आप सब सोच रहे होंगे कि, क्या बाढ पर राजनीति हो सकती है? जी हां, बिलकुल हो सकती है। हमारे देश का उसूल है, यहां सभी प्रकार की समस्याओं पर राजनीति की रोटी सेंकी जाती है। तो फिर हमारे माननीय नेतागण भला इस बाढ को कैसे छोड देते।
हम सब पिछले 21 दिन से पानी में डूबे गांव, खेत, रास्ते, घर और खाने पर टूटकर पडते अवश लोगों के समूह और पानी में खोए अपनों को तलाशती लगभग भरी हुई हजारों जोडी आंखों को लगातार देख रहे है। बिहार में हर बार बाढ आता है लेकिन इस बार की बाढ को राजनेता कैटरिना और सुनामी जैसा खतरनाक बता रहे है। हर बार की बाढ जीवन को सालों पीछे धकेल देती है।
वर्ष 1945 में कोसी योजना के तहत कोसी पर नेपाल से लेकर बिहार में गंगा के संगम तक दोनों किनारों पर 10 किलोमीटर लंबे तटबंध का प्रस्ताव बना था। पर यह तब तक फायदेमंद नहीं हो सकता था, जब तक नेपाल के बाराह इलाके में बांध नहीं बनाया जाता। तत्कालीन वायसराय लार्ड वेवल ने टेनेंसी वैली परियोजना की तर्ज पर काम शुरु करवाया, पर वह काम बिना कारण बताए बंद कर दिया गया। तब से आज तक बिहार की नदियों पर बने 3,454 किलोमीटर लंबे तटबंध टूटकर या लोगों द्वारा काटने से विनाश की कहानियां रच रहे हैं। हर साल यहां का 76 फीसदी इलाका बाढ में डूब जाता है, जो देश की कुल बाढ प्रभावित आबादी का 56 फीसदी है। इस समय अकेले उत्तर बिहार में 2,952 किलोमीटर लंबे तटबंध हैं, जिनके निर्माण में खरबों रुपये लगे हैं। लेकिन ये बाढ से बचाव के बजाय बाढ की विभीषिका के पर्याय बने हुए हैं। कोसी नदी के आसपास के लगभग 10 जिलों के 387 गांव इस बाढ की भेंट चढ चुके है।
वर्ष 1956 में नेपाल सरकार द्वारा भारत की सरहद पर विराट बांध बांधकर कोसी नदी के पानी को रोकने की कोशिश की गई थी। नेतागण का मानना था कि बांध बांधने से बाढ का पानी ज्यादा नहीं आ पायेगा। लेकिन अब उनकी समझ में आ जाना चाहिए कि इस तबाही का कारण ही बांध है। कोसी नदी ने भारत-नेपाल सीमा पर बने कुशहा बांध को तोड दिया और 200 वर्ष पुराने रास्ते पर फिर से बह चली। इस नदी को बिहार का शोक कहते है लेकिन कोसी किनारे के लोग इससे पूरी तरह सहमत नहीं। वे नदी और बाढ के साथ जीना सीख गए थे, पर विकासवादियों ने बाढ सहजीविता की उनकी कला ही नष्ट कर दी। नदी किनारे बसने वाला यह पानीदार समाज अब असहाय है। बाढ के साथ जीने वाले बांधों में कैद नदी की विभीषिका का अनुमान नहीं लगा पा रहे। वे असहाय बना दिए गए हैं। आज तैरने वाला समाज डूब रहा है।
तटबंधों की लंबाई, चौडाई और मोटाई से बाढ नहीं रुकती। बाढ अतिथि नहीं है, इसके आने की तिथियां बिलकुल तय है। लेकिन हमने विकास की पीठ पर सवारी करते-करते इस चेतावनी पर ध्यान ही नहीं दिया। पक्षों की बात को बाजु में रख शासक और तंत्र को सोचना चाहिए कि असली प्रगति और विकास किसे कहेंगे? अब जो बचा है उसे ही आगे बढाये यही काफी है। यह भी सही है कि रातोरात महल नहीं बन सकता। कछुए की तरह विकास होगा तो भी यह हमारे लिए कम नहीं।
