मुंबई पर हुए आतंकी हमले से अभी देश पूरी तरह उभरा भी नहीं है। ऐसी स्थिति के चलते राजनैतिक तमाशा करने वाले कुछेक राजनेता अपना बनावटी गुस्सा दिखाने में मशगुल हो गये है। लगता है इन सभी की अंतरात्मा अचानक ही जाग गई हो। और इन नेताओं का इस्तीफों का दौर चल रहा है। मनमोहन सरकार द्वारा शिवराज पाटिल को चलता करना और पी. चिदंबरम को गृहमंत्री बनाना वही दूसरी और शरद पवार ने उनकी पार्टी के आर.आर.पाटिल को रवाना कर दिया है और अपने भतीजे अजित पवार को उपमुख्यमंत्री पद पर बिठाने की रणनीति बनाई है। अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख की बलि चढ गई है। देशमुख के स्थान पर किसे रखना है इसका निर्णय मेडम सोनिया तय करे इतनी ही देर है। सुशील कुमार शिंदे और पृथ्वीराज चौहान के नामों की चर्चा चल रही है। इस निर्णय से कोई ज्यादा फर्क पडने वाला नहीं है। यह तो राहु की जगह केतु को बिठाने जैसा हुआ। एक ओर कांग्रेस और मनमोहन सिंह यह अर्थहीन काम कर समय बरबाद करने में व्यस्त है तब भाजपा का ड्रामा शुरु हो गया है। अब जबकि लोकसभा चुनाव सिर पर है तब भाजपा की सोच है कि मनमोहन सरकार आतंकवाद के सामने लडने में पूरी तरह विफल गई है और उसे बैठे बिठाये अच्छा खासा मुद्दा मिल गया है और इस कारण वह पूरे जोश में इस मुद्दे पर कांग्रेस को घेरने में लगी है। भाजपा ने प्रधानमंत्री पद के लिए पहले ही आडवाणी का नाम घोषित किया है इसलिए स्वाभाविक है कि आडवाणी सबसे ज्यादा जोश में है और इस कारण सबसे ज्यादा फूदक रहे है।
आडवाणी को ऐसा लग रहा है मानो उन्हें अभी से ही प्रधानमंत्री पद मिल गया हो। यह बात सही है कि अभी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है और मुंबई में हुए हमले के लिए वह जिम्मेदार है लेकिन भाजपा को और खासकर आडवाणी को आतंकवाद के मुद्दे पर कुछ भी कहने का अधिकार है ? जर्रा सा भी नहीं। आडवाणी और भाजपा के नेतागण आज चाहे इतने फाके मारते हो और मर्दानगी दिखा रहे हो लेकिन वास्तविकता तो यह है कि अभी देश में आतंकवाद के लिए जितनी कांग्रेस सरकार जिम्मेदार है उतनी ही जिम्मेदार मनमोहन सिंह के पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी सरकार भी है और अगर देश में हुए आतंकवाद के लिए हम शिवराज पाटिल को पेट भरकर गालियां दे सकते है तो आडवाणी भी उतने ही नहीं बल्कि उससे भी ज्यादा गालियां खाने के हकदार है क्योंकि शिवराज पाटिल के कार्यकाल के दौरान जितने आतंकवादी हमले हुए उससे भी ज्यादा हमले आडवाणी के गृहमंत्री पद के कार्यकाल के दौरान हुए थे। सबसे ज्यादा शर्मनाक तो यह है कि शिवराज पाटिल ने नैतिकता का नाटक कर गृहमंत्री पद छोड दिया जबकि आडवाणी तो एक के बाद एक हमले होने के बावजूद भी गृहमंत्री पद से चिटके रहे थे। बेशर्मी की हद तो वह थी कि उन्होंने प्रमोशन लिया था और गृहमंत्री में से उपप्रधानमंत्री बन गए थे। आज वही आडवाणी अपनी चतुराई दिखाकर आतंकवाद से लडने की सलाह दे रहे है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आडवाणी किस मुंह से यह बात कह रहे है। ऐसा कहा जाता है कि राजनीतिज्ञों की खाल मोटी होती है और आडवाणी इस बात का सबूत है।
