बुधवार, 17 सितंबर 2008

बिना नाक वाले पाटिल


गलियां जहां विरान और मोहल्ला है सुनसान
जिन्दा इंसानों की बस्तियां बन गई शमशान

कहीं आंख में नमीं थी, कहीं अश्क बही थी
हूकुमत के आगे आज आम इंसान परेशान

शैतानी बस्तियों से आया था कोई हैवान
भारत की रानी हो गई फिर से लहूलुहान

भोर में ना कोई शंख बजा ना शाम को आजान
लहू बहा जिन धर्मों का रंग था उनका एक समान

देश ने हाल के वर्षों में सिलसिलेवार बम धमाके झेले हैं। जयपुर, बंगलुरु, अहमदाबाद और अब दिल्ली। आतंकवादी हमलों के मद्देनजर सरकार की ओर से कोई मुक्कमल तैयारी नहीं दिख रही जो लगातार हो रहे धमाकों से पता चलता है। पांच दिन बीतने के बावजूद अब तक कोई सुराग नहीं मिल पाया है। सियासत कमान्डो के बीच सुरक्षित है, आम आदमी के जान की किसी को कोई परवाह नहीं है। मैं पूछती हूं कि क्या आम आदमी का लहू इतना सस्ता है? अभी जो तमाशा हो रहा है और जांच का नाटक खेला जा रहा है कुछ दिन बाद सब भुला दिया जायेगा। और इस आंतरिक सुरक्षा की नाकामी को देखते हुए पाटिल पर निशाना लाजिमी है। जिसे सरकार ने गंभीरता से लिया। बम ब्लास्ट गंभीर समस्या है। ऐसे गंभीर मसले पर चर्चा में पाटिल को शामिल नहीं किया गया। यही नहीं, उस बैठक में कई मंत्रियों ने उनकी कार्यशैली पर नाखुशी जताई। इससे पहले भी लालू यादव उनकी शिकायत सोनिया गांधी से कर चुके हैं। आतंकवाद के प्रति इस सुस्त नजरिये का संप्रग को अगले चुनाव में खामियाजा भुगतना पड सकता है। लिहाजा सत्ता के गलियारे में पाटिल की विदाई के कयास लगाए जा रहे हैं। इससे बडा अपमान क्या हो सकता है ! इनकी जगह कोई ओर होता तो कब का इस्तीफा दे चुका होता। लेकिन बिना नाक वाले पाटिल को कोई फर्क नहीं पडता। इन्हें तो चुल्लु भर पानी में डूब मरना चाहिए। इन्हें मान-अपमान की जरा सी भी परवाह नहीं है। कांग्रेस अगर वास्तव में पाटिल को गृहमंत्री पद से हटाना चाहती है तो यह इस देश पर बहुत बडा उपकार होगा।
शिवराज पाटिल एक असफल गृहमंत्री है। 2004 में इनके गृहमंत्री बनने के बाद ही देश में सबसे अधिक आतंकवादी हमले हुए है। 2004 से लेकर अब तक 12 जितने आतंकवादी हमले हुए है जबकि छोटे आतंकवादी हमलों की तो कोई गिनती ही नहीं हो सकती। शिवराज पाटिल के कार्यकाल से आतंकवाद देश के कोने-कोने में पहुंच गया। उनके कार्यकाल के दौरान हुए बडे हमलों पर गौर करें तो पता चलता है कि देश का एक भी बडा शहर आतंकवादी हमले से अछूता नहीं रहा। पाटिल मंत्रालय की सबसे बडी असफलता यह है कि सुरक्षा एजेंसी पूरी तरह विफल गई और एक भी हमले की इन सुरक्षा एजेंसियों को कानो-कान खबर नहीं हुई। इससे भी बडी असफलता तो यह है कि, अब तक उन