बाढ से करीब 40 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित है। करीब 20 लाख लोग गायब भी बताए जा रहे है। ढाई लाख एकड कृषि भूमि का नुकसान हुआ है। राहत कैंपों की हालत खराब है। लोग वहां पत्ते खाकर किसी तरह जिंदा है। जहरीले जानवरों का डर अलग से है। उन्हें तत्काल भोजन, सिर छिपाने की जगह, दवा, पानी, कपडे, टेन्ट, चारपाई, केरोसिन, टॉर्च, दियासलाई आदि चाहिए। लोगों की आजीविका के मुख्य साधन पालतू और दूध देनेवाले पशु बाढ में बह गए है। गांव तो गांव छोटे-छोटे नगरों का कोई पता नहीं। बिहार में लगभग हरेक वर्ष खेती की दस लाख हेक्टेयर जमीन बाढ के पानी में तबाह होती है। करीब 2.5 करोड आबादी प्रत्येक वर्ष यह त्रासदी झेलती है। बडे पैमाने पर लोगों के विस्थापित होने, गर्म जलवायु और साफ-सफाई के अभाव सहित अन्य कारणों के चलते जलजनित रोगों के फैलने का खतरा बना हुआ है।
प्रधानमंत्री के हवाई दौरे ने एक अरब की सहायता राशि देकर इस बाढ को राष्ट्रीय आपदा घोषित कर दिया है। सरकारी कर्मकांड की लगभग सभी मुख्य रस्में पूरी कर दी गई। गले तक बाढ के पानी में डूबे लोग बेबस-बेकस हैं, लेकिन वे किसी भ्रम में नहीं हैं। उन्हें मालूम है कि सरकारी सहायता, राहत कार्य, राष्ट्रीय आपदा घोषणा आदि का मतलब क्या होता है। सभी जानते है। वर्ष 2002 में बाढ प्रभावित दरभंगा जिले के 18 प्रखंडों में सरकारी राहत महज 5.49 प्रतिशत लोगों तक ही पहुंच पाया था। इस बार एक अरब रुपये की सहायता और राष्ट्रीय आपदा का दरजा मिलने के बाद देखना है कि वहां राहत और बचाव कार्य कितना हो पाता है। राहत की घोषणा तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी की है। पर बिहार का सरकारी और गैर सरकारी तंत्र इस सहायता का लाभ प्रभावितों तक सचमुच पहुंचा पाएगा, इसका भरोसा बिहार के लोगों भी नहीं है। बिहार का आपदा प्रबंधन विभाग खुद ही लकवाग्रस्त है। वहां की सरकार भी खास कुशल नहीं रही। केन्द्र सरकार, राज्य सरकारें और स्वैच्छिक संस्थाएं काम पर लग गई है। लेकिन सवाल यह है कि 40 लाख से ज्यादा बाढ प्रभावित रहेंगे कहां? खाने-पीने के अलावा उनके बैठने-उठने की जगह भी ढूंढनी पडेगी। बस स्टेशन और रेलवे स्टेशन पर पहुंचने के बाद उन्हें खाने-पीने की सामग्री तो मिल रही है, लेकिन ऐसी जगह ये लाखों लोग एक साथ कैसे रह सकते है? वहां प्रभावित लोगों को पलायन होने से रोकना सबसे बडा पुण्य होगा। क्योंकि, इससे दूसरे राज्यों में हालात बेकाबू हो सकते हैं। इसलिए किसी एक को नहीं, एक अरब लोगों को मिलकर मदद करनी चाहिए।
अब मुख्य विषय पर आते है कि इस बाढ से राजनीति का क्या लेना-देना। इसे भारत का दुर्भाग्य कहा जा सकता है कि, देश में जब कभी कुदरती या मानवसर्जित आपदा आती है तब देश के माननीय नेतागण को राजनैतिक खिचडी पकाने का मौका मिल जाता है। एक-दूसरे पर कीचड उछालना... झूठ बोलना... इनकी रोजमर्रा की आदत में शुमार है। सभी पक्ष-प्रतिपक्ष एक दूसरे को बढ-चढ कर आगे लाने में जुट जाते है। अभी इस बात का मुख्य विषय से कोई लेना-देना नहीं लेकिन सिर्फ इतना ही कहूंगी कि