आडवाणी छह साल तक गृहमंत्री पद पर रहे और इस देश के लिए यह समय आतंकवाद से मुकाबला करने में सबसे ज्यादा खराब समय रहा था। इस देश में काश्मीर, पंजाब या उत्तर-पूर्व के राज्यों में आतंकवाद था लेकिन गुजरात, महाराष्ट्र या उत्तर-दक्षिण भारत के राज्यों में आतंकवाद नहीं था। इन क्षेत्रों में आतंकवाद की शुरुआत 1998 में लोकसभा चुनाव से पहले कोयम्बतुर में सिरियल ब्लास्ट से हुई। यह हमला आडवाणी को टारगेट बनाकर किया गया था। इस हमले के बाद तुरंत केन्द्र में भाजपा की सरकार थी और आडवाणी गृहमंत्री थे और वास्तव में आडवाणी को आतंक का दानव उसी वक्त कुचल देना चाहिए था लेकिन आडवाणी ने उस वक्त हिम्मत नहीं दिखाई और उसकी किमत हम सब आज चुका रहे है। 1998 से 2004 के मई तक केन्द्र में भाजपा की सरकार थी और आडवाणी गृहमंत्री थे और इस समय के दौरान देश में आतंकवाद की 36 हजार से ज्यादा वारदातें हुई और 12 हजार से भी ज्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई। इन वारदातों को रोकने में आडवाणी पूरी तरह विफल गए थे।
आडवाणी के कार्यकाल में आतंकवाद की चरमसीमा देखने को मिली थी और इस देश की संसद पर हमला हुआ था, भारतीय सेना का जहा हेडक्वार्टर है उस लाल किले पर हमला हुआ था और बावजूद इसके आडवाणी ने हाथ पर हाथ धरे बैठने के अलावा कुछ भी नहीं किया था। मुंबई के हमले से वह हमला ज्यादा बडा था और वह हमला हमारे स्वाभिमान पर हुआ था। वास्तव में उस वक्त ही आतंकवादियों को पालनेवालों को मुंहतोड जवाब देना चाहिए था उन्हें उनकी नानी याद दिलाने की जरुरत थी। इस काम को अंजाम देने वाले आतंकवादी पाकिस्तानी थे और आईएसआई ने उन्हें भेजा था उसके सबूत मौजूद होने के बावजूद भी आडवाणी या भाजपा सरकार पाकिस्तान पर आक्रमण की बात तो दूर उनकी पूंछ पकडे रहने में मशगुल रही। उनके साथ दोस्ती के ख्वाब देखती रही।
भाजपा के शासनकाल के दौरान इस देश के लोगों का राष्ट्राभिमान चकनाचूर हो जाये ऐसी दो वारदातें भी हुई। 1998 में ही वाजपेयी उपप्रधानमंत्री थे तब पाकिस्तान ने आतंकवादियों के बलबूते पर कारगिल पर कब्जा करने की कोशिश की उस समय काश्मीर के अंदर घुस आए आतंकवादी सही सलामत पाकिस्तान पहुंचे इसकी व्यवस्था वाजपेयी सरकार ने की थी। उस समय इस देश में घुस आए आतंकवादियों की कब्र वही पर बनाने की जरुरत थी लेकिन वाजपेयी ने उन्हें जाने दिया। भारत के पास आतंकवाद से लडने की ताकत नहीं है इसका यह पहला सबूत था। ऐसी दूसरी वारदात कंदहार विमान कांड था। पांच आतंकवादियों ने हमारे विमान का अपहरण किया और प्रवासियों के बदले में तीन खूंखार आतंकवादियों की मांग की तब भी हमने घूटने टेक दिये थे। हमारे देश के विदेश मंत्री बैंडबाजे के साथ खास विमान में इन तीन आतंकवादियों को कंदहार ले गए और उन्हें सौंप कर हमारी इज्जत की धज्जियां उडा आए। उस वक्त भी आडवाणी उपप्रधानमंत्री थे। यह सब देखने के बाद आडवाणी को सोचना चाहिए कि क्या उन्हें आतंकवाद के सामने बोलने का हक है? आडवाणी और उनके जैसे भाजपा के नेता आज आतंकवाद के सामने लडने की बात आती है तब ‘पोटा’ और अन्य कहानियां शुरु कर देते है। भाजपा के छह साल के शासन काल के दौरान पोटा भी था और पावर भी था तब वाजपेयी सरकार आतंकवाद को क्यों रोक नहीं पाई?
