एक ओर भारत में चुनाव का मौसम चल रहा है वहीं दूसरी ओर श्रीलंका आग की लपटों में जल रहा है। इसके मूल में श्रीलंकन सरकार और तमिल विद्रोहियों के बीच चल रही लडाई है। तमिल विद्रोही श्रीलंका में से अलग राष्ट्र का अभियान चला रहे है और प्रभाकरन जैसे नेता के पाप से यह अभियान अभी आतंकवाद में तब्दील हो चुका है। श्रीलंकन सरकार इस आतंकवाद को नेस्तनाबूद करने के लिए कमर कस चुकी है और इस लडाई में तमिल विद्रोहियों की बलि चढ रही है।
हमारे देश में करुणानिधि से लेकर वैंको तक के तमिल मतबैंक के भूखे नेताओं ने इसके सामने अपना विरोध जताया है। इस मामले कांग्रेस श्रीलंकन सरकार के साथ है यह तो ठीक है लेकिन अचानक ही केन्द्र के गृहमंत्री पी. चिदंबरम की आत्मा जाग उठी है और उन्होंने घोषित किया है कि, तमिल विद्रोही और श्रीलंकन सरकार में से कोई भी भारत की बात सुनने को तैयार नहीं है। लेकिन अभी जिस तरह यह स्थिति बिगडी है उसमें श्रीलंकन सरकार का दोष ज्यादा है यह साबित करने के लिए जो कारण दिया है वह हास्यास्पद है। उनके मुताबिक श्रीलंकन सरकार ऐसा मानती है कि सैन्य कदम ही शांति बना सकते है और इसी वजह से उनका दोष ज्यादा है।
चिदंबरम जो कह रहे है वो बात गले नहीं उतर रही। तमिल विद्रोही श्रीलंका में से अलग राष्ट्र की जो मांग कर रहे है वह ठीक नहीं है और उस मांग के लिए वे लोग आतंकवाद के रास्ते पर चल रहे है जो माफी के काबिल नहीं। अब कोई आतंकवाद के रास्ते चले तो इसमें कोई सरकार क्या करे? क्या आतंकवादियों को समझाने जाये? साफ है कि वह सैन्य कदम ही उठायेगी और श्रीलंकन सरकार अभी वही कर रही है और यह मार्ग श्रेष्ठ है। श्रीलंकन जनता तमिल आतंकवाद सालों से झेल रही है और वहां आये दिन पांच-पच्चीस लोग इस आतंकवाद की बलि चढते ही है। ऐसे में श्रीलंकन सरकार हाथ पर हाथ धरकर बैठी थोडे ही रहेगी। क्या आतंकवादियों का रदय परिवर्तन हो उसका इंतजार करेगी? आतंकवादी जिस तरह बंदूक लेकर निकल पडे है उसके सामने उसने अपनी सेना मैदान में उतारी है और यह उसका अधिकार है।
वास्तव में तमिलों का प्रश्न श्रीलंका का निजी प्रश्न है और इस मामले में भारत या दूसरे किसी देश को टांग अडाने की जरुरत ही नहीं है। ना ही किसी सरकार का दोष गिनाना चाहिए। आतंकवाद को मिटाने का रास्ता सिर्फ गोलियों से होकर गुजरता है, दूसरा कोई रास्ता नहीं।
चिदंबरम अभी जो बोली बोल रहे है वह एक तमिल नेता की बोली है।
जय हिंद
हमारे देश में करुणानिधि से लेकर वैंको तक के तमिल मतबैंक के भूखे नेताओं ने इसके सामने अपना विरोध जताया है। इस मामले कांग्रेस श्रीलंकन सरकार के साथ है यह तो ठीक है लेकिन अचानक ही केन्द्र के गृहमंत्री पी. चिदंबरम की आत्मा जाग उठी है और उन्होंने घोषित किया है कि, तमिल विद्रोही और श्रीलंकन सरकार में से कोई भी भारत की बात सुनने को तैयार नहीं है। लेकिन अभी जिस तरह यह स्थिति बिगडी है उसमें श्रीलंकन सरकार का दोष ज्यादा है यह साबित करने के लिए जो कारण दिया है वह हास्यास्पद है। उनके मुताबिक श्रीलंकन सरकार ऐसा मानती है कि सैन्य कदम ही शांति बना सकते है और इसी वजह से उनका दोष ज्यादा है।
चिदंबरम जो कह रहे है वो बात गले नहीं उतर रही। तमिल विद्रोही श्रीलंका में से अलग राष्ट्र की जो मांग कर रहे है वह ठीक नहीं है और उस मांग के लिए वे लोग आतंकवाद के रास्ते पर चल रहे है जो माफी के काबिल नहीं। अब कोई आतंकवाद के रास्ते चले तो इसमें कोई सरकार क्या करे? क्या आतंकवादियों को समझाने जाये? साफ है कि वह सैन्य कदम ही उठायेगी और श्रीलंकन सरकार अभी वही कर रही है और यह मार्ग श्रेष्ठ है। श्रीलंकन जनता तमिल आतंकवाद सालों से झेल रही है और वहां आये दिन पांच-पच्चीस लोग इस आतंकवाद की बलि चढते ही है। ऐसे में श्रीलंकन सरकार हाथ पर हाथ धरकर बैठी थोडे ही रहेगी। क्या आतंकवादियों का रदय परिवर्तन हो उसका इंतजार करेगी? आतंकवादी जिस तरह बंदूक लेकर निकल पडे है उसके सामने उसने अपनी सेना मैदान में उतारी है और यह उसका अधिकार है।
वास्तव में तमिलों का प्रश्न श्रीलंका का निजी प्रश्न है और इस मामले में भारत या दूसरे किसी देश को टांग अडाने की जरुरत ही नहीं है। ना ही किसी सरकार का दोष गिनाना चाहिए। आतंकवाद को मिटाने का रास्ता सिर्फ गोलियों से होकर गुजरता है, दूसरा कोई रास्ता नहीं।
चिदंबरम अभी जो बोली बोल रहे है वह एक तमिल नेता की बोली है।
जय हिंद