गुरुवार को झारखंड के मुख्यमंत्री और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के उम्मीदवार शिबू सोरेन तमाड विधानसभा उपचुनाव में झारखंड पार्टी के राजा पीटर से ९०६२ मतों से पराजित हो गए।
सोरेन के भाग्य ने फिर एक बार उनका साथ छोड दिया। इन उपचुनाव के परिणाम से सोरेन के अलावा अन्य राजनीतिज्ञों को जबरदस्त झटका जरुर लगा है। हमारे यहां सामान्य तौर पर उपचुनाव में कोई मुख्यमंत्री हार जायें ऐसा नहीं होता। क्योंकि सोरेन खुद झारखंड के मुख्यमंत्री थे। उनका अपना दबदबा था। ऐसे उपचुनाव में खासतौर पर ऐसे ही मुख्यमंत्री मैदान में उतरते है जिन्हें छह महिने में अनिवार्य विधानसभा में चुनकर आना हो।
छह महिने तक आपने जो काम किया हो उसका प्रभाव खडा होता हो... पूरी सरकारी मशीनरी आपके साथ खडी हो... ऐसे हालात में आपकी जीत पक्की ही होती है लेकिन... आप हार जाओ तो इससे बडी लाचारी ओर कोई नहीं।
सोरेन देश के चुनावी इतिहास में दूसरे मुख्यमंत्री है जो उपचुनाव में पराजित हुए है। इससे पहले १९७१ में उत्तर प्रदेश में त्रिभुवन नारायण सिंह इसी तरह उपचुनाव में पराजित हो गये थे और इस तरह २८ साल बाद उस इतिहास का पुनरावर्तन हुआ है।
खैर, जो हुआ अच्छा ही हुआ। सोरेन को इस पराजय के कारण आघात लगना स्वाभाविक है और दूसरे राजनीतिज्ञों को भी। लेकिन सोरेन जैसे लोग इस तरह दूर होते हो तो यह इस देश की राजनीति के लिए अच्छा ही है। चलिए, सोरेन के सत्ता की सीढियों के बारे में कुछ जानें।
सोरेन के राजनीतिक उतार-चढाव कुछ इस प्रकार है :-
सोरेन के भाग्य में सत्ता सुख ज्यादा समय तक टिकता ही नही है। सोरेन को जब-जब सत्ता मिली तब-तब कोई ना कोई झमेला खडा हो जाता है और उन्हें अपनी गद्दी छोडनी पडती है। चूंकि, सोरेन फिर से सत्ता पा भी लेते है। सोरेन के सत्ता पाने और छोडने के इतिहास पर गौर फरमाइयें।
सोरेन पहली बार केन्द्र में मई, २००४ में मंत्री बने थे और मनमोहनसिंह सरकार में उन्हें कोयला मंत्रालय दिया गया था लेकिन १९७५ में चिरुदीह में लगाई गई आग के केस में उनके सामने वारंट जारी हुआ जिसके चलते दो महिने बाद यानि कि, २४ जुलाई को उन्हें इस्तीफा दे देना पडा था।
चिरुदीह केस में उन्हें जमानत मिलने के बाद नवम्बर २००४ में फिर से केन्द्र में शामिल किया गया। कांग्रेस ने झारखंड में विधानसभा के चुनाव के लिए JMM के साथ हुए समझौते के भागरुप सोरेन को केबिनेट में शामिल किया था। चार महिने बाद मार्च २००५ को सोरेन की पार्टी को झारखंड में सरकार बनाने का निमंत्रण मिलते ही उन्होंने फिर से केन्द्रीय केबिनेट में से इस्तीफा दे दिया था।
सोरेन २ मार्च २००५ को झारखंड के मुख्यमंत्री बने लेकिन विधानसभा में विश्वास मत हासिल नहीं कर सके जिसके कारण उन्हें ९ दिन बाद यानि कि ११ मार्च को इस्तीफा दे देना पडा था।
अप्रैल २००५ में सोरेन को मनमोहन सिंह सरकार में शामिल किया गया था और इस बार उन्होंने एक साल पूरा किया था। जबकि नवम्बर २००६ में अपने निजी सचिव शशिनाथ झा के हत्या के केस में कोर्ट ने सोरेन को उम्रकैद की सजा सुनाई जिसके चलते सोरेन को फिर से इस्तीफा देना पडा था।
सोरेन के लिए फिर से केन्द्र में मंत्रीपद पाने का मौका २००८ में मनमोहन सिंह सरकार को विश्वास मत हासिल करना था तब मिला लेकिन उस वक्त उन्होंने केन्द्रीय केबिनेट में मंत्रीपद हासिल करने के बजाय झारखंड के मुख्यमंत्री पद के लिए सौदेबाजी की। सोरेन के मन में मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा इतना जोर मारने लगी थी कि उन्होंने यूपीए का समर्थन करने के बदले में मुख्यमंत्री की कुर्सी मांग ली और अगस्त २००८ में वे झारखंड के मुख्यमंत्री भी बन गये।
