह दो जगह खाली थी और उनके स्थान पर भरतसिंह सोलंकी और तुषार चौधरी आ गये। यह दोनों राज्य मंत्री है। दिनशा पटेल को यथावत रखा गया है और उन्हें भी राज्य मंत्री पद पर बिठाया गया है। हालांकि उन्हें स्वतंत्र चार्ज दिया गया है यानि कि केन्द्रीय कक्षा का दर्जा। दिनशा जैसे-तैसे करके 800 वोट से चुनाव जीते अगर भारी लीड के साथ जीतते तो शायद शंकरसिंह बापु की जगह केन्द्रीय मंत्री बने होते।
मनमोहन सिंह कैबिनेट में सबसे खास बात है अगाथा संगमा की पसंदगी। 24 जुलाई 1980 के दिन पैदा हुई अगाथा संगमा की उम्र महज 29 साल है और इतनी छोटी उम्र में अगाथा की पसंदगी केन्द्रीय मंत्रीमंडल में हुई यह वाकई इस देश के युवाओं के लिए बहुत अच्छी खबर है। माना कि अगाथा संगमा को राजनीति विरासत में मिली है। उनके पिता पूर्णो संगमा किसी समय में लोकसभा के स्पीकर थे और मेघालय में उनका एकचक्री शासन है। अगाथा पूर्णो संगमा की बेटी न होती तो राजनीति में आ सकती थी यह बहुत बडा सवाल है। हालांकि इन सारी बातों को एक ओर रख 2९ साल की युवती इस देश में मंत्री बने यह चमत्कार ही तो है और उन्हें मिला यह मौका इस देश के युवाओं को मिला अवसर ही है। इस देश में बूढे राजनीतिज्ञ युवाओं को मौका दे यही बडी बात है और हम सभी चाहेंगे कि अगाथा उसे दिये इस गए मौके को समझे और कामयाब हो।
जय हिंद

बुधवार, 27 मई 2009

द्रमुक के सामने कांग्रेस का आत्मसमर्पण और ममता की धमाकेदार शुरुआत

मनमोहन सिंह सरकार का शपथ ग्रहण पूरा हो गया लेकिन यूपीए के समर्थक दलों की खींचातान अभी खत्म नहीं हुई है। कैबिनेट विभागों में पदों और मंत्रालयों के बंटवारे का मामला अभी भी अनसुलझा ही है। मनमोहन सिंह ने शुक्रवार को प्रधानमंत्री पद का शपथ ग्रहण किया उस समय ऐसा कहा जाता था कि उनके साथ ८० मंत्रियों का जबरदस्त मंत्रिमंडल शपथ लेगा लेकिन द्रमुक की गीदडभभकी के कारण मनमोहन सिंह को ८० के बजाय १९ मंत्रियों के साथ शपथ लेकर अपनी ताजपोशी पूरी करनी पडी। उस समय ऐसी घोषणा हुई थी कि देश की कीमत पर अपने स्वार्थ की खेती करनेवाले द्रमुक सुप्रीमो करुणानिधि गीदडभभकी दिखा रहे है इसलिए छोटा मंत्रिमंडल रखना पडा है लेकिन करुणानिधि को दो-चार दिनों में मना लिया जाएगा और दूसरे ६० मंत्रियों को शपथ दिलवाकर आंकडा ८० पर पहुंचा दिया जाएगा। कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने खुद इसमें दिलचस्पी ली इसलिए करुणानिधि तो सीधे हो गए और कैबिनेट में अपनी पार्टी के ९ सदस्यों को शामिल करने की जिद्द छोड सात मंत्री पद में मान गए लेकिन ऐसा कहा जाता है कि अब मेडम ममता ने करुणानिधि की राह पकडी है और उसके कारण मंगलवार को जो विस्तार होनेवाला था उसमें रुकावट आ गई है। अब ममता को मनाकर बृहस्पतिवार को इसका विस्तार किया जाएगा।