आतंकवाद को रोकने के लिए इच्छाशक्ति चाहिए, आक्रमकता चाहिए उसके लिए जरुरी नहीं कि आप किस पार्टी से हो। और यह काम आडवाणी या मनमोहन जैसे नेताओं के बस की बात नहीं है। 1971 में स्व। इन्दिरा गांधी ने अमरिका के पश्चिम के दूसरे देशों की धमकियों को भूल कर पाकिस्तान पर हमला करवाया और एक साथ पाकिस्तान के दो टुकडे कर दिये थे। 1984 में स्व. इन्दिरा ने पलभर में निर्णय लेकर सुवर्ण मंदिर में सेना भेजकर आतंकवादी भिंडरानवाले और उनके साथियों की लाशें बिछा दी थी। मनमोहन उसी कांग्रेस के प्रधानमंत्री है फिर भी वह न पाकिस्तान पर हमला कर सकते है और न ही आतंकवादियों को उनकी नानी याद दिला सकते है क्योंकि उनके अंदर स्व.इन्दिरा जैसी मर्दानगी या जज्बा नहीं है। आडवाणी भी उसी केटेगरी के है। यह उन्होंने 1998 से 2004 के दौरान साबित कर दिखाया है। अफसरशाही से अलग आज तक न कोई मंत्री कुछ सोच पाया है और न सोच पाएगा। असल में देश में मंत्रियों की ऐसी फौज काम कर रही है जो किसी काम की नहीं। न उनमें सूझबूझ है और न ही योग्यता।
आडवाणी को ऐसा लग रहा है मानो उन्हें अभी से ही प्रधानमंत्री पद मिल गया हो। यह बात सही है कि अभी केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है और मुंबई में हुए हमले के लिए वह जिम्मेदार है लेकिन भाजपा को और खासकर आडवाणी को आतंकवाद के मुद्दे पर कुछ भी कहने का अधिकार है ? जर्रा सा भी नहीं। आडवाणी और भाजपा के नेतागण आज चाहे इतने फाके मारते हो और मर्दानगी दिखा रहे हो लेकिन वास्तविकता तो यह है कि अभी देश में आतंकवाद के लिए जितनी कांग्रेस सरकार जिम्मेदार है उतनी ही जिम्मेदार मनमोहन सिंह के पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी सरकार भी है और अगर देश में हुए आतंकवाद के लिए हम शिवराज पाटिल को पेट भरकर गालियां दे सकते है तो आडवाणी भी उतने ही नहीं बल्कि उससे भी ज्यादा गालियां खाने के हकदार है क्योंकि शिवराज पाटिल के कार्यकाल के दौरान जितने आतंकवादी हमले हुए उससे भी ज्यादा हमले आडवाणी के गृहमंत्री पद के कार्यकाल के दौरान हुए थे। सबसे ज्यादा शर्मनाक तो यह है कि शिवराज पाटिल ने नैतिकता का नाटक कर गृहमंत्री पद छोड दिया जबकि आडवाणी तो एक के बाद एक हमले होने के बावजूद भी गृहमंत्री पद से चिटके रहे थे। बेशर्मी की हद तो वह थी कि उन्होंने प्रमोशन लिया था और गृहमंत्री में से उपप्रधानमंत्री बन गए थे। आज वही आडवाणी अपनी चतुराई दिखाकर आतंकवाद से लडने की सलाह दे रहे है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि आडवाणी किस मुंह से यह बात कह रहे है। ऐसा कहा जाता है कि राजनीतिज्ञों की खाल मोटी होती है और आडवाणी इस बात का सबूत है।
आडवाणी छह साल तक गृहमंत्री पद पर रहे और इस देश के लिए यह समय आतंकवाद से मुकाबला करने में सबसे ज्यादा खराब समय रहा था। इस देश में काश्मीर, पंजाब या उत्तर-पूर्व के राज्यों में आतंकवाद था लेकिन गुजरात, महाराष्ट्र या उत्तर-दक्षिण भारत के राज्यों में आतंकवाद नहीं था। इन क्षेत्रों में आतंकवाद की शुरुआत 1998 में लोकसभा चुनाव से पहले कोयम्बतुर में सिरियल ब्लास्ट से हुई। यह हमला आडवाणी को टारगेट बनाकर किया गया था। इस हमले के बाद तुरंत केन्द्र में भाजपा की सरकार थी और आडवाणी गृहमंत्री थे और वास्तव में आडवाणी को आतंक का दानव उसी वक्त कुचल देना चाहिए था लेकिन आडवाणी ने उस वक्त हिम्मत नहीं दिखाई और उसकी किमत हम सब आज चुका रहे है। 1998 से 2004 के मई तक केन्द्र में भाजपा की सरकार थी और आडवाणी गृहमंत्री थे और इस समय के दौरान देश में आतंकवाद की 36 हजार से ज्यादा वारदातें हुई और 12 हजार से भी ज्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई। इन वारदातों को रोकने में आडवाणी पूरी तरह विफल गए थे।