जिम्मेदार लोगों को ढूंढने में वे सफल नहीं हो पाये। संसद पर 2001 में हुए हमले के केस में जिसे फांसी की सजा हुई है उस अफजल गुरु को फांसी देने में जो विलंब हो रहा है उसका जिम्मेदार भी पाटिल मंत्रालय ही है। डॉ. कलाम ने अफजल के फांसी की फाइल को 2003 में ही गृह मंत्रालय को भेज दिया था लेकिन उस फाइल को दबा दिया गया है जिसके जिम्मेदार पाटिल ही है।
सवाल केवल उनकी अकर्मण्यता का नहीं है। उनके ड्रेस सेंस का जो विवरण है वह बेहद चौंकाने वाला है। शनिवार को विस्फोट से पहले कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में वह गुलाबी सूट में थे, विस्फोट के बाद मीडिया को संबोधित करते हुए काले सूट में, और रात में घायलों को देखने जाते समय झक सफेद सूट में। नफासत बुरी चीज नहीं है, लेकिन त्रासवादियों के बीच यह आपकी संवेदनहीनता का भी सूचक है। जिस पर गृह सचिव यह कहकर जले में नमक छिडक रहे हैं कि हर हमले के बाद अनुभव बढता है। क्या आतंकवाद कोई प्रयोगशाला है, जिसमें हर हमले से सरकार सीख रही हैं? अपनी छवि की खास परवाह करने वाले गृहमंत्री अगर आतंकवाद को निर्मूल करने के बारे में भी सोचते, तो आज उनकी इतनी किरकिरी नहीं हो रही होती। अपने लिबास की उन्हें जितनी चिंता है, देश की सुरक्षा व्यवस्था की उतनी क्यों नहीं? यह हमारी सुरक्षा क्या खाक करेंगे। जिसकी किमत जनता अपनी जान गंवाकर चुका रही है।
पाटिल की असफलताओं का ग्राफ बहुत बडा है लेकिन दिल्ली ब्लास्ट के बाद वे सबके आंख में किरकिरी बन गए है। कांग्रेस में ही उन्हें हटाने के लिए माहौल बना हुआ है जिसके चलते यह फैसला जल्द से जल्द हो जाना चाहिए और इन्हें घर रवाना कर देना चाहिए। ऐसे गृहमंत्री की देश को कोई जरूरत नहीं है।
हमारे देश का गृहमंत्री कैसा होना चाहिए? जिसमें एक आग हो। जो ईंट का जवाब पत्थर से देना जानता हो। पाटिल जैसा गृहमंत्री बिलकुल नहीं चलेगा। फीके-फीके मनमोहन सिंह को कडा रवैया अपनाना चाहिए। ऐसे गृहमंत्री को लात मार कर भगा देना चाहिए।
इस देश की राजनीति के आगे मेरी बौनी सी कलम कुछ भी नहीं है, लेकिन ये तो वक्त ही बतलायेगा कि किसकी चोट ज्यादा है और किसकी कम है। ये राजनेताओं के छिपे खेल तो दब जायेंगे लेकिन मेरी कलम में अंगारों से भरी स्याही कभी नहीं सुखेगी।
देश के सियासत में ऊंचे तख्त पर भेडिये ही भेडिये बिराजमान है। बात पगडी और टोपी की है। मेरी बोली कडवी जरुर है लेकिन यह समय की जरूरत है। राष्ट्र प्रेम और राष्ट्रद्रोह की जंग जारी है। ये तो वक्त ही बतलायेगा कि किसको विजय मिलेगी।
न दोष किसी के देखो, न पोल किसी का खोलो...
स्वतंत्र के देश के नौजवानों, गांधी जी की जय बोलो...

