भारत जैसे आतंकवादियों का अभयारण्य बन गया है। जयपुर में विस्फोट... बंगलुरू थर्राया... आतंकवादी धमाकों से अहमदाबाद दहला... मुझे तो लगता है कि हम भारत में नहीं इराक या अफघानिस्तान में रह रहे है। दहशतगर्दो ने इन भीषण हमलों से झकझोर कर हमारी सरकारी नाकामी, सुरक्षा व्यवस्था की काहिली और खुफिया विफलता को उजागर किया है।
पिछले चार वर्षो में अयोध्या, दिल्ली, बनारस, गोरखपुर, हैदराबाद, बंगलुरू, मालेगांव, अजमेर, जयपुर और मुंबई में एक के बाद एक दिल दहला देने वाली घटनाएं घटी है। इतने बडे पैमाने पर लोगों की मिलीभगत होती है। सब जगह एक जैसा पेटर्न रहा है। हर बार कुछ लोग पकडे जाते है और जेबकतरों की तरह उनसे कुछ पूछताछ भी होती है, लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। सरकार उनके खिलाफ कोई ठोस निर्णय नहीं ले पाती। वह चाहती भी नहीं क्योंकि निर्णयों में राजनीतिक जोखिम होते है। हमारी सरकारें देश के लिए नहीं, अपने निहित स्वार्थो के लिए काम करती है। बीच-बीच में खबरें आती है कि अब आईएसआई बांग्लादेशी आतंकी संगठन हूजी के जरिये यह सब करवा रहा है। लेकिन ऐसी कोई खबर आज तक नहीं आई कि हमारी एजेंसियां उनके खिलाफ क्या रणनीति अपना रही है।
कडे कानूनों का अभाव, राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी, ढुलमुल सरकार वाले देश में आतंकवादी कब अपनी साजिश को अंजाम दे देते है, किसी को कानो-कान खबर नहीं हो पाती। इस देश में आतंकवाद को धर्म के तराजू में तौला जाता है।
क्या बंगलुरू में मारे गए कन्नडियन का खून दिल्ली के सरोजिनी नगर में मारे गए पंजाबी के खून से जुदा है ? क्या बनारस में मारे गए व्यक्ति का खून हिंदू था, और मालेगांव में मारे गए व्यक्ति का खून मुस्लिम ? क्या मारे गए निर्दोष कांग्रेसी या भाजपाई होते हैं ? जिस तरह से हमारे राजनेताओं ने बम धमाकों पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकनी शुरू कर दी है, क्या उस भावना के साथ हम आतंकवादियों का मुकाबला कर पाएंगे ? क्या हमारी राजनीतिक नेतृत्व, हमारी ब्यूरोक्रेसी, हमारी सुरक्षा एजेंसियों के भीतर वह भावना है ? यदि होती, तो शायद आज हम इतने असहाय नहीं होते।
आतंकवादी गुट नई-नई रणनीतियां बना रहे है। नए-नए ठिकानों को निशाना बना रहे है। वे बाकायदा हमें चुनौती देते है कि हिम्मत है, तो हमें रोककर दिखाओ। लेकिन हमारे राजनेता एक-दूसरे की टांग खींचने में लगे हुए है। बम धमाकों के बाद नेतागण एक ही रिकार्ड बजा रहे है कि इस हमले के पीछे आतंकवादी संगठन का हाथ था। इसमें नया क्या है ? यह तो बच्चा-बच्चा जानता है। कोई ऐसा थोडे ही कहेगा कि यह हमला किसी महिला मंडल ने करवाया है। यह समय बयानबाजी का नहीं है, काम करने का है। जिसके लिए जनता ने आपको चुनकर भेजा है।
