शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

चिदंबरम का तमिल प्रेम


एक ओर भारत में चुनाव का मौसम चल रहा है वहीं दूसरी ओर श्रीलंका आग की लपटों में जल रहा है। इसके मूल में श्रीलंकन सरकार और तमिल विद्रोहियों के बीच चल रही लडाई है। तमिल विद्रोही श्रीलंका में से अलग राष्ट्र का अभियान चला रहे है और प्रभाकरन जैसे नेता के पाप से यह अभियान अभी आतंकवाद में तब्दील हो चुका है। श्रीलंकन सरकार इस आतंकवाद को नेस्तनाबूद करने के लिए कमर कस चुकी है और इस लडाई में तमिल विद्रोहियों की बलि चढ रही है।
हमारे देश में करुणानिधि से लेकर वैंको तक के तमिल मतबैंक के भूखे नेताओं ने इसके सामने अपना विरोध जताया है। इस मामले कांग्रेस श्रीलंकन सरकार के साथ है यह तो ठीक है लेकिन अचानक ही केन्द्र के गृहमंत्री पी. चिदंबरम की आत्मा जाग उठी है और उन्होंने घोषित किया है कि, तमिल विद्रोही और श्रीलंकन सरकार में से कोई भी भारत की बात सुनने को तैयार नहीं है। लेकिन अभी जिस तरह यह स्थिति बिगडी है उसमें श्रीलंकन सरकार का दोष ज्यादा है यह साबित करने के लिए जो कारण दिया है वह हास्यास्पद है। उनके मुताबिक श्रीलंकन सरकार ऐसा मानती है कि सैन्य कदम ही शांति बना सकते है और इसी वजह से उनका दोष ज्यादा है।
चिदंबरम जो कह रहे है वो बात गले नहीं उतर रही। तमिल विद्रोही श्रीलंका में से अलग राष्ट्र की जो मांग कर रहे है वह ठीक नहीं है और उस मांग के लिए वे लोग आतंकवाद के रास्ते पर चल रहे है जो माफी के काबिल नहीं। अब कोई आतंकवाद के रास्ते चले तो इसमें कोई सरकार क्या करे? क्या आतंकवादियों को समझाने जाये? साफ है कि वह सैन्य कदम ही उठायेगी और श्रीलंकन सरकार अभी वही कर रही है और यह मार्ग श्रेष्ठ है। श्रीलंकन जनता तमिल आतंकवाद सालों से झेल रही है और वहां आये दिन पांच-पच्चीस लोग इस आतंकवाद की बलि चढते ही है। ऐसे में श्रीलंकन सरकार हाथ पर हाथ धरकर बैठी थोडे ही रहेगी। क्या आतंकवादियों का रदय परिवर्तन हो उसका इंतजार करेगी? आतंकवादी जिस तरह बंदूक लेकर निकल पडे है उसके सामने उसने अपनी सेना मैदान में उतारी है और यह उसका अधिकार है।
वास्तव में तमिलों का प्रश्न श्रीलंका का निजी प्रश्न है और इस मामले में भारत या दूसरे किसी देश को टांग अडाने की जरुरत ही नहीं है। ना ही किसी सरकार का दोष गिनाना चाहिए। आतंकवाद को मिटाने का रास्ता सिर्फ गोलियों से होकर गुजरता है, दूसरा कोई रास्ता नहीं।
चिदंबरम अभी जो बोली बोल रहे है वह एक तमिल नेता की बोली है।
जय हिंद

