शुक्रवार, 29 मई 2009

टीम मनमोहन और नाइंसाफी का शोर !

आखिरकार टीम मनमोहन का विस्तार हो गया। मनमोहन सिंह ने अपने कैबिनेट में हर तरह से योग्य बेलेन्स बनाने का प्रयास किया है और उनके इस प्रयास की जितनी सराहना की जाये कम है। मनमोहन सिंह ने 22 मई को शपथ लिया तब उनके साथ जिन 19 मंत्रियों ने शपथ लिया उन्हें देख ऐसा लगता था कि मनमोहन सिंह वही पुराने चेहरे लेकर आये है। वही प्रणब मुखर्जी और वही शरद पवार, वही चिदम्बरम और वही सुशील कुमार शिंदे। लगता था कि कांग्रेसी नेता सिर्फ युवाओं को अवसर देने की बाते ही करते है उसका पालन नहीं करते।
मनमोहन सिंह ने कैबिनेट विस्तार किया उसके बाद इस सोच को बदलना पडेगा। मनमोहन सिंह के कैबिनेट विस्तार में पुराने चेहरे तो है ही लेकिन युवाओं को भी अच्छे प्रमाण में प्रतिनिधित्व दिया गया है। वीरभद्र सिंह और फारुक अबदुल्ला जैसे पुराने चेहरे है वही अगाथा संगमा और सचिन पायलोट जैसे एकदम तरोताजा चेहरे भी है। इस कैबिनेट में मल्लिकार्जुन खरगे और पवन कुमार बंसल जैसे पुराने राजनीतिक खिलाडी है तो शशी थरूर जैसे आंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त डिप्लोमेट और सौगात रे जैसे आइआइएम के प्रोफेसर भी है। इस कैबिनेट में विलासराव देशमुख और जयराम रमेश जैसे संचालन के अनुभवी राजनेता है तो सामने मोहन जतुआ और नमोनारायण मीना जैसे आइएएस-आइपीएस में से राजनेता बने संचालन के अनुभवी भी है। अझागिरि या ए.राजा जैसे लोगों को मनमोहन सिंह ने राजनीतिक मजबूरी के चलते मंत्रीमंडल में शामिल किया है उसे छोड मनमोहन सिंह की कैबिनेट काबिलेतारीफ है।
मनमोहन सिंह ने राज्यों को प्रतिनिधित्व के मामले भी जोरदार बेलेन्स बनाया है। छत्तीसगढ जैसे अपवादरुप राज्यों को छोड कांग्रेस को जहां से भी सफलता मिली या नहीं मिली उन सभी राज्यों को योग्य प्रतिनिधित्व देने का पूरा प्रयास किया गया है। हालांकि इन सभी प्रयासों के बावजूद माथापच्ची तो जारी ही है और उसमें सबसे बडी माथापच्ची यूपी की ओर से उठा नाइंसाफी का शोर है।
मनमोहन सिंह के मंत्रीमंडल में यूपी के पांच मंत्री शामिल है, बावजूद इसके ऐसी शिकायत आ रही है कि यूपी को योग्य संख्या में प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। यूपी में से जिन पांच सांसदों को कैबिनेट में स्थान मिला है उनमें श्रीप्रकाश जायस्वाल और सलमान खुरशीद स्वतंत्र प्रभार के साथ राज्य मंत्री है जबकि जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंघ और प्रदीप जैन राज्य मंत्री है। यूपी में कांग्रेस ने इसबार सचमुच चमत्कार ही किया है और 2004 के लोकसभा चुनाव में जीती हुई 9 बैठक पर से 21 पर पहुंच गई है। ऐसा माना जाता था कि इन हालातों के मद्देनजर कांग्रेस यूपी को ज्यादा महत्व देगी, लेकिन राजनीतिक कारणों के चलते यह संभव नहीं हो पाया। मनमोहन सिंह का मंत्रीमंडल अभी 78 सदस्यों का है और उसमें से 19 सदस्य तो समर्थक दलों के है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस के पास मनमोहन सिंह को छोड 59 सदस्य बचे और उसमें से कांग्रेस अगर यूपी के पांच को मंत्री बनाए तो यह प्रमाण बराबर ही कहा जाएगा। अब बताइए भला इसमें यूपी के साथ कहां नाइंसाफी हुई।