जय हिंद

सोमवार, 8 सितंबर 2008

बिहार बाढ राहत पर राजनीति

आप सब सोच रहे होंगे कि, क्या बाढ पर राजनीति हो सकती है? जी हां, बिलकुल हो सकती है। हमारे देश का उसूल है, यहां सभी प्रकार की समस्याओं पर राजनीति की रोटी सेंकी जाती है। तो फिर हमारे माननीय नेतागण भला इस बाढ को कैसे छोड देते।
हम सब पिछले 21 दिन से पानी में डूबे गांव, खेत, रास्ते, घर और खाने पर टूटकर पडते अवश लोगों के समूह और पानी में खोए अपनों को तलाशती लगभग भरी हुई हजारों जोडी आंखों को लगातार देख रहे है। बिहार में हर बार बाढ आता है लेकिन इस बार की बाढ को राजनेता कैटरिना और सुनामी जैसा खतरनाक बता रहे है। हर बार की बाढ जीवन को सालों पीछे धकेल देती है।
वर्ष 1945 में कोसी योजना के तहत कोसी पर नेपाल से लेकर बिहार में गंगा के संगम तक दोनों किनारों पर 10 किलोमीटर लंबे तटबंध का प्रस्ताव बना था। पर यह तब तक फायदेमंद नहीं हो सकता था, जब तक नेपाल के बाराह इलाके में बांध नहीं बनाया जाता। तत्कालीन वायसराय लार्ड वेवल ने टेनेंसी वैली परियोजना की तर्ज पर काम शुरु करवाया, पर वह काम बिना कारण बताए बंद कर दिया गया। तब से आज तक बिहार की नदियों पर बने 3,454 किलोमीटर लंबे तटबंध टूटकर या लोगों द्वारा काटने से विनाश की कहानियां रच रहे हैं। हर साल यहां का 76 फीसदी इलाका बाढ में डूब जाता है, जो देश की कुल बाढ प्रभावित आबादी का 56 फीसदी है। इस समय अकेले उत्तर बिहार में 2,952 किलोमीटर लंबे तटबंध हैं, जिनके निर्माण में खरबों रुपये लगे हैं। लेकिन ये बाढ से बचाव के बजाय बाढ की विभीषिका के पर्याय बने हुए हैं। कोसी नदी के आसपास के लगभग 10 जिलों के 387 गांव इस बाढ की भेंट चढ चुके है।
वर्ष 1956 में नेपाल सरकार द्वारा भारत की सरहद पर विराट बांध बांधकर कोसी नदी के पानी को रोकने की कोशिश की गई थी। नेतागण का मानना था कि बांध बांधने से बाढ का पानी ज्यादा नहीं आ पायेगा। लेकिन अब उनकी समझ में आ जाना चाहिए कि इस तबाही का कारण ही बांध है। कोसी नदी ने भारत-नेपाल सीमा पर बने कुशहा बांध को तोड दिया और 200 वर्ष पुराने रास्ते पर फिर से बह चली। इस नदी को बिहार का शोक कहते है लेकिन कोसी किनारे के लोग इससे पूरी तरह सहमत नहीं। वे नदी और बाढ के साथ जीना सीख गए थे, पर विकासवादियों ने बाढ सहजीविता की उनकी कला ही नष्ट कर दी। नदी किनारे बसने वाला यह पानीदार समाज अब असहाय है। बाढ के साथ जीने वाले बांधों में कैद नदी की विभीषिका का अनुमान नहीं लगा पा रहे। वे असहाय बना दिए गए हैं। आज तैरने वाला समाज डूब रहा है।
तटबंधों की लंबाई, चौडाई और मोटाई से बाढ नहीं रुकती। बाढ अतिथि नहीं है, इसके आने की तिथियां बिलकुल तय है। लेकिन हमने विकास की पीठ पर सवारी करते-करते इस चेतावनी पर ध्यान ही नहीं दिया। पक्षों की बात को बाजु में रख शासक और तंत्र को सोचना चाहिए कि असली प्रगति और विकास किसे कहेंगे? अब जो बचा है उसे ही आगे बढाये यही काफी है। यह भी सही है कि रातोरात महल नहीं बन सकता। कछुए की तरह विकास होगा तो भी यह हमारे लिए कम नहीं।
बाढ से करीब 40 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित है। करीब 20 लाख लोग गायब भी बताए जा रहे है। ढाई लाख एकड कृषि भूमि का नुकसान हुआ है। राहत कैंपों की हालत खराब है। लोग वहां पत्ते खाकर किसी तरह जिंदा है। जहरीले जानवरों का डर अलग से है। उन्हें तत्काल भोजन, सिर छिपाने की जगह, दवा, पानी, कपडे, टेन्ट, चारपाई, केरोसिन, टॉर्च, दियासलाई आदि चाहिए। लोगों की आजीविका के मुख्य साधन पालतू और दूध देनेवाले पशु बाढ में बह गए है। गांव तो गांव छोटे-छोटे नगरों का कोई पता नहीं। बिहार में लगभग हरेक वर्ष खेती की दस लाख हेक्टेयर जमीन बाढ के पानी में तबाह होती है। करीब 2.5 करोड आबादी प्रत्येक वर्ष यह त्रासदी झेलती है। बडे पैमाने पर लोगों के विस्थापित होने, गर्म जलवायु और साफ-सफाई के अभाव सहित अन्य कारणों के चलते जलजनित रोगों के फैलने का खतरा बना हुआ है।