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

प्रभाकरन की ताकत कैसे बढी


26 नवम्बर 1954 के दिन पैदा हुए प्रभाकरन हिन्दू धर्म मानते है और इसलिए कई उन्हें हिन्दू आतंकवाद के सूत्रधार मानते है। जबकि प्रभाकरन की मांग को हिन्दूत्व के साथ कोई लेना-देना नहीं है। प्रभाकरन अलग तमिल राष्ट्र के लिए आतंकवाद चलाते है। प्रभाकरन विद्यार्थीकाल में ही तमिल अभियान में जुड गये थे। 1972 में उसने तमिल न्यु टाइगर्स नामक संगठन की स्थापना की। उस समय इस प्रकार के कई तमिल संगठन थे इसलिए शुरुआत में इस पर किसीने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। 1975 में प्रभाकरन ने जाफना के तमिल मेयर आल्फेर्ड दुराइअप्पाह की हत्या की। अप्पाह मंदिर में दर्शन के लिए जाते थे और प्रभाकरन ने उन्हें एकदम करीब जाकर पॉइन्ट ब्लेन्क रेन्ज से मार गिराया और उसके बाद चले गये। इस हत्या के साथ ही प्रभाकरन तमिलों में हीरो बन गया था क्योंकि आल्फेर्ड को तमिल गद्दार मानते थे। इस लोकप्रियता का फायदा उठाकर प्रभाकरन ने 5 मई 1986 को अपने संगठन का नाम लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल इलम (लिट्टे) कर दिया। प्रभाकरन में तमिलों को अपना मसीहा दिखता था इसलिए इस संगठन में जुडने के लिए अफरातफरी मच गई थी। प्रभाकरन ज्यादातर सार्वजनिक जीवन में नहीं आते इसलिए उसके निजी जीवन के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है लेकिन उसने 1984 में माथिवथा के साथ शादी की थी और उसके दो बेटे और एक बेटी है ऐसी जानकारी मिली है। उसकी बेटी दुवारका और बेटे चार्ल्स एन्थोनी एवं बालाचंद्रन श्रीलंका में नही रहते। प्रभाकरन का परिवार नोर्वे में रहता है। श्रीलंका में बरसों से अलग तमिल राष्ट्र के लिए अभियान चल रहा है और प्रभाकरन इस अभियान का सूत्रधार है। श्रीलंका में तमिलों का यह अभियान शुरु हुआ इसके मूल में 1948 में रचा गया श्रीलंकन संविधान था। इस संविधान में श्रीलंका की स्थानिक मानी जानेवाली सिंहाली जनता से तमिलों को निम्न कक्षा का माना जाता था। तमिलों को नौकरी सहित के अधिकारों के लिए योग्य नहीं माना गया और तमिल भाषा को मान्यता देने से इंकार किया गया था। तमिलों को मतदान का भी अधिकार नहीं था और इस अन्याय के कारण तमिल अभियान की शुरुआत हुई। प्रभाकरन इसी अभियान की पैदाईश है। हालांकि, 1978 में श्रीलंकन सरकार ने तमिलों को समान अधिकार देने का स्वीकार कर लिया था लेकिन उससे पहले प्रभाकरन मैदान में आ चुके थे और उन्होंने सीधे गोली की भाषा शुरु कर अलग तमिल राष्ट्र की मांग कर दी। बरसों से जो जनता अन्याय सहती हो उसे यह भाषा ज्यादा पसंद आयेगा इसलिए ही प्रभाकरन की बात भी तमिलों को छु गई और शायद इसी वजह से जब 1978 में श्रीलंकन सरकार ने तमिलों को समान अधिकार देने का स्वीकार लिया तब भी तमिल जनता श्रीलंकन सरकार की बात स्वीकारने के बजाय प्रभाकरन के साथ रही।