ममता ने एक हफ्ते में दूसरी बार आपत्ति जताई है इससे पहले शुक्रवार को उन्होंने शपथ ग्रहण किया लेकिन उनकी पार्टी के दूसरे लोगों का शपथ ग्रहण नहीं हुआ इसलिए वह बौखला गई और अपने दूसरे साथियों के साथ ही अपना प्रभार संभालेगी ऐसा कह कोलकाता चली गई थी। कांग्रेस के नेताओं ने इस मामले ममता को जैसे-तैसे मनाया वहीं ममता को कैबिनेट में उनको दिए जानेवाले विभागों के मामले आपत्ति हुई है। कांग्रेस ने करुणानिधि को मनाने के लिए उन्हें सात विभाग देने की तैयारी दिखाई है इसलिए ममता बौखलाई है। यूपीए में ममता की पार्टी कांग्रेस के बाद लोकसभा में सबसे ज्यादा सदस्य वाली है और उस हिसाब से कांग्रेस के बाद ममता को सबसे ज्यादा मंत्री पद मिलने चाहिए। करुणानिधि के द्रमुक के लोकसभा में १८ सदस्य है और इसके बावजूद वे कांग्रेस को ब्लेकमेइलिंग कर तीन कैबिनेट मंत्री पद और चार राज्य मंत्री पद हडपने के फिराक में हो तो भला ममता क्यों पीछे रहे? लोकसभा में द्रमुक से ममता की पार्टी में एक सदस्य ज्यादा है उस हिसाब से उन्हें ज्यादा विभाग मांगने का अधिकार है।
शायद ममता को अब ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस ने एक कैबिनेट और पांच राज्य मंत्रीपद देकर उन्हें फुसलाया है। द्रमुक के सुप्रीमो करुणानिधि अपने बेटे-बेटियों से लेकर भतीजे तक के रिश्तेदारों के लिए कैबिनेट मंत्रीपद मांग सकते है और इस बहाने कांग्रेस को ब्लेकमेइलिंग कर सकते है तो ममता भी ऐसा करे इसमें गलत क्या है। ममता को भी अपनी पार्टी चलानी है।
अब देखना यह है कि कांग्रेस ममता को किस तरह मनाती है। लोकसभा के चुनाव परिणाम घोषित हुए और जिस तरह जनादेश मिला और कांग्रेस ने जो तेवर दिखाए तब ऐसी उम्मीद जगी थी कि कांग्रेस उसे ब्लेकमेइल करनेवाली और इस देश को नुकसान पहुंचानेवाली क्षेत्रीय पार्टियों को कमजोर बना देगी और उन्हें ठिकाने लगा देगी। लेकिन एक हफ्ते में कांग्रेस का बल ढीला हो गया है और लगता है कि उसने क्षेत्रीय पार्टियों को फुसलाने का काम फिर से शुरु कर दिया है।
यह समझा जा सकता है कि कांग्रेस को कुछेक समाधान करने पडेंगे। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने में मदद करनेवाली पार्टियों को सत्ता में योग्य हिस्सेदारी मिलनी चाहिए लेकिन कांग्रेस ने द्रमुक के मामले जो रवैया अपनाया वह समाधान नहीं बल्कि आत्मसमर्पण है। करुणानिधि राजनीतिक ब्लेकमेइलिंग में उत्साद है और कांग्रेस को इसका कडवा अनुभव अच्छी तरह हो चुका है उसे देखने के बाद कांग्रेस को सावधान होने की जरुरत थी। करुणानिधि ने खुद को ९ विभाग नहीं मिलेंगे तो वे सरकार में नहीं जुडेंगे ऐसी बात की तभी कांग्रेस को कह देना चाहिए था कि आपकी कोई जरुरत नहीं है। द्रमुक के साथ कांग्रेस ने चुनाव पूर्व समझौता किया था इसलिए उसे सत्ता में हिस्सेदारी देना कांग्रेस का फर्ज था लेकिन इस तरह ब्लेकमेइलिंग के बाद हरगिज नहीं। करुणानिधि को मनाया उसमें अब ममता ने भी वही रास्ता अपनाया है और अब कांग्रेस को उन्हें मनाने में चार दिन बिगाडने पडेंगे तब तक कोई दूसरा खडा हो जायेगा।