प्रधानमंत्री के हवाई दौरे ने एक अरब की सहायता राशि देकर इस बाढ को राष्ट्रीय आपदा घोषित कर दिया है। सरकारी कर्मकांड की लगभग सभी मुख्य रस्में पूरी कर दी गई। गले तक बाढ के पानी में डूबे लोग बेबस-बेकस हैं, लेकिन वे किसी भ्रम में नहीं हैं। उन्हें मालूम है कि सरकारी सहायता, राहत कार्य, राष्ट्रीय आपदा घोषणा आदि का मतलब क्या होता है। सभी जानते है। वर्ष 2002 में बाढ प्रभावित दरभंगा जिले के 18 प्रखंडों में सरकारी राहत महज 5.49 प्रतिशत लोगों तक ही पहुंच पाया था। इस बार एक अरब रुपये की सहायता और राष्ट्रीय आपदा का दरजा मिलने के बाद देखना है कि वहां राहत और बचाव कार्य कितना हो पाता है। राहत की घोषणा तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी की है। पर बिहार का सरकारी और गैर सरकारी तंत्र इस सहायता का लाभ प्रभावितों तक सचमुच पहुंचा पाएगा, इसका भरोसा बिहार के लोगों भी नहीं है। बिहार का आपदा प्रबंधन विभाग खुद ही लकवाग्रस्त है। वहां की सरकार भी खास कुशल नहीं रही। केन्द्र सरकार, राज्य सरकारें और स्वैच्छिक संस्थाएं काम पर लग गई है। लेकिन सवाल यह है कि 40 लाख से ज्यादा बाढ प्रभावित रहेंगे कहां? खाने-पीने के अलावा उनके बैठने-उठने की जगह भी ढूंढनी पडेगी। बस स्टेशन और रेलवे स्टेशन पर पहुंचने के बाद उन्हें खाने-पीने की सामग्री तो मिल रही है, लेकिन ऐसी जगह ये लाखों लोग एक साथ कैसे रह सकते है? वहां प्रभावित लोगों को पलायन होने से रोकना सबसे बडा पुण्य होगा। क्योंकि, इससे दूसरे राज्यों में हालात बेकाबू हो सकते हैं। इसलिए किसी एक को नहीं, एक अरब लोगों को मिलकर मदद करनी चाहिए।
अब मुख्य विषय पर आते है कि इस बाढ से राजनीति का क्या लेना-देना। इसे भारत का दुर्भाग्य कहा जा सकता है कि, देश में जब कभी कुदरती या मानवसर्जित आपदा आती है तब देश के माननीय नेतागण को राजनैतिक खिचडी पकाने का मौका मिल जाता है। एक-दूसरे पर कीचड उछालना... झूठ बोलना... इनकी रोजमर्रा की आदत में शुमार है। सभी पक्ष-प्रतिपक्ष एक दूसरे को बढ-चढ कर आगे लाने में जुट जाते है। अभी इस बात का मुख्य विषय से कोई लेना-देना नहीं लेकिन सिर्फ इतना ही कहूंगी कि ये लोग तो पराये देश में भी हमारे देश को नीचा दिखाने में पीछे नहीं हटते। सभी इस प्रलंयकारी बाढ प्रभावितों की राहत में जुटे हुए है और अपना-अपना सिक्का जमाने में लगे हुए है। लेकिन इसमें सबसे दिलचस्प और शर्मनाक किस्सा गुजरात राज्य का है। बताया जाता है कि गुजरात भाजपा अहमदाबाद सिरियल ब्लास्ट में मारे गए 55 लोगों के परिजनों को फूटी कोडी सहाय नहीं दे सकी और अब बिहार के बाढ प्रभावितों की मदद के लिए बढ-चढ कर उत्साह से काम पर लग गई है। लेकिन इनका तरीका बडा ही शर्मसार करने वाला है।
सिरियल ब्लास्ट में जो 55 लोग मारे गए उन्हें राज्य सरकार द्वारा प्रत्येक परिवार को पांच-पांच लाख सहाय देने की घोषणा हुई थी। विपक्ष कांग्रेस ने प्रत्येक मृतकों के परिवार को एक-एक लाख दिए हैं। कांग्रेस ने मृतकों के परिवार के लिए घोषणा की तब भाजपा नेताओं को पूछा गया कि, भाजपा इन मृतकों के परिवार को कांग्रेस की तरह कोई सहाय देना चाहती है या नहीं? ऐसा पूछने पर उनका जवाब था कि, "हमारी सरकार ने रुपये दिए तो है। हम दें या हमारी सरकार दें बात तो एक ही है।" भाजपा के यह नेता भूल गए कि सरकार के रुपये भाजपा के नहीं है लेकिन जनता के पसीने की कमाई है। अहमदाबाद सिरियल ब्लास्ट के मृतकों के परिवार को एक रुपये की भी सहायता नहीं देने वाली भाजपा ने बिहार के बाढ प्रभावितों के लिए लोगों के पास जाकर पुराने कपडे नहीं लेकिन... नई साडियां, धोतियां, कंबल, गद्दीयां, बरतन इकठ्ठा करने के लिए अपने कार्यकर्ताओं को सूचना दी है। बताया जाता है कि भाजपा लोगों से यह राहत सामग्री इकठ्ठा कर कीट बना उस पर अपना सिक्का लगाकर बिहार भेजेगी तब सहाय लेने वाली बिहार की जनता भाजपा के गुणगान गायेगी या गुजरात की जनता की? अनाम बनकर वहां बिना किसी प्रचार और दुंदभि के मदद करनी चाहिए कि लोग भूल जायें कि वहां बाढ आई थी। राहत पर राजनीति बाद में कर लीजिएगा। पहले इन चुनौतियों से तो निपटो। बहरहाल, सरकार क्या कर रही है, यह सवाल बेमानी है। हम क्या कर रहे हैं, यह सवाल मौजू है। लिहाजा, मानकर चलें कि बाढ हमारे अपने किसी के घर से होकर गुजरी है।
जय हिंद