प्रभाकरन बहुत जल्द तमिलों में लोकप्रिय हुए इसका एक कारण उसकी हिम्मत और विचारधारा भी थी। प्रभाकरन स्पष्ट रुप से मानते है कि हिंसा के बिना दुनिया में आप कुछ भी हासिल नहीं कर सकते और प्रभाकरन ने इस विचारधारा को अपनाया और उसे जो सफलता मिली इस कारण तमिल युवाओं के लिए वह हीरो बन गया। प्रभाकरन ने 1975 में जाफना के मेयर की हत्या कर इस बात का सबूत दिया। प्रभाकरन सफल हुआ इसके लिए भारत और श्रीलंकन सरकार जिम्मेदार है। प्रभाकरन खूंखार था ही लेकिन उसे ज्यादा खूंखार बनाने का पाप राजीव गांधी ने किया। 1987 में भारत ने श्रीलंकन के मामले में टांग अडाकर अपनी सेना वहां भेजी थी। तमिल जनता खुद को भारतीय मानती है और भारतीय ही भारतीयों की हत्या करे उसके सामने तमिलों में जोरदार विरोध हुआ था। हालांकि, राजीव गांधी को श्रीलंका में शांति की स्थापना कर नोबल प्राइज जितने की तमन्ना थी इसलिए उन्होंने इस विरोध पर ध्यान नहीं दिया। 1987 में भारत और श्रीलंकन शांतिरक्षक दल के द्वारा तमिलों पर हो रहे अत्याचारों का विरोध करने के लिए थिलीपन नामक एक सैन्य अधिकारी ने गांधीजी के रास्ते पर चलकर अनशन शुरु किया था। 15 सितम्बर 1987 को थिलिपन ने आमरणांत अनशन की घोषणा की और उसके साथ हजारों तमिल जुड गये। उस समय श्रीलंकन सरकार को थिलिपन के अनशन को रोकने की जरुरत थी लेकिन श्रीलंकन सरकार ने इस बात की परवाह नहीं की और 11 दिन बाद यानि कि 26 सितम्बर 1987 को थिलिपन हजारों तमिलों की उपस्थिति में मौत के भेंट चढे। जिस देश में गांधीजी ने अनशन के शस्त्र का असरकारक रुप से इस्तेमाल किया था उसी देश के सामने तमिलों का यह शस्त्र नाकाम साबित हुआ था। इस घटना का साफ संदेश था कि इस जमाने में गांधीगिरी नहीं चलेगी, प्रभाकरन की भाषा ही चलेगी और तमिलों ने उसके बाद प्रभाकरन की भाषा का स्वीकार कर लिया। राजीव गांधी ने अपनी जान गंवाकर थिलिपन के मौत की किमत चुकाई और श्रीलंकनों ने अपने हजारों लोगों की जान खोकर। प्रभाकरन ने उसके बाद तमिल युवाओं की बडे पैमाने पर भर्ती ही शुरु कर दी और उनके हाथ में शस्त्र थमाकर उन्हें श्रीलंकन सरकार के सेना के सामने उतार दिया। प्रभाकरन की फिलोसोफी थी कि श्रीलंका में सेकन्ड क्लास सिटीजन के रुप में जीकर और अपमान सहने के बाद भारतीय सेना या श्रीलंकन सेना की गोली खाकर कुत्ते की मौत मरने से अच्छा है तमिल राष्ट्र के लिए जान दे दो। तमिलों को यह बात गले तक उतर गई और उसमें से दुनिया का सबसे खतरनाक आतंकवादी संगठन तैयार हुआ। प्रभाकरन का प्रभाव इतना जोरदार था कि उसके इशारे पर युवतियां आत्मघाती दस्ते के रुप में काम करने को तैयार हो जाती थी। प्रभाकरन को हमारे तमिल नेताओं ने भी तन, मन, धन से मदद की है। प्रभाकरन की दास्तान बहुत लंबी है और उसका जल्दी अंत आये ऐसा नहीं लगता और उसका नेटवर्क इतना जोरदार है कि उसका भी अंत आये ऐसा नहीं लगता। प्रभाकरन अभी कहां है यह किसी को पता नहीं है। इसलिए प्रभाकरन का चेप्टर कब समाप्त होगा पता नहीं।
जय हिंद