हालांकि राजनीतिज्ञ अपने फायदे के लिए कुछ भी कर सकते है और यूपी में जो लोग लटक गये है वे यही काम कर रहे है। उनका दावा है कि यूपी की जनता ने कांग्रेस को दोनों हाथों से वोट दिया है बावजूद इसके कांग्रेस ने यूपी के किसी भी सांसद को कैबिनेट मंत्री नहीं बनाकर नाइंसाफी की है।
इस माथापच्ची के पीछे बेनी प्रसाद वर्मा और पी.एल.पुनिया जैसे नेता है जो ऐसा मानकर चलते थे कि उनका कैबिनेट प्रवेश निश्चित है लेकिन अंतिम घडी में उनकी शामिलगिरी नहीं हुई इसलिए वे बौखला गए है। बेनी प्रसाद वर्मा और पी.एल.पुनिया की मनमोहन सिंह कैबिनेट में शामिलगिरी नहीं हुई इसके पीछे दो कारण है। पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण कांग्रेस के वोटबैंक का समीकरण है। यूपी में कांग्रेस का वोटबैंक मुस्लिम, ब्राह्मण, सवर्ण और अन्य पिछडी जाति के लोगों का है। कांग्रेस का यूपी में दबदबा नहीं था उसके पीछे कारण यह था कि सालों से कांग्रेस के साथ रहे मुस्लिम मुलायम की ओर खींचे चले गए और ब्राह्मण-सवर्णो को पहले भाजपा ने और बाद में मायावती ने अपनी ओर खींच लिया। अभी कांग्रेस यूपी में फिर से उठ खडी हुई है इसका कारण भी यही है कि मुस्लिम और ब्राह्मण-सवर्ण वापिस कांग्रेस की ओर मुडे है। ओबीसी का अमुक वर्ग कांग्रेस के साथ था ही इसलिए यह वोटबैंक वापिस मिला और कांग्रेस का बेडा पार हो गया। कांग्रेस ने इन बाबतो के मद्देनजर मंत्रियों की पसंदगी की है। श्रीप्रकाश जायस्वाल ओबीसी के है जबकि जितिन प्रसाद ब्राह्मण है। सलमान खुरशीद मुस्लिम है जबकि प्रदीप जैन और सिंघ सवर्ण है। कांग्रेस को अभी अपनी इस वोटबैंक मजबूत करने की जरुरत लगी इसलिए उसने इन पांच को पसंद किया।
कांग्रेस ने बेनी प्रसाद वर्मा और पुनिया को पसंद नहीं किया इसके पीछे दूसरा राजनीतिक कारण मुलामय सिंह यादव और मायावती है। बेनी प्रसाद वर्मा मूल समाजवादी पार्टी के आदमी है और मुलामय सिंह को छोडकर आये है और इसी तरह पुनिया मायावती के खास माने जाते थे और बाद में मेडम को छोड कांग्रेस में आ गए है। बेनी प्रसाद की शामिलगिरी के सामने मुलायम सिंह को आपत्ति है जबकि पुनिया के नाम से ही मायावती गिन्नाती है। अभी कांग्रेस की सरकार मुलायम और मायावती दोनों के समर्थन पर टिकी हुई है। कांग्रेस को जिस प्रमाण में बैठके मिली है उसे देखते हुए उसे मुलायम या मायावती दोनों में से किसी की भी