करुणानिधि का बेटा अझागिरि, उनकी तीसरी शादी से हुई बेटी कनीमोझी और भतीजा मुरासोली मारन का बेटा दयानिधि मारन यूं तीन-तीन रिश्तेदारों को करुणानिधि ने कैबिनेट में घुसाने का तख्ता बनाया है। करुणानिधि के रिश्तेदार होने के अलावा इन तीनों की और कोई योग्यता नहीं है। करुणानिधि बडी बेशर्मी के साथ अपने पूरे खानदान को मंत्रीपद दिलाने के लिए नाटक कर रहे है। कांग्रेस करुणानिधि की ब्लेकमेइलिंग हमेशा के लिए बंद हो जाये ऐसा करने का मौका गंवा चुकी है और इसकी कीमत कांग्रेस के साथ-साथ पूरे देश को चुकाना पडेगा। खैर, ममता ने रेल मंत्रालय का प्रभार संभाल लिया यह कांग्रेस के लिए अच्छी खबर है। ममता बनर्जी ने रेल मंत्रालय का प्रभार संभालते ही गरीबों के लिए सिर्फ २० रु. में मासिक पास की घोषणा की। इस घोषणा का लाभ गरीबों तक पहुंचता है या नहीं यह पता नहीं लेकिन इसमें दो राय नहीं कि ममता की यह शुरुआत धमाकेदार है।
जय हिंद

शुक्रवार, 22 मई 2009

मनमोहन सिंह : अर्थशास्त्री से लेकर परिपक्व राजनेता


मनमोहन सिंह का राजनीतिक सफर : मनमोहन सिंह क्रम के मुताबिक देश के 18वें प्रधानमंत्री है जबकि व्यक्तिगत रुप से देश के 14वें प्रधानमंत्री है। मनमोहन सिंह दूसरी टर्म के लिए प्रधानमंत्री पद पर बैठनेवाले पांचवे प्रधानमंत्री है। मनमोहन सिंह से पहले जवाहर लाल नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी ने यह सिध्धि हासिल की है। राजीव गांधी इंदिरा गांधी की हत्या के बाद बहुत कम समय के लिए प्रधानमंत्री पद पर बैठे थे और बाद में तुरंत ही लोकसभा चुनाव आ गए थे जिसमें वे भारी बहुमती से फिर से सत्ता में आए थे। प्रधानमंत्री पद के पांच साल पूरे करने के बाद सतत दूसरी टर्म के लिए प्रधानमंत्री पद पर बैठने वाले मनमोहन सिंह जवाहर लाल नेहरु के बाद दूसरे प्रधानमंत्री है। इंदिरा गांधी १९६७ में प्रधानमंत्री पद पर बैठी थी लेकिन १९७२ में उनकी टर्म पूरी हो उससे पहले ही उन्होंने लोकसभा का विसर्जन करवा कर चुनाव घोषित करवा दिया था और उसमें वे भारी बहुमती के साथ चुनकर आई थी लेकिन उनकी पहले की टर्म पांच साल की नहीं थी। मनमोहन सिंह पहले ऐसे प्रधानमंत्री है जिन्होंने लोकसभा चुनाव नहीं लडा और बाद में प्रधानमंत्री बने हो। इससे पहले इंदिरा गांधी और इन्दरकुमार गुजराल दोनों लोकसभा में बिना चुने ही प्रधानमंत्री पद पर बैठे थे लेकिन मनमोहन सिंह की तरह लोकसभा चुनाव लडे बिना ही प्रधानमंत्री पद पर नहीं बैठे थे। मनमोहन सिंह पांच साल की टर्म पूरी करने वाले जवाहर लाल नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिंहराव और अटल बिहारी वाजपेयी के बाद छठे प्रधानमंत्री है।
