लोकसभा चुनाव में बुरी तरह परास्त भाजपा के नेताओं में अब अचानक ईमानदारी का ज्वर फैल रहा है। इस ढोंग की शुरुआत लालकृष्ण आडवाणी ने की थी। आडवाणी लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे उस कारण ही भाजपा का राम बोलो भाई राम हो गया उसके बाद आडवाणी ने खुद हार की नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार कर लोकसभा में विपक्ष का नेता पद नहीं स्वीकारेंगे ऐसा तिकडम रचाया था। हालांकि, यह तिकडम ज्यादा नहीं चल पाया और भाजपा के नेताओं द्वारा मनाने से आडवाणी मान गए और गुपचुप लोकसभा में विपक्ष पद पर बैठ गये। आडवाणी का यह ढोंग खत्म होने के बाद यशवन्त सिन्हा की बारी आई। यशवन्त सिन्हा भाजपा उपाध्यक्ष थे और उन्होंने भी आडवाणी की तरह भाजपा के हार के लिए नैतिक जिम्मेदारी के नाम से इस्तीफा धर दिया। हालांकि, आडवाणी की तरह यशवन्त सिन्हा को मनाने के लिए कोई आगे नहीं आया और उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया। जख्मी सिन्हा ने उसके बाद नया तिकडम खेला और उनकी तरह भाजपा के दूसरे नेतागण भी भाजपा के हार के लिए उतने ही जिम्मेदार है और उन्हें भी नैतिकता के आधार पर इस्तीफा देने के लिए आगे आना चाहिए ऐसा रिकार्ड बजाने की शुरुआत की है। सिन्हा के इस तिकडम का भाजपा के दूसरे नेतागण पर कोई असर तो नहीं हुआ लेकिन भाजपा में जिनके सामने सबसे ज्यादा टकराव है ऐसे यशवन्त सिन्हा ने भी अरुण जेटली को निशाना बना अपना रेकर्ड बजाया और अरुण जेटली का इस्तीफा आ गया है। ऐसा नहीं कि जेटली को यशवन्त सिन्हा की कही बात का बुरा लगा हो और उन्होंने इस्तीफा धर दिया हो क्योंकि जेटली ने एकाद हफ्ते पहले ही पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को इस्तीफा दे दिया था और लंदन यात्रा के लिए रवाना हुए थे। राजनाथ ने अभी तक यह इस्तीफा दबा रखा लेकिन जेटली के सामने टकराव बढा उसके बाद उसे ठंडा करने के लिए उन्होंने इस्तीफे का स्वीकार किया है ऐसी घोषणा कर दी। अरुण जेटली ने भी आडवाणी और यशवन्त सिन्हा की तरह इस्तीफा देने का ढोंग ही रचाया है लेकिन उनका तरीका अलग है। आडवाणी ने और सिन्हा ने चुनाव परिणामो में भाजपा की हार हुई उस मामले इस्तीफा दिया लेकिन जेटली उस बहाने से ढोंग नहीं कर सकते है क्योंकि अगर ऐसा करने जाते तो यशवन्त सिन्हा से लेकर जसवन्त सिंह तक के सभी विरोधी मैदान में आ जाते और वे लोग सही थे ऐसा डींग हाकते इसलिए जेटली ने नया खेल खेला है। उन्होंने ऐसी घोषणा की है कि, वे एक व्यक्ति एक पद के सिध्धांत में मानते है इसलिए इस्तीफा दिया है। जेटली भाजपा के महासचिव के अलावा राज्यसभा में भाजपा के नेता पद पर है और भाजपा में अभी जो धमासान चल रहा है उसके मूल में हकीकत में तो जेटली को दिया गया राज्यसभा का नेता पद है लेकिन जेटली ने वह पद नहीं छोडा।