बुधवार, 3 सितंबर 2008

BMW केस : भारत के न्यायतंत्र में देर सही पर अंधेर नहीं

बात है दिल्ली के BMW केस यानि, भारतीय नौकादल के भूतपूर्व प्रमुख ए एस एम नंदा के नाती संजीव नंदा की। संजीव नंदा 10 जनवरी 1999 को गुडगांव से अपने दोस्त मानेक कपूर के साथ पार्टी में से अपनी बहन की BMW कार में वापिस आ रहा था तब लोधी चेक पॉइन्ट पर पुलिस ने उसे कार रोकने को कहा लेकिन नशे में धूत संजीव नंदा ने कार को रोकने के बजाय पुलिस अधिकारियों पर कार चढा दी।
इस वारदात में चार कॉन्स्टेबल घटनास्थल पर ही मारे गए थे जबकि, दो ने अस्पताल में दम तोड दिया था। मनोज नामक एक युवक गंभीर रूप से घायल हुआ था। संजीव दुर्घटना के बाद कार रोककर नीचे उतरा था लेकिन मानेक के कहने पर वापिस कार में बैठ गया था और कार भगाकर उसके दोस्त सिध्धार्थ गुप्ता के घर पहुंचा था जहां कार की साफ-सफाई कर दी गई थी।
जबकि, घटनास्थल पर मिले कार के नंबर प्लेट के आधार पर संजीव ने दुर्घटना किए होने का रहस्य खुला था। सुनील कुलकर्णी नामक मुंबई के एक व्यापारी ने इस वारदात को अपनी आंखों से देखा था। बयान में उसने कहा था कि, उसने संजीव नंदा को कार चढाते हुए देखा है। जबकि, मनोज नामक युवक जो इस हादसे में बच गया था उसने अपने बयान में कहा कि, वह शायद ट्रक से घायल हुआ है। बयान देने के पश्चात मनोज रहस्यमय रूप से गायब हो गया था।
संजीव नंदा की इस केस में गिरफ्तारी हुई थी लेकिन बाद में इस रईसजादे को 15 करोड के जमानत पर छोड दिया गया था। इसके बाद संजीव नंदा भारत छोडकर फरार हो गया था। जबकि, GNFC बराक मिसाइल सौदे के केस में वह मार्च 2008 से जेल में है। 2007 में इस केस में दिल्ली की एक कोर्ट ने संजीव सहित तमाम सहयोगियों को सुबूत के अभाव में निर्दोष बरी कर दिया था।
अब बात करते है कि यह केस इतने सालों बाद किन कारणों से चर्चा में आया है। तो इसकी वजह है संजीव नंदा और उसके सहयोगी जो निर्दोष बरी हो गये थे वे किस तरह बरी हुए.... इसके पीछे क्या माजरा था। संजीव नंदा बडे बाप की बिगडी हुई औलाद है। और जैसे फिल्मों में हमें देखने को मिलता है उसी तरह इस बिगडी हुई औलाद को बचाने के लिए उसके बाप ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी।
आर.के.आनंद की गिनती देश के जाने-माने वकीलों में होती है और संजीव के बाप ने अपने रईसजादे को बचाने के लिए आनंद को केस सौंपा था। आनंद ने बाकी सारे प्यादों को ठीक से जमा लिया था लेकिन एक रास्ते का रौडा था सुनिल कुलकर्णी। संजीव ने अपनी कार के नीचे जिन सात लोगों को कुचला था उसे सुनिल ने अपनी आंखों से देखा था और दूसरे गवाह बयान से मुकर गये थे तब भी सुनिल अपने बयान पर अडिग था। सवाल था कि अब सुनिल का क्या किया जाए। इस केस में पब्लिक प्रोसिक्यूटर के तौर पर आई.यु.