आज मनमोहन सिंह की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी होगी उसके साथ ही देश में एक नए युग की शुरुआत होगी और सभी की नजरें इसके बाद मनमोहनसिंह क्या करेंगे इस पर टिकी हुई है।
कांग्रेस को मिली जीत के लिए राहुल गांधी और सोनिया गांधी का जीतना योगदान है उतना ही योगदान मनमोहन सिंह का भी है। भाजपा ने आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था और उसके सामने कांग्रेस ने मनमोहन सिंह को अपना उम्मीदवार घोषित किया था। जनता ने मनमोहन सिंह को पसंद किया क्योंकि मनमोहन सिंह आडवाणी से ज्यादा ईमानदार है, ज्यादा कार्यदक्ष नेता है।
जनता ने मनमोहन सिंह को पसंद किया इसके पीछे एक कारण उनकी अर्थशास्त्र के बारे में समझ है और इस देश में दस में से नौ लोग यह मानते है कि अभी वैश्विक मंदी के माहौल में मनमोहन सिंह ही इस देश को सही मार्गदर्शन दे सकते है। इस देश को विकास की बुलंदियों पर ले जा सकते है। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने उससे पहले ही उन्होंने अपना एजन्डा सेट कर दिया है और आर्थिक बाबत में नौकरियां बढाने से लेकर आर्थिक विकास दर बढाने तक की घोषणाएं की है लेकिन सिर्फ घोषणाएं करने से कुछ नहीं होता, इसके लिए काम करना पडता है। अब देखना यह है कि मनमोहन सिंह इस मामले क्या करते है। मनमोहन सिंह क्या करते है यह तो वक्त आने पर पता चलेगा ही लेकिन कांग्रेस ने चुनावी घोषणा पत्र में दिए वादों को पूरा करने की कवायद शुरु की है और उनकी यह पहल अच्छी शुरुआत है।
कांग्रेस ने यह जिम्मेदारी सीधे मंत्रियों पर डाली है और हरेक मंत्रालय के पास से आगामी १०० दिन में वे क्या करेंगे इसका रिपोर्ट पहले से मांग लिया है। यह पहल दो तरह से महत्वपूर्ण है। एक तो हमारे यहां राजनीतिक पार्टियां उनके चुनावी घोषणापत्र में जो वादे करती है वह सिर्फ घोषणा तक ही सीमित होता है और वे लोग ऐसा मानते है कि उसका अमल नहीं करना होता।
अभी तक ऐसा ही चलता रहा है और कोई भी पार्टी चुनावी घोषणापत्र का पालन करने में मानती नहीं और लोग उसका हिसाब मांगते नहीं। मनमोहन सिंह जो कुछ भी कर रहे है वह सब चुनावी घोषणापत्र और किए वादों की विश्वसनीयता साबित करने की कवायद है और यह जरुरी भी है। दूसरा फायदा सरकारी तंत्र में संचालन है। इस देश में सरकारी कामकाज बैलगाडी की तरह चलता है तब इन कोशिशों से थोडा बहुत फर्क तो पडेगा ही। मनमोहन सिंह के लिए यह समय उनकी परीक्षा का समय है। मनमोहन सिंह से इस देश की जनता को बहुत सारी अपेक्षाएं है लेकिन फिलहाल पूरे देश की ओर से उन्हें मुबारकबाद।
जय हिंद
प्रधानमंत्री का पता :- ७, रेसकोर्स रोड, नई दिल्ली
E-mail:manmohan@sansad.nic.in

गुरुवार, 21 मई 2009

जीत के कदम सावधानी के साथ...