कुछ नजर डालें हमारी सुरक्षा एजेंसियों की गतिविधियों पर... 1193 के मुंबई ब्लास्ट केस में 100 जितने दोषियों को सजा हुई लेकिन यह तो छोटी मछलियां है। दाउद इब्राहिम, टाइगर मेमन, छोटा शकील जैसे मुख्य अपराधियों का हम बाल भी बांका नहीं कर सके। यह लोग कभी पकडे जायेंगे और भारत की कोर्ट में इनके सामने केस चलेंगे ऐसी उम्मीद करना भी बेकार है। 1998 में लाल कृष्ण आडवाणी की सार्वजनिक सभा से पहले ही कोइम्बतुर बम धमाकों से दहला और लगातार 14 धमाके हुए। इस केस में अल उम्मा के सरगना बासा को उम्रकैद की सजा हुई है और दूसरे 150 से भी ज्यादा दोषियों को कोर्ट ने सजा सुनाई है। जबकि, इस केस का मुख्य सूत्रधार केरल का राजनीतिज्ञ और कट्टरवादी मुस्लिम नेता अब्दुल नसीर मधानी इस केस में निर्दोष बरी हो गए थे। मधानी दक्षिण भारत में आतंकवादियों का सबसे बडा आश्रयदाता माना जाता है। भारतीय संसद पर हमले के केस में अफजल गुरु को फांसी की सजा हुई है और अन्य दो को उम्रकैद लेकिन प्रो. गिलानी निर्दोष बरी हो गए थे। अफजल को फांसी देने में विलंब हो रहा है और संसद पर हमले जैसे अत्यंत गंभीर अपराध में जिसका हाथ है उसे छोड देने की वकालत हमारे देश की कुछेक राजनीतिक पार्टियां खुलेआम कर रही है। इन तीन केसों को छोड कोई केस निपटाया नहीं गया और 1993 से अभी तक हुए ऐसे बडे आतंकी हमलों के केसों की संख्या 15 से भी ज्यादा है। बडे पैमाने पर केसों में किसी की गिरफ्तारी भी नहीं हुई और जांच एजेंसियां आईएसआई या दूसरे आतंकवादी संगठन पर दोष डालकर पल्लू झाड लेती है। देश की राजधानी में 2005 के अक्टूबर में हुए सीरियल बम धमाकों के दोषियों को सामने लाने में केन्द्रीय सुरक्षा एजेंसियां आज तक सफल नहीं हो पाई है। समझौता एक्सप्रेस में पिछले साल फरवरी में हुए बम धमाकों के अलावा इन सभी बम धमाकों के पीछे हरकत-उल-जेहादी इस्लामिया का हाथ होने का अंदेशा है इसके बावजूद भी एजेंसियां मुख्य षडयंत्रकारी तक पहुंचने में नाकाम रही है। इस साल मई में जयपुर में हुए सीरियल बम धमाके का मामला भी आजतक सुलझाया नहीं जा सका है।
आतंकवाद बल से नहीं अक्ल से खत्म हो सकता है। आतंकवाद से निपटने में सैन्य कार्रवाई नहीं राजनीतिक सूझबूझ और मजबूत पुलिस-खुफिया तंत्र कारगर साबित हो सकता है। आंकडे और इतिहास बताता है कि आतंक से जुडे ज्यादातर मसले या तो राजनीतिक पहल से सुलझे है या फिर पुलिस और खुफिया तंत्र की मुस्तैदी से। आतंकवादियों को धार्मिक लडाकों की संज्ञा न देकर उन्हें सामान्य अपराधी समझकर कार्रवाई करनी चाहिए। क्योंकि इस समस्या का हल किसी जंग के मैदान में नहीं हो सकता।