ये लोग तो पराये देश में भी हमारे देश को नीचा दिखाने में पीछे नहीं हटते। सभी इस प्रलंयकारी बाढ प्रभावितों की राहत में जुटे हुए है और अपना-अपना सिक्का जमाने में लगे हुए है। लेकिन इसमें सबसे दिलचस्प और शर्मनाक किस्सा गुजरात राज्य का है। बताया जाता है कि गुजरात भाजपा अहमदाबाद सिरियल ब्लास्ट में मारे गए 55 लोगों के परिजनों को फूटी कोडी सहाय नहीं दे सकी और अब बिहार के बाढ प्रभावितों की मदद के लिए बढ-चढ कर उत्साह से काम पर लग गई है। लेकिन इनका तरीका बडा ही शर्मसार करने वाला है।
सिरियल ब्लास्ट में जो 55 लोग मारे गए उन्हें राज्य सरकार द्वारा प्रत्येक परिवार को पांच-पांच लाख सहाय देने की घोषणा हुई थी। विपक्ष कांग्रेस ने प्रत्येक मृतकों के परिवार को एक-एक लाख दिए हैं। कांग्रेस ने मृतकों के परिवार के लिए घोषणा की तब भाजपा नेताओं को पूछा गया कि, भाजपा इन मृतकों के परिवार को कांग्रेस की तरह कोई सहाय देना चाहती है या नहीं? ऐसा पूछने पर उनका जवाब था कि, "हमारी सरकार ने रुपये दिए तो है। हम दें या हमारी सरकार दें बात तो एक ही है।" भाजपा के यह नेता भूल गए कि सरकार के रुपये भाजपा के नहीं है लेकिन जनता के पसीने की कमाई है। अहमदाबाद सिरियल ब्लास्ट के मृतकों के परिवार को एक रुपये की भी सहायता नहीं देने वाली भाजपा ने बिहार के बाढ प्रभावितों के लिए लोगों के पास जाकर पुराने कपडे नहीं लेकिन... नई साडियां, धोतियां, कंबल, गद्दीयां, बरतन इकठ्ठा करने के लिए अपने कार्यकर्ताओं को सूचना दी है। बताया जाता है कि भाजपा लोगों से यह राहत सामग्री इकठ्ठा कर कीट बना उस पर अपना सिक्का लगाकर बिहार भेजेगी तब सहाय लेने वाली बिहार की जनता भाजपा के गुणगान गायेगी या गुजरात की जनता की? अनाम बनकर वहां बिना किसी प्रचार और दुंदभि के मदद करनी चाहिए कि लोग भूल जायें कि वहां बाढ आई थी। राहत पर राजनीति बाद में कर लीजिएगा। पहले इन चुनौतियों से तो निपटो। बहरहाल, सरकार क्या कर रही है, यह सवाल बेमानी है। हम क्या कर रहे हैं, यह सवाल मौजू है। लिहाजा, मानकर चलें कि बाढ हमारे अपने किसी के घर से होकर गुजरी है।
जय हिंद
पूज्य माँ
11 वर्ष पहले
1 टिप्पणी:
"भाजपा के यह नेता भूल गए कि सरकार के रुपये भाजपा के नहीं है"
भाजपा हमेशा से सरकारी पैसा को अपना मान के चलती हैं और दुर्भाग्य की बात यह हैं की यह बात लोगो के जेहन में नहीं आती हैं...
भाजपा इक ऐसा संगठन हैं जो जनता के साथ हमेशा भावनात्मक या यु कहिये भावनावो के साथ खिलवाड़ करती आ रही हैं ...
आपके चिठा में राजनेताओ के काले चेहरे को और सत्ता के प्रति लोलुप स्वभाव को बहुत सही तरीके से अपने कलम के द्वारा अंकित किया हैं...
सरकार को अपने आपसी द्वेष को भूल कर उन गरीब और बेचारी जनता के लिए कुछ सार्थक कदम उठाना चाहिए....
आपकी कलम की धार, जनता की यह मार्मिक पुकार, देश में हो रहे अत्याचार शायद इस गूंगी बहरी हो रही राज्य सरकार को के अंतर आत्मा को जागृत कर सके...
जय हिंद...
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