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

करुणानिधि की गुलांटबाजी

हमारे देश में राजनेता जनता को एकदम बेवकूफ समझते है और ऐसा मानकर चलते है कि जनता में अक्ल है ही नहीं। वे हमें जैसी घुट्टी पिलायेंगे हम पीते जायेंगे। और तो और उनमें स्वाभिमान जैसी कोई चीज भी नहीं है। वे जो बक रहे है, "अभी बोला और अभी भूल जाओ" के तर्ज पर होता है और ऐसी बेशर्मी का ताजा उदाहरण है करुणानिधि की गुलांटबाजी।
करुणानिधि ने अभी एक दिन पहले ही बडे जोर-शोर से घोषणा की थी कि, वे स्वयं श्रीलंका में अलग तमिल राष्ट्र के लिए लड रहे एलटीटीइ के सर्वेसर्वा प्रभाकरन को आतंकवादी नहीं मानते और प्रभाकरन उनके मित्र है। करुणानिधि ने कहने को कह तो दिया लेकिन बाद में उन्हें अहसास हुआ कि इस कारण सोनिया गांधी नाराज हो जायेंगी इसलिए उन्होंने गुलांटबाजी लगाई। इसलिए उन्होंने जल्दबाजी में यह सफाई दी कि प्रभाकरन चाहें उनके मित्र है लेकिन एलटीटीइ ने राजीव गांधी की हत्या की इसके लिए उसे माफ नहीं किया जा सकता। यह बात बडी अजीब सी लगती है ना! जिस इंसान के आतंकवादी कृत्य के लिए आप उन्हें माफी देने को तैयार नहीं उसी इंसान को आप आतंकवादी मानने से इंकार कर रहे हो?
अभी देश में चुनाव का माहौल है और इस माहौल में राजनेता सिर्फ यही सोचते है कि, जनता को किस तरह बेवकूफ बनाकर वोट हासिल किया जाये और करुणानिधि ने भी वही किया। करुणानिधि अब 80-82 साल के होने को आये है। लेकिन इस देश की 70% जनता को अभी उस उम्र से गुजरने में समय है। करुणानिधि जो गुलांटबाजी कर रहे है जनता उसे ना समझे इतनी बेवकूफ भी नहीं है।
देश में 28 राज्य है और सभी राज्यों में जनता विभिन्न कारणों से बेवकूफ बनती रही है लेकिन महत्वपूर्ण फार्मूला कुछेक राज्यों के लोगों में प्रादेशिक संकुचितता की भावना को पैदा करने के मूलभूत सिध्धांत पर ही आधारित है। तमिलनाडू में यह फार्मूला असरकारक है और तमिल जनता के स्वाभिमान की बात कर-कर के अन्नादुराई से लेकर करुणानिधि तक के नेता अपनी दुकान चलाते रहते है। कभी-कभार तमिल भाषा के गौरव के नाम पर हिन्दी का विरोध तो कभी श्रीलंका में रहते तमिलों पर अत्याचार की बात। मुद्दे बदलते रहते है, बात वही की वही रहती है। इस बार श्रीलंका में बसे तमिलों पर श्रीलंकन सरकार और सिहालियों द्वारा हो रहे अत्याचारों की बात चर्चा में है और वैंको से लेकर जयललिथा तक के सभी इसी मुद्दे को भुनाने में लगे हुए है।
करुणानिधि तमिलनाडू के मुख्यमंत्री है और श्रीलंका में आतंकवाद फैला रहे संगठन एलटीटीइ के साथ उनका गहरा संबंध है लेकिन उनकी मजबूरी यह है कि, अभी उनका गठबंधन कांग्रेस के साथ है। कांग्रेस और एलटीटीइ की शत्रुता जगजाहिर है (एलटीटीइ ने राजीव गांधी की हत्या की थी)। इसलिए करुणानिधि अपना प्यार एलटीटीइ पर नहीं जता पा रहे थे।
करुणानिधि ने चाहे अभी कांग्रेस के डर से ऐसा किया हो लेकिन जो बात उनके जबान पर थी वह होठों पर आ गई। एलटीटीइ और प्रभाकरन के साथ उनकी मित्रता बहुत पुरानी है और राजीव गांधी हत्या की जांच के लिए नियुक्त जैन जांच समिति ने तो राजीव गांधी की हत्या के लिए करुणानिधि के सामने ऊंगली उठाई थी। जैन समिति का अंतरिम रिपोर्ट 1998 में आया था और उस समय केन्द्र में इन्दरकुमार गुजराल की तीसरे मोरचे की सरकार थी। करुणानिधि की पार्टी उस सरकार में हिस्सेदार थी। कांग्रेस ने उस समय इस मुद्दे को बहुत भुनाया था और करुणानिधि की पार्टी को सरकार में से बाहर भगाने के लिए जोरदार आक्रामक रुख अपनाया था। चूंकि, तीसरे मोरचे के हाइकमान इसके लिए तैयार नहीं हुए और परिणाम स्वरुप कांग्रेस ने गुजराल को घर रवाना कर दिया। कांग्रेस एवं करुणानिधि का संबंध इतना पुराना है और दोनों के बीच शत्रुता है।
राजनीति जो न दिखाये वो कम है। आज करुणानिधि और कांग्रेस साथ-साथ है। कांग्रेस ने थोडे से फायदे के लिए करुणानिधि को माफ कर दिया और अपने पास बुला लिया। करुणानिधि ने प्रभाकरन के लिए जो प्यार जाहिर किया उसके बाद कांग्रेस को उसके लिए आपत्ति बतानी चाहिए लेकिन सत्ता के समीकरण अच्छे अच्छों की बोलती बंद कर देते है। कांग्रेस के किस्से में भी वही हुआ है। सोनिया गांधी आज कांग्रेस की सर्वेसर्वा है और वे खुद ही अपने पति की हत्या में जिसका हाथ था उसके साथ हिस्सेदारी कर सकती हो तो भला दूसरा कोई क्या बोल सकता है? राजीव गांधी की हत्या में खुद का हाथ था ऐसा एलटीटीइ कबूल चुकी है। 2006 में एलटीटीइ के प्रवक्ता एन्टोन बालासिंगम ने खुद एन डी टी वी को दिए एक इंटरव्यू में कबूला था कि राजीव की हत्या बहुत बडी गलती थी, इस ऐतिहासिक गलती का हमें अफसोस है। राजीव की हत्या में तांत्रिक चंद्रास्वामी का हाथ था ऐसा भी बाहर आया था। राजीव हत्या केस के एक आरोपी रंगनाथ ने अपने बयान में कबूला था कि राजीव की हत्या करवाने के लिए चंद्रास्वामी ने फायनान्स की व्यवस्था की थी। इस कबूलात के बाद भी चंद्रास्वामी का बाल भी बांका नहीं हुआ। राजनीति बडी अजीब चीज है और यह इंसान की संवेदना को भी मार डालती है इसका यह सबूत है। करुणानिधि ने कबूल किया है कि प्रभाकरन उनका मित्र है। जो इंसान पिछले कुछेक वर्षों से श्रीलंका में आतंकवाद फैला रहा है और जिस इंसान का हाथ हजारों लोगों के खून से रंगा हुआ है उसे अपना मित्र मानने वाले नेता इस देश में राज कर रहे है इसे हमारे देश की बदनसीबी नहीं तो और क्या कहे।
जय हिंद