जरुरत नहीं है और यह लोग समर्थन दे या ना दे कोई फर्क नहीं पडता लेकिन कांग्रेस सामने चलकर क्यों दुश्मनी मोड ले। अभी वैसे भी कोई चुनाव नहीं है तो फालतू में माथापच्ची करने से क्या फायदा, ऐसा समझ कांग्रेस ने बेनी प्रसाद और पुनिया को एक ओर रख समझदारी बर्ती है। वैसे भी बेनी प्रसाद या पुनिया कोई बडी तोप तो है नहीं कि यह लोग नाराज हो जायेंगे तो कांग्रेस का जहाज डूब जाये फिर चिंता करने की कोई जरुरत ही नहीं है। ऐसे बेबुनियाद मुद्दों से कोई फर्क नहीं पडता। आखिर में, टीम मनमोहन को पूरे देश की ओर से शुभकामनाएं।
जय हिंद

गुरुवार, 28 मई 2009

टीम मनमोहन का कुनबा

आईए, देखते है टीम मनमोहन के नये कुनबे में क्या है। पिछले एक हफ्ते से चल रहे रुठने-मनाने का सिलसिला थम गया है और मनमोहन सिंह कैबिनेट विस्तार की पहेली बूझ गई है और आज 59 मंत्रियों के शपथ ग्रहण के साथ मनमोहन सिंह कैबिनेट रचना की कवायद पूर्ण हो जायेगी। 59 मंत्रियों की शपथ के साथ मनमोहन सिंह कैबिनेट की संख्या बढकर 78 पर पहुंच जायेगी। यह संख्या पिछली बार जितनी ही है। हमारे यहां संविधान में संशोधन हुआ उसके बाद प्रधानमंत्री लोकसभा के सदस्यों की संख्या के 15 प्रतिशत जितने मंत्रियों को अपने मंत्रीमंडल में शामिल कर सकते है उस हिसाब से मनमोहन सिंह अपने मंत्रीमंडल में 81 सदस्यों को शामिल कर सकते है। मनमोहन सिंह ने दो चरण में ही 78 सदस्यों को शामिल कर लिया है। मनमोहन सिंह ने मंत्रीमंडल में ज्यादा बदलाव की गुंजाइश नहीं रखी है। हालांकि मनमोहन सिंह अभी दूसरे तीन सदस्यों को शामिल कर सकते है लेकिन उन्होंने यह जगह इमरजन्सी के लिए रखी है।
मनमोहन सिंह ने दूसरे चरण में जिन्हें चुना है उसमें से अधिकांश नाम पूर्व निर्धारित है और नये मंत्रियों में भी कैबिनेट या राज्य में जिन्हें बिठाया गया है उसमें भी नयापन कम है। हालांकि कुछ नया नहीं ऐसा भी नहीं है। कैबिनेट मंत्रियों में करुणानिधि के दो रिश्तेदार और तीसरे ए.राजा का नाम पूर्व निर्धारित है। इन तीनों में से दयानिधि मारन को छोड बाकी के दो की योग्यता कैबिनेट मंत्री बनने की नहीं है लेकिन मनमोहन सिंह को उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाये बिना चलता भी नहीं इसलिए उनको निभा लिया गया। ए.राजा और अझागिरि के किस्से में तो मनमोहन सिंह की राजनीतिक मजबूरी थी लेकिन कुमारी सेलजा किस आधार पर कैबिनेट रेन्क में आ गई यह पता नहीं चलता। सेलजा 1990 में लोकसभा में पहली बार चुने जाने के बाद नरसिंहराव सरकार में मंत्री बनी थी। 