खान नामक वकील थे और खान की आनंद के साथ पुरानी और अच्छी दोस्ती थी। इस केस में भी खान ने आनंद को तन, मन, धन से मदद की थी। आखिरकार, सुनिल को मनाने के लिए खान को मैदान में उतारना पडा। खान ने सुनिल को पैसों का ऑफर दिया। सुनिल ने ढाई करोड मांगे और फिर थोडी माथापच्ची हुई। जबकि,खान और आनंद को पता नहीं था कि, सुनिल उन्हें मामू बना रहा है और एक टीवी चैनल उनकी फिल्म उतार रही है। इस पूरे सौदेबाजी की फिल्म उतारी गई और बाद में चैनल ने आनंद और खान का भंडा फोड दिया। और पूरा स्टिंग ऑपरेशन दुनिया को दिखा दिया। एक अपराधी के वकील से मिलकर एक सरकारी वकील कैसे-कैसे कारनामों को अंजाम देता है उसे देख लोगों के दांतों तले ऊंगलियां दब गई थी।
इस मामले की तह तक पहुंचने में माननीय अदालत को नौ वर्ष का लंबा समय जरूर लगा, किंतु जो नतीजा निकला है, वह न्यायपालिका की नीर-क्षीर विवेकी क्षमता की पृष्टि करता है। पटियाला हाउस अदालत ने संजीव नंदा को गैर इरादतन हत्या का दोषी करार दिया है। यदि यह महज एक सडक दुर्घटना होती और दुर्घटना के लिए जिम्मेदार किसी ड्राइवर के खिलाफ केस चल रहा होता, तो शायद इसकी तरफ लोगों का ध्यान नहीं जाता। लेकिन यह एक ऐसी कहानी थी, जिसमें कुछ अमीर लोगों द्वारा बडी ह्रदयहीनता के साथ आम लोगों को कुचलने के बाद सुबूत नष्ट करने से लेकर छिपने-छिपाने और अदालत में मामले को अपने पक्ष में मोडने तक की भौंडी कोशिशें की गई थी। अमीरी के नशे में लोग सोचते हैं कि धन के जरिये वे कुछ भी खरीद सकते है। चूंकि अपने देश में ऐसा होता रहा है।
21 अगस्त 2008 को दिल्ली हाईकोर्ट ने इस स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर आनंद और खान दोनों की प्रैक्टिस पर चार महिने की पाबंदी लगा दी। देश के सर्वश्रेष्ठ वकीलों का कहना है कि, आनंद और खान ने जो गुल खिलाये और न्यायतंत्र को खरीदने की जो गुस्ताखी की है उसके सामने यह सजा बेहद सस्ती और मामूली है यानि कि, यह दोनों बहुत सस्ते दाम पर छूट गए।
हाईकोर्ट ने जो फैसला दिया है वह दो रूप से काबिलेतारीफ है। एक तो हाईकोर्ट ने मीडिया के स्टिंग ऑपरेशन पर भरोसा किया और दूसरा यह कि, इससे इस देश की जनता में एक नेक संदेश जाता है कि, वकील चाहे बिकाऊ हो.... रईसों के तलवे चाटते हो.... उनके दलाल बनकर न्यायतंत्र को मजाक समझते हो लेकिन कानून बिकाऊ नहीं है...... पैसों के जोर का इस पर कोई असर नहीं हो सकता..... कानून अपना फर्ज नहीं भूला है।
और आज इस केस के अपराधियों को सजा सुनाई जानेवाली है तब देखना यह है कि, जहां पैसा बोलता है..... वहां इन्साफ क्या बोलता है।
यह सुखद संयोग ही है कि पिछले एक वर्ष के दौरान हमारी अदालतों ने लगभग सभी हाई-प्रोफाइल मुकदमों में दूध का दूध और पानी का पानी किया। BMW मामले में नंदा को दस वर्ष तक की जेल हो सकती है, लेकिन सवाल सजा की अवधि का नहीं, दोष पर मुहर लगने का था, ताकि समाज इससे सबक ले सके।
जय हिंद