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

अपराधिक पृष्ठभूमि और जनमत

आज मैं आपके सामने यह सवाल लेकर आई हूं कि, लोकसभा चुनावों में सभी पार्टियों द्वारा जमकर अपराधी पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशियों को टिकट दिए गए है। सबसे पहले बात करते है कौन से राज्यों में चुनाव है। आज लगभग एक माह तक चलनेवाले चुनाव का श्रीगणेश हो गया है। लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण में आज देश के 14 राज्य और तीन केन्द्रशासित प्रदेशों की कुल 124 बैठकों के लिए मतदान होनेवाले है। आज प्रथम चरण में जिन राज्यों में मतदान होनेवाले है उनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश जैसे राज्य है जो आगामी लोकसभा चुनाव के बाद देश में किसकी सत्ता होगी यह तय करने के लिए महत्वपूर्ण राज्य है। इसके अलावा मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय जैसे इक्के-दुक्के राज्य भी चुनावी मैदान में है। आंध्रप्रदेश और ओरिस्सा में तो लोकसभा चुनाव के साथ-साथ विधानसभा के चुनाव भी है और इन दोनों राज्यों में जो राजनीतिक संकेत और दृश्य दिखलाई दे रहे है उसे देखते हुए दोनों राज्यों की विधानसभा चुनाव भी लोकसभा जितनी ही दिलचस्प है।
आंध्रप्रदेश में कांग्रस के राजशेखर रेड्डी ने मुसलमानों को सरकारी नौकरी और शिक्षा में आरक्षण की रेवडी दिखाकर जंग शुरु किया है और यह तुक्का कितना सफल होता है इस पर सभी की नजर है। आंध्र में यह तुक्का सफल हुआ तो लालुप्रसाद यादव, मुलायमसिंह आदि लाइन में खडे ही है और फिर मुस्लिम आरक्षण की रेवडियां बांटने की प्रतिस्पर्धा शुरु हो जायेगी।
ओरिस्सा में नवीन पटनायक और भाजपा दोनों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। नवीन दो बार विधानसभा चुनाव जीत चुके है लेकिन उस समय स्थिति कुछ ओर थी। उस समय भाजपा उनके साथ थी। बैठकों के बंटवारे के मामले तकरार होने के बाद नवीन और भाजपा आमने-सामने है और इन दोनों में से कौन ताकतवर है यह चुनाव के बाद साबित हो ही जायेगा। नवीन पटनायक के लिए यह मुकाबला शायद उनके अस्तित्व का प्रश्न है क्योंकि वे इस जंग में हार जायेंगे तो उनकी राष्ट्रीय स्तर पर जो छवि है वो मिट जायेगी। फिलहाल नवीन तीसरे मोर्चे के साथ है। इसके साथ ही तीसरे मोर्चे की ताकत का भी पता चल जायेगा।
लोकसभा चुनाव में भी कल जिन बैठकों पर मतदान होनेवाले है उनमें कुछेक मुकाबले भी दिलचस्प है। बिहार में सरन बैठक पर से लालुप्रसाद खडे है और उनके सामने भाजपा के राजीवप्रताप रुडी को मैदान में उतारा गया है। लालु के लिए यह इज्जत का सवाल है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में वाराणसी बैठक पर से भाजपा के मुरली मनोहर जोशी के सामने बसपा के मुख्तार अंसारी मैदान में है। अंसारी गेंगस्टर है और अभी वे जेल में है। इन दोनों में से किसकी जीत होगी इस पर सभी की नजर है।
अब मुख्य मुद्दे पर आते है। सवाल है अपराधिक पृष्ठभूमि वाले हमारे नेताओं की। प्रथम चरण में जहां मतदान होने वाले है वे 124 बैठक पर खडे प्रत्याशियों की एफिडेविट्स के आधार पर जो चित्र उभर कर सामने आया है उसके मुताबिक इस प्रथम चरण में जो प्रत्याशी चुनावी मैदान में खडे है उनमें से 16% प्रत्याशी अपराधिक पृष्ठभूमि वाले है और इस चित्र की सबसे आघातजनक बात तो यह है कि इन अपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशियों को टिकट देने में कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय दल सबसे आगे है। प्रथम चरण के चुनाव में 124 बैठक पर कांग्रेस के 93 प्रत्याशी मैदान में है और उनमें से 24 यानि कि 26% उम्मीदवार अपराधिक पृष्ठभूमि वाले है। उसी तरह भाजपा के 79 में से 23 यानि कि 29% प्रत्याशी अपराधिक पृष्ठभूमि वाले है। सीपीआई-एमएल, जेडीयु, टीडीपी, राजद, समाजवादी पार्टी आदि के तो 40% से भी ज्यादा प्रत्याशी अपराधिक पृष्ठभूमि वाले है। वैसे भी इनके पास इसके अलावा कोई उम्मीद रखनी भी नहीं चाहिए लेकिन भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों को देखकर मुझे बहुत दु:ख हो रहा है।
हमें इन राजनीतिक दलों पर सारा दोष डालने का कोई हक भी नहीं है। ऐसा नहीं कि इसमें उनकी कोई गलती नहीं है लेकिन उनसे भी ज्यादा दोषी हम है, यानि जनता है।
राजनीतिक दल अपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशियों को टिकट देती है तब उनकी एक ही दलील होती है कि हमने जो प्रत्याशी पसंद किए है उनके सामने आरोप दर्ज तो हुए है लेकिन वे अपराधी साबित नहीं हुए और जब तक कोई व्यक्ति न्यायतंत्र द्वारा अपराधी साबित नहीं हो जाता तब तक उसे अपराधी कैसे मान लिया आए? राजनीतिक दल ऐसे प्रत्याशियों को इसलिए पसंद करती है कि यह लोग आसानी से जीत जाते है। दोष हमारा है कि हम ऐसे प्रत्याशियों को वोट देते है और चुनते है। हमारा लोकतंत्र और सिस्टम जो सबसे ज्यादा ताकतवर होता है उसे हम पर थोप देती है। हां, यह भी सही है कि जनता उन गेंगस्टर के सामने लड नहीं सकती लेकिन चुनाव में वह अपनी इस ठंडी ताकत को जरुर दिखा सकती है। समस्या यह है कि हम इतने डरपोक है कि हमें अपनी ताकत का एहसास ही नहीं होता और इसी कारण यह अपराधी चुने जाते है। जब तक हम अपना सही निर्णय नहीं लेंगे ऐसे अपराधी जीतते रहेंगे। फिर कहना नहीं कि मैंने चेतावनी नहीं दी थी। अब आगे फैसला आपके हाथ में है। मतदाता एक दिन का राजा होता है तो उसे ही तय करना है कि अगले पांच वर्षों के लिए उसे कैसा राजा चाहिए।