1996 में वे फिर से चुनी गई लेकिन 1998 और 1999 में हार गई। सेलजा के पिता चौधरी दलबीरसिंह हरियाणा के दलित नेता थे और उसी कारण सेलजा भी राजनीति में आ गई। सेलजा दो बार केन्द्रीय मंत्रीमंडल में आई लेकिन उनका कामकाज ऐसा नहीं था कि उन्हें कैबिनेट की रेन्क मिल जाये। दूसरी ओर मनमोहन सिंह ने राज्य मंत्रियों में जिन्हें चुना है उसमें ही कुछेक लोग ऐसे है जो सेलजा से सिनियर है और उनसे भी ज्यादा सक्षम है। महत्वपूर्ण बात यह है कि वे लोग उनकी क्षमता साबित कर चुके है। उदाहरण के तौर पर जैसे कि, प्रफुल पटेल, जयराम रमेश, दिनशा पटेल। मनमोहन सिंह ने उन्हें स्वतंत्र चार्ज के साथ चाहे राज्य मंत्री बनाया हो लेकिन वे लोग सेलजा से निम्न श्रेणी में गिने जायेंगे। इसी तरह शशी थरूर या भरतसिंह सोलंकी जैसे सांसद राज्यमंत्री के रुप में है और इन लोगों को तो दूसरे किसी कैबिनेट मंत्री के हाथ के नीचे काम करना पडेगा। हो सकता है उन्हें सेलजा के हाथ के नीचे ही काम करना पडे। शशी थरूर चाहे लोकसभा में पहली बार चुने गये हो लेकिन इसमें दो राय नहीं कि उनका अनुभव देखते हुए वे कैबिनेट मंत्री बनने की योग्यता रखते है और बावजूद इसके उनके जैसे लोगों को एक ओर रख सेलजा जैसो को कैबिनेट रेन्क मिला यह बडे आश्वर्य की बात है। सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को जैसा ठीक लगे वैसा। हो सकता है कि इसके पीछे भी उनकी कोई गिनती होगी जो हमारे जैसो के समझ में ना आये।
मनमोहन सिंह की बिदा होनेवाली कैबिनेट में ज्योतिरादित्य सिंधिया थे उन्हें यथावत रखा गया है। राहुल गांधी ब्रिगेड के ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलोट और जितिन प्रसाद को मनमोहन सिंह कैबिनेट में जगह दे दी गई है और एकमात्र मिलिन्द देवरा ही बाकी रह गये है। मिलिन्द देवरा के पिताजी मुरली देवरा पहले ही कैबिनेट मंत्री पद पर बैठ गये है इसलिए शायद मिलिन्द का पत्ता कट गया हो।
मनमोहन सिंह के बिदा होते मंत्रीमंडल में गुजरात में से तीन मंत्री थे और उसमें से एक केन्द्रीय और दो राज्य मंत्री थे। शंकरसिंह वाघेला केन्द्रीय मंत्री थे जबकि नारणभाई राठवा और दिनशा पटेल राज्यमंत्री थे। शंकरसिंह बापु और नारण राठवा चुनाव हार गये इसलिए यह दो जगह खाली थी और उनके स्थान पर भरतसिंह सोलंकी और तुषार चौधरी आ गये। यह दोनों राज्य मंत्री है। दिनशा पटेल को यथावत रखा गया है और उन्हें भी राज्य मंत्री पद पर बिठाया गया है। हालांकि उन्हें स्वतंत्र चार्ज दिया गया है यानि कि केन्द्रीय कक्षा का दर्जा। दिनशा जैसे-तैसे करके 800 वोट से चुनाव जीते अगर भारी लीड के साथ जीतते तो शायद शंकरसिंह बापु की जगह केन्द्रीय मंत्री बने होते।