सोरेन का इतिहास कलंकित है। उनके जैसे लोग इस देश के लिए बोझ है। सोरेन हजारीबाग जिले के आदिवासी है और उनकी कोम में उन्हें गुरुजी की ख्याति मिली है। लेकिन उनके अंदर गुरुजी जैसे एक भी लक्षण दिखाई नहीं देते। सोरेन पर १९७५ में पडोस के गांव में गुट के साथ घुसकर ९ मुसलमानों को जलाकर मौत के घाट उतारने का आरोप था और इस केस में उनके सामने वारंट भी जारी हुआ था लेकिन उनकी ताकत ने (मेरा मतलब समझ गये ना!) इस केस को निपटा लिया। इसके अलावा उन पर बलात्कार से लेकर हुल्लड तक के कुछेक केस दर्ज है। १९९३ में नरसिंहराव सरकार को विश्वास मत हासिल करना था तब सोरेन ने नोटों की थेलियों के बदले में नरसिंहराव सरकार के समर्थन में वोट देकर संसद को बाजार में बदल दिया था। इस मामले उनके निजी सचिव शशिनाथ झा ने उन्हें ब्लेकमेल करना शुरु किया उसके बाद सोरेन ने ‘झा’ नामक कांटा हमेशा के लिए दूर कर दिया। इस केस में सोरेन को उम्रकैद की सजा भी हुई थी लेकिन वे हाइकोर्ट में बाइजत बरी हो गये। ऐसा महान भूतकाल और वर्तमान जिस शख्स का है वह किसी राज्य का मुख्यमंत्री बने यह घटना ही शर्मनाक है लेकिन हमारे देश में ऐसे वाक्यें कोई नई बात नहीं रही। सोरेन जैसे गुन्हेगारों को गोद में बिठाने में हमें जर्रा सी भी हिचक महसूस नहीं होती। कल भी ऐसे ही लोग सत्ता के सिंहासन पर बैठते रहेंगे।
सोरेन की हार इस देश के राजनीतिज्ञों के लिए एक सबक है। सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री पद पर बैठे उसके पीछे कांग्रेस के साथ उनकी सौदेबाजी जिम्मेवार थी।
झारखंड में आठ साल में छह मुख्यमंत्री बनें, जिससे वहां की राजनीतिक अस्थिरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। देश को सत्ता लोलुप राननेताओं का बंधक बनने से रोकना होगा। इसके लिए पहल भी जनता को ही करनी होगी। झारखंड की जीत जनता की जीत है, वक्त आ गया है जनता के बोलने का.... जनता बोलेगी जरुर बोलेगी..... लेकिन एक सवाल मेरे मन को कोरे जा रहा है कि, आज चाहें हम सोरेन की हार पर इतना इतरा रहे हो लेकिन सवाल यह है कि यह कितने दिन! सोरेन को राजनीति की दुकान अच्छी तरह चलाना आता है। सोरेन पिछले पांच साल में पांच बार सत्ता में आये और गये। हर बार हारने के बाद वे फिर से सत्ता में वापिस लौटे है उसे देखते हुए मुझे शंका भी है और डर भी कि यह शख्स फिर से ना लौट आयें। मैं चाहुंगी कि मेरी यह सोच गलत साबित हो।
जय हिंद
पूज्य माँ
11 वर्ष पहले
2 टिप्पणियां:
इस देश के मिडिया वाले गलत जगह पर सही 'जुमला' उछालने के आदी हो गये हैं। वास्तव में सोरेन की हार को 'लोकतन्त्र' की जीत कहा जाना चाहिये था। मैने कहीं से ऐसी आवाज आते नही सुना।
जिस दिन बड़े-बड़े घाघ नेता हराये जांयेगे, उस दिन भारत का लोकतन्त्र जीतेगा। जिस दिन देश से वंशवाद की बू समाप्त हो जायेगी, उस दिन लोकतन्त्र जीतेगा। जिस दिन नेताओं के चमचों को लोग जूते मारना शुरू कर देंगे, उस दिन लोकतन्त्र जीतेगा।
you really write very sharp and truth i am very much fan of you. you are my chosen blogger .. becuase you write the things very sharp and truth
एक टिप्पणी भेजें