पास हमारे वोट है चुनें सही सरकार
सही जनमत से ही होगा जनतंत्र का उद्धार

जय हिंद

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

ये वक्त है सही फैसला लेने का



चुनाव लोकतंत्र की नींव है। और यह चुनाव कौन सा संदेश लेकर आते है पता है? चुनाव लोकतंत्र का द्वार खटखटाते हुए देश की जनता से उसका हाल-चाल जानने के लिए आते है। जैसा कि आप सभी जानते है कि बहुत जल्द हमें वोट डालने जाना है। लेकिन हमारे सामने मुश्किलें बहुत सारी है। मुझे चिंता इस बात की है कि वोटिंग अधिकारों के प्रति सचेष्ट देश का युवा मतदाता बेबसी का शिकार है। मौजूदा हालात में ये चुनाव भी हमारे मददगार होते नहीं दिखाई दे रहे है।
चुनाव के मैदान में आठ राष्ट्रीय पार्टियां, ४७ प्रादेशिक पार्टियां और छोटी-छोटी ७०० पार्टियां है। अब वह समय नहीं रहा कि देश में सिर्फ एक राष्ट्रीय पार्टी की सरकार हो। भारत में रोज एक नई राजनैतिक पार्टी जन्म लेती है। एक विशाल देश में अनेक राजनैतिक पार्टियों का जन्म सिर्फ रोज खुलनेवाली दुकान की तरह है। जो आनेवाले खतरनाक समय का सूचक है।
भाजपा और कांग्रेस अनेक प्रादेशिक दलों के साथ अनैतिक गठबंधन कर राजनीति खेल रही है। युपीए और एनडीए के साथ जुडी पार्टीयां विचारधारा आधारित नहीं सिर्फ मौकापरस्त है। कल तक जिसे हिकारत भरी नजर से देखते थे आज उसी के साथ हो लिये। और यह खेल सिर्फ सत्ता पर काबिज होने के लिए खेला जा रहा है। इसमें दो राय नहीं कि चुनाव पूर्व चल रहे इस खेल को देखते हुए दिल्ली में खिचडी ही सरकार आयेगी।
पार्टीयां अपनी अपनी विचारधारा पर बनती है तो चलिए, देखते है इन पार्टियों की विचारधारा कैसी है। विचारधारा... हा...हा...हा... यह तो सिर्फ लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए होता है। सोचिए अगर सभी दल अपनी अपनी विचारधारा को लेकर चलते तो क्या होता? भाजपा राम मंदिर बना चुकी होती। कांग्रेस गरीबी दूर कर चुकी होती। सपा के राज में उ.प्र के सभी किसानों के घर पर अमरसिंह जैसी लक्जुरियस मोटर गाडी खडी होती। बसपा के राज में देश के करोडों दलित मायावती की तरह ऐशो-आराम की जिंदगी जी रहे होते।
दलबदलू ने देश की हालत बिगाड कर रख दी है। बाबरी मस्जिद ढहाने के लिए जिम्मेदार कल्याणसिंह आज मुस्लिमों के प्रिय नेता मुलायमसिंह के साथ गलबहियां कर रहे है। स्थिति यह हो गई है कि अगर किसी पार्टी के साथ जरा सा भी तकरार हुआ तो नेता रुठकर फौरन नई पार्टी का बोर्ड लगा देते है। जैसे कि, भाजपा से नाता तोड उमा भारती ने अपनी पार्टी बनाई है। यह बात ओर है कि उनकी पार्टी चलती नहीं। एक जमाने में लालुप्रसाद यादव और मुलायमसिंह दोनों जयप्रकाश नारायण के चेले थे। इन दोनों ने अपनी नई पार्टी बना रक्खी है। जातियों की जंजीरें टूटने के बजाय इतनी मजबूत हो गई है कि लोग बदमाशों को अपनी जातियों का आदर्श मानने लगे है। माफिया संसद में बिराजमान है।
भारत देश की सबसे शक्तिशाली कुर्सी कौन सी है पता है? प्रधानमंत्री की। इस कुर्सी पर देश के सभी दलों की नजर है। देश की १२० करोड जनता को भी अगले प्रधानमंत्री का बेसब्री से इंतजार है। भारत देश में प्रत्याशी बनने के लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। यहां राजनीति बाप-दादा के पीढियों की तरह चलती है। क्षमता ना होने पर भी बाप-दादा के नाम का छाता लेकर कोई भी ऐरा-गैरा चुनाव में खडा रह सकता है और जीत भी जाता है। इस देश में जिसे कोई क्लार्क जैसी मामूली नौकरी पर भी ना रक्खे ऐसे देवगौडा भी मुख्यमंत्री रह चुके है। भारत में व्यक्ति चाहे उतनी बार चुनाव में खडा रह सकता है कि लोग जब तक उसे धक्के मार ना निकाले वह हटने का नाम ही नहीं लेता।