मनमोहन सिंह कैबिनेट में सबसे खास बात है अगाथा संगमा की पसंदगी। 24 जुलाई 1980 के दिन पैदा हुई अगाथा संगमा की उम्र महज 29 साल है और इतनी छोटी उम्र में अगाथा की पसंदगी केन्द्रीय मंत्रीमंडल में हुई यह वाकई इस देश के युवाओं के लिए बहुत अच्छी खबर है। माना कि अगाथा संगमा को राजनीति विरासत में मिली है। उनके पिता पूर्णो संगमा किसी समय में लोकसभा के स्पीकर थे और मेघालय में उनका एकचक्री शासन है। अगाथा पूर्णो संगमा की बेटी न होती तो राजनीति में आ सकती थी यह बहुत बडा सवाल है। हालांकि इन सारी बातों को एक ओर रख 2९ साल की युवती इस देश में मंत्री बने यह चमत्कार ही तो है और उन्हें मिला यह मौका इस देश के युवाओं को मिला अवसर ही है। इस देश में बूढे राजनीतिज्ञ युवाओं को मौका दे यही बडी बात है और हम सभी चाहेंगे कि अगाथा उसे दिये इस गए मौके को समझे और कामयाब हो।
जय हिंद

बुधवार, 27 मई 2009

द्रमुक के सामने कांग्रेस का आत्मसमर्पण और ममता की धमाकेदार शुरुआत

मनमोहन सिंह सरकार का शपथ ग्रहण पूरा हो गया लेकिन यूपीए के समर्थक दलों की खींचातान अभी खत्म नहीं हुई है। कैबिनेट विभागों में पदों और मंत्रालयों के बंटवारे का मामला अभी भी अनसुलझा ही है। मनमोहन सिंह ने शुक्रवार को प्रधानमंत्री पद का शपथ ग्रहण किया उस समय ऐसा कहा जाता था कि उनके साथ ८० मंत्रियों का जबरदस्त मंत्रिमंडल शपथ लेगा लेकिन द्रमुक की गीदडभभकी के कारण मनमोहन सिंह को ८० के बजाय १९ मंत्रियों के साथ शपथ लेकर अपनी ताजपोशी पूरी करनी पडी। उस समय ऐसी घोषणा हुई थी कि देश की कीमत पर अपने स्वार्थ की खेती करनेवाले द्रमुक सुप्रीमो करुणानिधि गीदडभभकी दिखा रहे है इसलिए छोटा मंत्रिमंडल रखना पडा है लेकिन करुणानिधि को दो-चार दिनों में मना लिया जाएगा और दूसरे ६० मंत्रियों को शपथ दिलवाकर आंकडा ८० पर पहुंचा दिया जाएगा। कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने खुद इसमें दिलचस्पी ली इसलिए करुणानिधि तो सीधे हो गए और कैबिनेट में अपनी पार्टी के ९ सदस्यों को शामिल करने की जिद्द छोड सात मंत्री पद में मान गए लेकिन ऐसा कहा जाता है कि अब मेडम ममता ने करुणानिधि की राह पकडी है और उसके कारण मंगलवार को जो विस्तार होनेवाला था उसमें रुकावट आ गई है। अब ममता को मनाकर बृहस्पतिवार को इसका विस्तार किया जाएगा।
ममता ने एक हफ्ते में दूसरी बार आपत्ति जताई है इससे पहले शुक्रवार को उन्होंने शपथ ग्रहण किया लेकिन उनकी पार्टी के दूसरे लोगों का शपथ ग्रहण नहीं हुआ इसलिए वह बौखला गई और अपने दूसरे साथियों के साथ ही अपना प्रभार संभालेगी ऐसा कह कोलकाता चली गई थी। कांग्रेस के नेताओं ने इस मामले ममता को जैसे-तैसे मनाया वहीं ममता को कैबिनेट में उनको दिए जानेवाले विभागों के मामले आपत्ति हुई है। कांग्रेस ने करुणानिधि को मनाने के लिए उन्हें सात विभाग देने की तैयारी दिखाई है इसलिए ममता बौखलाई है। यूपीए में ममता की पार्टी कांग्रेस के बाद लोकसभा में सबसे ज्यादा सदस्य वाली है और उस हिसाब से कांग्रेस के बाद ममता को सबसे ज्यादा मंत्री पद मिलने चाहिए। करुणानिधि के द्रमुक के लोकसभा में १८ सदस्य है और इसके बावजूद वे कांग्रेस को ब्लेकमेइलिंग कर तीन कैबिनेट मंत्री पद और चार राज्य मंत्री पद हडपने के फिराक में हो तो भला ममता क्यों पीछे रहे? लोकसभा में द्रमुक से ममता की पार्टी में एक सदस्य ज्यादा है उस हिसाब से उन्हें ज्यादा विभाग मांगने का अधिकार है।