आडवाणी के कार्यकाल में आतंकवाद की चरमसीमा देखने को मिली थी और इस देश की संसद पर हमला हुआ था, भारतीय सेना का जहा हेडक्वार्टर है उस लाल किले पर हमला हुआ था और बावजूद इसके आडवाणी ने हाथ पर हाथ धरे बैठने के अलावा कुछ भी नहीं किया था। मुंबई के हमले से वह हमला ज्यादा बडा था और वह हमला हमारे स्वाभिमान पर हुआ था। वास्तव में उस वक्त ही आतंकवादियों को पालनेवालों को मुंहतोड जवाब देना चाहिए था उन्हें उनकी नानी याद दिलाने की जरुरत थी। इस काम को अंजाम देने वाले आतंकवादी पाकिस्तानी थे और आईएसआई ने उन्हें भेजा था उसके सबूत मौजूद होने के बावजूद भी आडवाणी या भाजपा सरकार पाकिस्तान पर आक्रमण की बात तो दूर उनकी पूंछ पकडे रहने में मशगुल रही। उनके साथ दोस्ती के ख्वाब देखती रही।
भाजपा के शासनकाल के दौरान इस देश के लोगों का राष्ट्राभिमान चकनाचूर हो जाये ऐसी दो वारदातें भी हुई। 1998 में ही वाजपेयी उपप्रधानमंत्री थे तब पाकिस्तान ने आतंकवादियों के बलबूते पर कारगिल पर कब्जा करने की कोशिश की उस समय काश्मीर के अंदर घुस आए आतंकवादी सही सलामत पाकिस्तान पहुंचे इसकी व्यवस्था वाजपेयी सरकार ने की थी। उस समय इस देश में घुस आए आतंकवादियों की कब्र वही पर बनाने की जरुरत थी लेकिन वाजपेयी ने उन्हें जाने दिया। भारत के पास आतंकवाद से लडने की ताकत नहीं है इसका यह पहला सबूत था। ऐसी दूसरी वारदात कंदहार विमान कांड था। पांच आतंकवादियों ने हमारे विमान का अपहरण किया और प्रवासियों के बदले में तीन खूंखार आतंकवादियों की मांग की तब भी हमने घूटने टेक दिये थे। हमारे देश के विदेश मंत्री बैंडबाजे के साथ खास विमान में इन तीन आतंकवादियों को कंदहार ले गए और उन्हें सौंप कर हमारी इज्जत की धज्जियां उडा आए। उस वक्त भी आडवाणी उपप्रधानमंत्री थे। यह सब देखने के बाद आडवाणी को सोचना चाहिए कि क्या उन्हें आतंकवाद के सामने बोलने का हक है? आडवाणी और उनके जैसे भाजपा के नेता आज आतंकवाद के सामने लडने की बात आती है तब ‘पोटा’ और अन्य कहानियां शुरु कर देते है। भाजपा के छह साल के शासन काल के दौरान पोटा भी था और पावर भी था तब वाजपेयी सरकार आतंकवाद को क्यों रोक नहीं पाई?
आतंकवाद को रोकने के लिए इच्छाशक्ति चाहिए, आक्रमकता चाहिए उसके लिए जरुरी नहीं कि आप किस पार्टी से हो। और यह काम आडवाणी या मनमोहन जैसे नेताओं के बस की बात नहीं है। 1971 में स्व। इन्दिरा गांधी ने अमरिका के पश्चिम के दूसरे देशों की धमकियों को भूल कर पाकिस्तान पर हमला करवाया और एक साथ पाकिस्तान के दो टुकडे कर दिये थे। 1984 में स्व. इन्दिरा ने पलभर में निर्णय लेकर सुवर्ण मंदिर में सेना भेजकर आतंकवादी भिंडरानवाले और उनके साथियों की लाशें बिछा दी थी। मनमोहन उसी कांग्रेस के प्रधानमंत्री है फिर भी वह न पाकिस्तान पर हमला कर सकते है और न ही आतंकवादियों को उनकी नानी याद दिला सकते है क्योंकि उनके अंदर स्व.इन्दिरा जैसी मर्दानगी या जज्बा नहीं है। आडवाणी भी उसी केटेगरी के है। यह उन्होंने 1998 से 2004 के दौरान साबित कर दिखाया है। अफसरशाही से अलग आज तक न कोई मंत्री कुछ सोच पाया है और न सोच पाएगा। असल में देश में मंत्रियों की ऐसी फौज काम कर रही है जो किसी काम की नहीं। न उनमें सूझबूझ है और न ही योग्यता।
आतंक के आगे हिंदुस्तान कभी हारेगा नहीं
सत्य जीतता रहेगा सत्ता हारती रहेगी
जय हिंद
जय हिंद
2 टिप्पणियां:
आप जैसे दिसाहीन पत्रकार लोगों की टेढी़ बातें
मेरी समझ में नहीं आती।आप न इधर की बात
करते हैं न उधर की बीच वाले कैटेगरी की
बात करते हैं।लोकसभा चुनाव के लिये सिर्फ
भाजपा या काग्रेंस दो ही पार्टीया हैं जो सरकार
बना सकती है।अब बीच वाले लोगों की पार्टी
हो तो बता दें।लम्बी-लम्बी बातें करके आप
भ्रमित ही करते हैं।कोइ रास्ता नहीं दिखाते।
मेरा मानना है आतंकवाद के सामने काग्रेस
मौगी साबित हुई है।उसे कोई हक नहीं है
सरकार बनाने का।
आपका चिंतन बेहद सटीक है बहुत सुंदर ..
एक टिप्पणी भेजें