हमारी खुफिया एजेंसियों को एक-दूसरे पर जवाबदेही डालने की आदत सी हो गई है। हर वारदात के बाद केन्द्र और प्रदेश सरकारें एक-दूसरे पर इल्जाम लगाती है, पर अफसोस है कि आतंकवाद की समस्या से निपटने के लिए कोई भी गंभीर नहीं है। प्रतिदिन या सप्ताह में महत्वपूर्ण स्थानों पर हमले की सूचना की खबर दे दी जाती है। पर कब और कहां यह कोई नहीं बताता। हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने परमाणु केन्द्रों पर आतंकी हमलों की आशंका जता दी। सवाल यह है कि जब आपको यह पता है कि हमला हो सकता है, तो यह भी पता होना चाहिए कि हमला करने वाला कौन है। वह कहां है और इस वारदात को किस तरह अंजाम देगा। खुफिया एजेंसियों को इसकी कोई खबर नहीं होती और न ही वह इसका पता करने की जरूरत समझती है।
इन विस्फोटों के बाद हमेशा की तरह नेताओं की बयानबाजी हुई, मृतकों के परिजनों के लिए मुआवजे का ऐलान हुआ, मगर उन चेहरों के आंसुओं के पीछे छिपा दर्द और पीडा को शायद ही कोई पहचान पाए, जिन्होंने इन विस्फोटों में अपनो को खोया है।
खौफ में जी रही जनता... अस्पताल में दर्द से कराहते लोग... रुदन करते परिजन... चिथडों में लिपटी लाशें... आतंकवादियों के इस कायराना कृत्य से न जाने कितनी मांगे सूनी हो गई, कितने ही बच्चे अनाथ हो गए, कितनी ही माताओं की गोद उजड हो गई। लोग अपने घरों से काम पर निकलते तो हैं लेकिन लौटकर उनके क्षत-विक्षत शव आते है।
अहमदाबाद और सूरत में जो बम मिले है उसमें पुलिस या जांच एजेंसियों का कोई योगदान नहीं है लेकिन इसका श्रेय जनता को ही जाता है। जनता ही पुलिस को खबर देती है और ये अफसर लोग जैसे कोई बडा तीर मार दिया हो इस तरह अपना काफिला लेकर आ धमकते है। हाईअलर्ट करने और ऐसी घटनाओं का सख्ती से मुंहतोड जवाब दिए जाने का सरकारी रेडिमेड जवाब सुन-सुन कर जनता के कान पक गए है। पुलिस सिर्फ अंधेरे में तीर चला रही हैं। गत शनिवार के बम धमाकों के सप्ताह बितने के पश्चात पुलिस निश्चित सबूत प्राप्त नहीं कर सकी। जरा सोचें, समग्र देश में हाईअलर्ट के बावजूद मौत का सामान सूरत तक पहुंच गया। इससे साबित होता है कि यहां के प्रशासन को जंग लग चूका है।
इन वारदातों से लगता है कि भविष्य में दहशतगर्द हमारे घर में घूस कर हमें मार गिरायेंगे और यह पुलिस प्रशासन आराम से हमारा पंचनामा कर हमारा अंतिम संस्कार करने आ जायेगी। जिन्हें शहर में दहशतगर्द इतने धमाके कर जाए और तीन दिन लगातार मिल रहे बमों की कानो-कान खबर नहीं होती ऐसे लोगों से हम क्या उम्मीद कर सकते है। काश, हमारी खुफिया एजेंसियां मोसाद से और राजनेता गोल्डा माएर से कुछ सीख पाते।
अब हमारे क्राइम ब्रान्चवाले मौलाना हलीम नामक सिमी के किसी कार्यकर्ता को पकड लाये है और इस मौलाना के जरिये पाकिस्तान में प्रशिक्षण के लिए भेजे गए 33 युवकों का इस हमले के पीछे हाथ होने की बात हो रही है। सवाल यह है कि, यह 33 युवक हमारी आंखों को धोखा देकर आतंकवादी केम्पों में पहुंचे कैसे ?