लोकसभा चुनाव में जेटली भाजपा के मुख्य रणनीतिकार रहे और उन्होंने ना जाने कैसी रणनीति बनाई कि भाजपा ही गर्क में चला गया। भाजपा के पराजय में वैसे तो आडवाणी का योगदान सबसे बडा है लेकिन उन्हें ऐसा कहने की हिम्मत किसी में नहीं है। इसलिए जो कमजोर उसी पर अपना निशाना बना सभी ने जेटली को लपेटे में ले लिया। यह धमासान जारी था वही जशवंत सिंह लोकसभा में चुने गये है इसलिए राज्यसभा में विपक्ष के नेता का पद खाली पडा है और उस पद के लिए दूसरा कोई नहीं था इसलिए जेटली के सिर पर कलश गिरा और उसी में से नया झमेला शुरु हो गया। भाजपा की कोर कमिटी की बैठक में जशवंत सिंह इस मामले तलवार लेकर कूद पडे और उन्होंने जेटली को लपेटे में ले लिया। भाजपा को हराने वाले लोगों को पद देकर नवाजा जाता है ऐसा कह उन्होंने आलोचना की और जेटली से जो जलते है उन सभी ने उनकी हां में हां मिलाई।
यूं तो जशवंत सिंह और यशवन्त सिन्हा यह दोनो जेटली को राज्यसभा के नेता पद पर बैठाने के सामने विरोध जताये यह बात कुछ हजम नहीं होती है। जशवंत सिंह भूतकाल में इसी तरह पद भोग चुके है। १९९९ में लोकसभा चुनाव में जशवंत सिंह खुद हार गये थे और उसके बावजूद पिछले दरवाजे से राज्यसभा में घुस कर वाजपेयी सरकार में कैबिनेट मंत्री बने थे। लोकसभा में हारने के बावजूद वे राज्यसभा में विपक्ष के नेता भी बने थे और उस समय उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। यशवन्त सिन्हा खुद २००४ में लोकसभा के चुनाव में हार गये थे और उसके बाद भी भाजपा के उपप्रमुख पद से चिटके रहे थे। उस समय उन्हें नैतिकता क्यों याद नहीं आई? जेटली ने अभी जो किया है वह जशवंत सिंह और यशवंत सिंहा पहले ही करके बैठे है। उन्हें ऐसा कि लोगों को यह सब कहां याद रहता है। इसलिए उन्होंने जेटली को लपेटे में लिया और इसमें दूसरे भी जुड गये। हालांकि, जेटली जशवंत सिंह और यशवंत सिन्हा से हार माने ऐसे नहीं है। इन दोनों के इस नैतिकता के तिकडम के सामने उन्होंने एक व्यक्ति और एक पद का नाटक कर दिया। इसके जरिए जेटली ने एक तीर से दो शिकार किए है। एक तो राज्यसभा के विपक्ष के नेता का मलाईदार पद अपने पास रखा है और दूसरा भाजपा के जलते घर को राम राम कर जिम्मेदारी से मुक्त हो गये है। राज्यसभा में विपक्ष के नेता का पद कैबिनेट मंत्री जैसा माना जाता है जबकि भाजपा के महासचिव पद में अभी कुछ कमाने जैसा नहीं है। उल्टा यश के बजाय जूते पड रहे है। ऐसी स्थिति में जेटली ने अपनी अक्लमंदी दिखाई है।
हालांकि, जेटली हो या जशवंत सिंह, आडवाणी या यशवंत सिन्हा सभी नाटक ही कर रहे है और सत्ता छोडने को तैयार नहीं है। भाजपा के नेताओं को इस मामले कांग्रेस के दिग्विजय सिंह से सीखना चाहिए। २००३ में म.प्र. विधानसभा चुनाव के समय दिग्विजय मुख्यमंत्री थे और उस समय उन्होंने ऐसी घोषणा की थी कि, अगर वे इस चुनाव में कांग्रेस को जीत नहीं दिलवा सके तो १० साल तक कोई सरकारी पद नहीं स्वीकारेंगे और दिग्विजय ने अपना कहा कर दिखाया अपना दिया वचन निभाया। इस बार लोकसभा में कांग्रेस ने उ.प्र. में जो जोरदार प्रदर्शन किया उसमें दिग्विजय का योगदान सबसे बडा है और उसके कारण उनके लिए केन्द्र में मंत्री पद हासिल करने का अच्छा मौका था। उन्हें मंत्री पद का ऑफर भी हुआ और इसके बाद भी दिग्विजय ने उसे नहीं स्वीकारा और अपने वादे से चिपके रहे। खुद पार्टी को मजबूत बनाने के लिए काम करेंगे ऐसी घोषणा की। भाजपा के नेताओं को दिग्विजय से प्रेरणा लेनी चाहिए।
जय हिंद
पूज्य माँ
11 वर्ष पहले
1 टिप्पणी:
running commentary ke liye dhanyavad.
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