जीत हर किसी का आत्मविश्वास बढा देती है। लोकसभा चुनाव प्रचार चल रहा था तब कांग्रेस सरकार गठित करने के लिए जरुरी बहुमती मिलेगी या नहीं इस असमंजस में थी और उसके कारण कांग्रेस को लालूप्रसाद यादव, रामविलास पासवान और मुलायम सिंह जैसे ब्लेकमेइलर्स से लेकर वामपंथी जैसे गद्दारों तक के सभी के हाथ-पैर जोडने पडते थे। हद तो इस बात कि हो गई कि जिनका इस देश के विकास में कोई हिस्सेदारी नहीं है ऐसे वामपंथियों को कांग्रेस के महामंत्री राहुल गांधी को अपने साथ रहने के लिए बिनती करनी पडती थी।
लोकसभा चुनाव परिणाम आए और कांग्रेस ने जो छलांग लगाई उसके साथ ही कांग्रेस के तेवर ही बदल गए है और अब तक झुककर चलने वाली कांग्रेस मजबूत बन गई है। बुधवार को कांग्रेस ने उसके सहयोगी दलों की बैठक बुलाई और उसमें उसके इस बदले तेवर का मिजाज सबको अच्छी तरह से मिल गया। कांग्रेस की झपट में सबसे पहले लालूप्रसाद यादव और रामविलास पासवान आ गए है। लालूप्रसाद यादव, रामविलास पासवान और मुलायम सिंह ने कांग्रेस को चुनाव प्रचार के समय बहुत सताया और कांग्रेस उसका हिसाब बराबर करने में लगी है। बुधवार को युपीए के सहयोगी दलों की बैठक मिली तब रामविलास पासवान और लालूप्रसाद यादव को अलग रख कांग्रेस ने सबसे पहला झटका मारा। रामविलास पासवान के पास पांच साल तक बैठे-बैठे भजन गाने के अलावा कुछ नहीं रहा इसलिए उन्हें यूपीए की बैठक में आमंत्रण देने का कोई सवाल ही नहीं था लेकिन लालूप्रसाद यादव तो चार बैठक जीतकर आए है और उसके बावजूद कांग्रेस ने उन्हें एक ओर रख दिया। ढीलेढाले लालू अब कांग्रेस के साथ रिश्ता सुधारने में लगे हुए है और चुनाव से पहले यूपीए की बैठक मिलेगी और उसमें नेता चुने जाएंगे ऐसे फाके मारने वाले लालू ने यूपीए को बिना शर्त के समर्थन देने का पत्र राष्ट्रपति को दिया उसके बाद भी सोनिया गांधी एक की दो न हुई। लालू ने सोनिया गांधी और उनके परिवार के साथ अपने रिश्तों की दुहाई भी देकर देखा लेकिन सब पत्थर पर पानी डालने जैसा था। सोनिया गांधी ने एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया। देखना यह है कि लालू अब कौन सा नया खेल खेलेंगे लेकिन सोनिया गांधी लालू को चान्स दे ऐसी संभावना बहुत कम है। अभी तो लालू की हालत ‘धोबी का कुत्ता न घर का न घाट’ का जैसी है। लालू अभी उन पलों को कोसते होंगे जब मुलायम सिंह यादव और रामविलास पासवान जैसे बिना दिमाग वाले लोगों की संगत में उनकी भी मति मारी गई और बिहार में कांग्रेस के साथ नाता तोड पासवान की संगत में चुनाव लडने का निर्णय लिया था। पासवान के दिमाग के दम चलते हुए लालू खुद ही पांच साल के लिए लटक गये है। बिहार में नीतिश कुमार ने जिस तरह सिक्स लगाया और अपने कीले मजबूत किए उसे देख विधानसभा चुनाव में भी लालू का चान्स गया ही समझो। कांग्रेस ने लालू से किनारा किया यह बहुत अच्छी निशानी है और इस पर से उम्मीद जगती है कि कांग्रेस