हरेक राज्य से हरेक क्षेत्रीय दल का नेता प्रधानमंत्री बनने की चाहत दिल में संजोए हुए है। राजनीति जाति की सियासी बिसात, मजहब के पांसे, क्षेत्रीयता के गगनचुंबी नारे और खतरनाक मंसूबों में तब्दील होकर रह गई है। हालात इस कदर गंभीर हो चुकी है कि दो सांसदों वाली पार्टी का नेता भी खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बता रहा है। मायावती प्रधानमंत्री बनना चाहती है, देवगौडा, चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक, शरद पवार और न जाने कितने नाम शामिल हैं प्रधानमंत्री की फेहरिस्त में।
अब बात करते है छोटी-छोटी पार्टियों के नेताओं की। जो प्रधानमंत्री पद के रेस में शामिल है। सबसे पहले अगर मायावती का चान्स लग गया तो क्या होगा? होना क्या है, मायावती सबसे पहले खुद को बैठने के लिए सवासो मन का सिंहासन बनवायेगी। सोने-चांदी के तार से रेशमी कपडे सिलवायेगी। अपने जन्मदिन पर करोडों रुपयों का दान इकट्ठा करने के लिए अपने कार्यकर्ताओं से लेकर अधिकारियों तक को आदेश देगी। गांधीजी के पुतले हटवाकर खुद के पुतले लगवायेगी। अब शरद पवार की बात करते है। पवार की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जगजाहिर है। तो सोचिए, अगर वे प्रधानमंत्री बन गए तो क्या होगा? चीनी, अनाज, तेल और अन्य खाद्यपदार्थ के विषय में वे ऐसा निर्णय लेंगे कि देश के किसान सही दाम न मिलने के कारण कर्जदार बन जायेंगे। कुछेक आत्महत्या कर लेंगे और विदेश से आयात करने वाले व्यापारी करोडपति बन जायेंगे। शरद पवार की तिजोरी भरती जायेगी। प्रधानमंत्री बनने के बाद अगर सर्वे करवाया जाये तो वे घोषित किए बिना ही देश के सबसे अमीर कहलायेंगे। उनमें एक खुबी ओर है। वे सादगी का मोहरा लगाते है और सदस्यों को खरीदने की उनमें जबरदस्त ताकत है। यही पवार साहब का ‘पावर’ है। लालु प्रसाद यादव प्रधानमंत्री बन जायेंगे तो क्या होगा? सबसे पहले तो वे परिवार नियोजन के कार्यक्रमों को रद्द करने का आदेश देंगे। बिहार की जनता को पूरे देश में मुफ्त यात्रा करने की छूट मिलेगी। देश की सभी गायें भूख से मर जायेगी। उ.प्र के मुलायमसिंह भी निजी तौर पर प्रधानमंत्री की रेस में है। मुलायम कांग्रेस या भाजपा किसी का भी समर्थन लेकर प्रधानमंत्री बनने को तैयार है। अगर मुलायम सिंह प्रधानमंत्री बन गये तो सबसे पहले अमरसिंह को देश का वित्त मंत्रालय सौंप देंगे और उद्योग मंत्रालय अनिल अंबानी को सौंप देंगे। जया प्रदा को सांस्कृतिक मंत्री बनायेंगे। ठाकरे परिवार को जलाने के लिए जया बच्चन को महाराष्ट्र का गर्वनर बनायेंगे। अमिताभ बच्चन जिस किसी फिल्म में काम करते होंगे उसे १०० प्रतिशत टेक्स फ्री कर देंगे।
अब बात करते है चुनावी घोषणापत्र की। चुनावी घोषणापत्र सिर्फ दिल्ली की गद्दी अख्तियार करने के लिए ही होती है। सत्ता पर काबिज होने के बाद सबकुछ भुला दिया जाता है। जैसे कि भारतीय जनता पार्टी ने सबसे पहले सत्ता हासिल करने के लिए एल के आडवाणी के नेतृत्व में राम रथयात्रा निकाली थी। सत्ता पर आने के बाद भाजपा भगवान राम को भूल गई। अब ८१ साल के आडवाणी को फिर से भगवान राम की याद आयी है। भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र जारी करने के १० दिन पूर्व भाजपा नेता नकवी ने पूछे गये एक सवाल के जवाब में कहा था कि, ‘भाजपा कोई कन्स्ट्रक्शन कंपनी नहीं है कि जो राममंदिर बनाये’। इस बयान के बाद जारी हुए भाजपा के घोषणा पत्र में फिर से भगवान राम को रक्खा गया है, वह भी रामनवमी के दिन। मैं पूछना चाहती हूं कि भगवान राम के नाम से वोट मांगने वाले अयोध्या, काशी, मथुरा और अलाहाबाद में क्यों हार गये?