गुजरात की जो स्थिति है उसका जवाब इस सवाल में है। हमारे यहां आतंकवाद जैसी कोई वारदात होती है कि फौरन मुस्लिम विरोधी माहौल पैदा हो जाता है। मुस्लिम आतंकवाद संगठनों से बडे पैमाने पर जुडे है यह बात सच है लेकिन सिर्फ मुसलमान इसके लिए जिम्मेदार है ऐसा कहना गलत होगा। इस देश में 80% बस्ती हिन्दूओं की है। सरकारी प्रशासन में 90% हिन्दू काम करते है, पुलिस, सेना, इन्टेलिजेन्स सभी में 90% हिन्दू है। मुस्लिम तो गिन-चुन कर 5% है और इसके बावजूद भी मौत का सामान बेरोकटोक पाकिस्तान से हमारे देश में घुस जाता है। यहां के युवक सरहद पार करके आतंकवादी ट्रेनिंग लेने पहुंच जाते है और यहां आकर धमाके कर लाशें बिछा जाते है। क्योंकि जो 90% है उनमें कुछेक गद्दार है और उनकी नमकहरामी की वजह से यह खूनी खेल खेला जाता है।
यह बात भले कडवी लगे, लेकिन 1993 के मुंबई बम ब्लास्ट इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। सोमनाथ थापा जैसे हिन्दू गद्दार न होते तो 1993 के धमाके नहीं होते। 1993 के धमाकों में 100 जितने दोषियों को सजा हुई उसमें 25 जितने हिन्दू है। यह हमारा इतिहास है। आतंकवाद के सामने लडना है तो पहले हमारे उन गद्दारों को ढूंढना पडेगा और बेनकाब करना पडेगा। इस मामले में जितनी मुसलमानों की जिम्मेदारी है उतनी ही हिन्दूओं की भी है।
हमारे देश में यह आम फैशन हो गया है कि आतंकवाद की कोई भी घटना होती है तो आईएसआई या फिर दाउद इब्राहिम या फिर बांग्लादेशी के मिलते-जुलते संगठन पर दोष मढ कर अपना पल्लू झाड लेने का। लेकिन यह कायराना कृत्य इस देश का नमक खाकर नमकहरामी करने वाले गद्दारों का है। इस देश में रहकर इस देश को नफरत करने वाले देशद्रोहियों का है।
बंगलुरू और अहमदाबाद के बम विस्फोट कम तीव्रतावाले थे, जिसमें बेहद सस्ता और आसानी से मिल जाने वाला अमोनियम नाइट्रेट, नट-बोल्ट और कील आदि का प्रयोग हुआ था। बंगलुरू में नौ बम धमाकों में दो ही लोग मारे गए। अहमदाबाद में 16 धमाकों में मरने वालों की संख्या भी कम है। इससे साफ होता है कि यह बम बनाने वाले अनगढ है इनमें ज्यादा कुशलता नहीं लेकिन इनके इरादे बेहद खतरनाक है। जिस तरह बमों को रक्खा गया वह स्थानीय लोगों के शामिल हुए बिना संभव नहीं था। हमारे देश में रहने वालों ने ही इस घटना को अंजाम देने वाले व्यक्तियों का साथ दिया है। उनके बिना बमों के निर्माण और उनको विभिन्न स्थानों पर रखने का कार्य नहीं हो सकता। क्या हमारे अपने ही लोग साजिश के पैरोकार बनते जा रहे है?
अफसोस ! ऐसा भी नहीं कि आतंकवाद से निपटने के लिए भारत के पास संसाधनों की कमी है। विश्व की शीर्ष सैन्य शक्ति, परमाणु शक्ति संपन्न देश यदि आतंकवाद के सामने कमजोर दिखाई पड रहा है तो उसका सबसे अहम कारण है सशक्त राजनीतिक नेतृत्व की कमी और देश से ज्यादा दलीय हितों को महत्व देने वाले राजनीतिक दल।
मरने वाले तो मर गये लेकिन नेता अपनी रोटी सेंक रहे है और अधिकारी अपनी चमडी बचाने में मस्त है। ऐसे में आम जनता की सुरक्षा कैसे हो पायेगी ? ऐसी निकम्मी सरकार हमारी सुरक्षा कैसे कर सकती है ? अब हमें अपनी सुरक्षा खुद ही करनी पडेगी। भारतीय हरदम संघर्ष करता रहा है। इतिहास गवा है, आजादी के लिए संघर्ष, रोटी के लिए संघर्ष, हमारे अधिकारों के लिए संघर्ष और अब हमारी अपनी सुरक्षा के लिए भी हमें ही संघर्ष करना पडेगा। लडना पडेगा।
जय हिंद
पूज्य माँ
11 वर्ष पहले