मुलायम सिंह और मायावती जैसे मौकापरस्तों की जमात के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करेगी। कांग्रेस ऐसा व्यवहार करे इसमें कुछ गलत भी नहीं है। उसे ऐसा करने का पूरा हक है। कांग्रेस ने उसके बदले रवैये का चमत्कार ममता बेनर्जी को भी दिखा दिया है। ममता बेनर्जी ने इस बार वामपंथियों के घर में घूस उन्हें घूसे मारे है इससे इंकार नहीं किया जा सकता और अभी तो वे यूपीए में सबसे बडे दल के रुप में है फिर भी कांग्रेस ने उन्हें भी सीमा में रहने को कह दिया है। ममता बेनर्जी ने यूपीए की बैठक में होशियारी दिखा यूपीए सरकार को चलाने के लिए कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बनाना चाहिए ऐसा कहा और कांग्रेस ने ममता की बात को कचरे के डिब्बे में डाल दिया। कांग्रेस की बात साफ है। यूपीए का अपना एजन्डा है ही और इसी एजन्डे के आधार पर कांग्रेस ने चुनाव लडा है और अब जब सरकार बनने वाली है तो उसी एजन्डे को आगे बढाना है तो कॉमन मिनिमम प्रोग्राम की जरुरत ही कहां है। कांग्रेस ने यूपीए के जरिए चुनावी घोषणापत्र में दिए वादों को पूरा करने के लिए हरेक मंत्रालय के मंत्री पर जिम्मेदारी डालने का निर्णय लिया ही है उसे देख और कोई जरुरत है ही नहीं।
कांग्रेस के यह बदले तेवर उसके सहयोगी दलों को पसंद नहीं आयेंगे लेकिन इस देश के लिए यह जरुरी है। इस देश में पिछले एक दशक के दौरान जो राजनीतिक उतार-चढाव देखने को मिले उसमें क्षेत्रीय दलों ने नाक में दम कर रखा है और इस देश के विकास या प्रगति की चिंता करने के बजाय अपने तुच्छ अहम की संतुष्टि में लग गए थे। उन्हें संतुष्टि देने में ही पांच साल पूरे हो जाते थे और आखिर में दोष का ठिकरा जिसकी भी सरकार हो उस पर फोडा जाता था।
इसबार स्थिति बदल गई है और कांग्रेस अपनी ताकत पर फिर से सत्ता में आई है उसे देख वह क्षेत्रीय पार्टियों की अक्ल ठिकाने लाने के लिए जो भी करे वह सब जायज है और माफ भी है।
देश की राजनीति के लिए पांच साल महत्वपूर्ण है और इन पांच साल में देश के बडे-बडे राज्यों में से जितने हो सके उतने क्षेत्रीय दलें खत्म हो जाये यह जरुरी है। कांग्रेस आनेवाले पांच सालों में दूसरा कुछ करे ना करे लेकिन इतना करे यही बहुत है। इस देश में क्षेत्रीय दलों को सिर आंखों पर बिठाने का पाप भाजपा ने शुरु किया था। भाजपा में अपनी ताकत पर सत्ता हासिल करने जितना धैर्य नहीं था इसलिए उसने क्षेत्रीय दलों को कंधे पर बिठाकर सत्ता हासिल की और उसके बाद हालत यह हो गई कि यह लोग कंधे से सिर पर ही बैठ गये। भाजपा ने जिस पाप की शुरुआत की थी उसे कांग्रेस ने भी किया क्योंकि यह राजनीतिक मजबूरी थी। अब कांग्रेस की कोई राजनीतिक मजबूरी नहीं है तब कांग्रेस उसके इस पाप का प्रायश्चित करे यह जरुरी है। भाजपा को तो लोगों ने लगातार १० साल तक सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा उसके पाप की सजा दे दी है।
जय हिंद