कुछेक दलों को विचारधारा से कोई लेना देना ही नहीं। यह तो सिर्फ दिखावा है। जब मर्जी हो तब विरोध करो, जब मर्जी हो तरफदारी करो। १९९२ में नरसिंह राव सरकार के समय डॉ. मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण शुरु किया था तब भाजपा ने उसका विरोध किया था और आज वही भाजपा उसकी तरफदारी करती है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी इस देश में सबसे पहले कम्प्यूटर लेकर आये थे तब भाजपा ने हल्ला मचा दिया था। लोग बेकार बन जायेंगे ऐसा कह उसका प्रचंड विरोध किया था। और आज वही नेता लोग अपने हाथों में लेपटोप लिये घूम रहे है। पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह बार बार अमरिका जाकर तालबोट के साथ जियाफत करते थे और डॉ. मनमोहन सिंह के परमाणु करार का विरोध भी होता है। स्वच्छ पार्टी की बाते करनेवाले भूल गये है कि कबूतरबाजी में पकडे गए सांसद कौन सी पार्टी से थे, जो दूसरे की बीवी को अपनी बीवी के पासपोर्ट पर विदेश ले गए। बंगारु लक्ष्मण जो ऑफिस में ही लाख रुपये की रिश्वत लेते धरे गये। ऐसे ही रिश्वत लेने वालों में बुद्धदेव भी शामिल है।
यह भी सच है कि कांग्रेस मुसलमानों की वोटबैंक है। पंडित जवाहर लाल नेहरु ने उनकी जिंदगी में कभी इद की दावत नहीं दी थी लेकिन हिन्दू धर्म का एजन्डा बनानेवाले वाजपेयी और आडवाणी ने मुस्लिम टोपी पहनकर इद की दावत दी थी। वाजपेयी की सरकार के समय गोदामों में गेहूं-चावल सड रहे थे तब उडिसा में भूख से मरने के समाचार मिल रहे थे। हिन्दुवादी होने का ढोंग करनेवाले राजनेता गाय को माता कहते है और देश के १५ जितने एयरपोर्ट पर कत्लखाने खोलने की मंजूरी भी देते है। वाह!
कांग्रेस की सत्ता में पाकिस्तान के साथ संबंध ही नहीं रखना चाहिए ऐसा हंगामा मचाने वाले नेता ही बस में बैठकर लाहोर गये थे। पाकिस्तान जाकर कविताएं पढी थी। बोर्डर सील करने की बातों का विरोध करने वालों ने ढाका तक के ट्रेन चालू रक्खे। बांग्लादेश के नजदीक वाला बोर्डर खोल दिया।
युपीए सरकार आतंकवाद के सामने कदम उठाने में असफल रही है ऐसा कहनेवाले नेता भूल गये है कि देश की पार्लामेन्ट में आतंकवादी हमला किसके शासनकाल में हुआ। अक्षरधाम पर हमला किसके शासनकाल में हुआ। काठमांडू विमान अपहरण के बाद दो खूंखार आतंकवादी को कंदहार तक छोडने किस पार्टी के विदेशमंत्री गये थे। दो आतंकवादी को छोड आये और ऊपर से ४०० करोड रुपए भी आतंकवादियों को दे आये। वाह!
देश में कुछेक सांसदों को संभालने और सरकार गिरने के डर में व्यक्ति जब असुरक्षा के बीच इस कुर्सी पर बैठेगा तो फिर इसका नतीजा आप सभी भलीभांति समझ सकते है। यह सवाल ही हकीकत की कलई खोल देता है। इतिहास के पन्ने जरुर बोलेंगे। आज नहीं तो कल राज वो तेरा खोलेंगे।

चलते चलते.... बस इतना...
मेरे दिल से राजनीति का असर कुछ यूं कम हुआ
तेरे आने की ना खुशी हुई न जाने का गम हुआ
लोग मुझसे पूछते हैं हमारे मुल्क की दास्तां
कहती हूं मैं रोकर कि एक फसाना था जो अब खत्म हुआ

जय हिंद