शायद ममता को अब ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस ने एक कैबिनेट और पांच राज्य मंत्रीपद देकर उन्हें फुसलाया है। द्रमुक के सुप्रीमो करुणानिधि अपने बेटे-बेटियों से लेकर भतीजे तक के रिश्तेदारों के लिए कैबिनेट मंत्रीपद मांग सकते है और इस बहाने कांग्रेस को ब्लेकमेइलिंग कर सकते है तो ममता भी ऐसा करे इसमें गलत क्या है। ममता को भी अपनी पार्टी चलानी है।
अब देखना यह है कि कांग्रेस ममता को किस तरह मनाती है। लोकसभा के चुनाव परिणाम घोषित हुए और जिस तरह जनादेश मिला और कांग्रेस ने जो तेवर दिखाए तब ऐसी उम्मीद जगी थी कि कांग्रेस उसे ब्लेकमेइल करनेवाली और इस देश को नुकसान पहुंचानेवाली क्षेत्रीय पार्टियों को कमजोर बना देगी और उन्हें ठिकाने लगा देगी। लेकिन एक हफ्ते में कांग्रेस का बल ढीला हो गया है और लगता है कि उसने क्षेत्रीय पार्टियों को फुसलाने का काम फिर से शुरु कर दिया है।
यह समझा जा सकता है कि कांग्रेस को कुछेक समाधान करने पडेंगे। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने में मदद करनेवाली पार्टियों को सत्ता में योग्य हिस्सेदारी मिलनी चाहिए लेकिन कांग्रेस ने द्रमुक के मामले जो रवैया अपनाया वह समाधान नहीं बल्कि आत्मसमर्पण है। करुणानिधि राजनीतिक ब्लेकमेइलिंग में उत्साद है और कांग्रेस को इसका कडवा अनुभव अच्छी तरह हो चुका है उसे देखने के बाद कांग्रेस को सावधान होने की जरुरत थी। करुणानिधि ने खुद को ९ विभाग नहीं मिलेंगे तो वे सरकार में नहीं जुडेंगे ऐसी बात की तभी कांग्रेस को कह देना चाहिए था कि आपकी कोई जरुरत नहीं है। द्रमुक के साथ कांग्रेस ने चुनाव पूर्व समझौता किया था इसलिए उसे सत्ता में हिस्सेदारी देना कांग्रेस का फर्ज था लेकिन इस तरह ब्लेकमेइलिंग के बाद हरगिज नहीं। करुणानिधि को मनाया उसमें अब ममता ने भी वही रास्ता अपनाया है और अब कांग्रेस को उन्हें मनाने में चार दिन बिगाडने पडेंगे तब तक कोई दूसरा खडा हो जायेगा।
करुणानिधि का बेटा अझागिरि, उनकी तीसरी शादी से हुई बेटी कनीमोझी और भतीजा मुरासोली मारन का बेटा दयानिधि मारन यूं तीन-तीन रिश्तेदारों को करुणानिधि ने कैबिनेट में घुसाने का तख्ता बनाया है। करुणानिधि के रिश्तेदार होने के अलावा इन तीनों की और कोई योग्यता नहीं है। करुणानिधि बडी बेशर्मी के साथ अपने पूरे खानदान को मंत्रीपद दिलाने के लिए नाटक कर रहे है। कांग्रेस करुणानिधि की ब्लेकमेइलिंग हमेशा के लिए बंद हो जाये ऐसा करने का मौका गंवा चुकी है और इसकी कीमत कांग्रेस के साथ-साथ पूरे देश को चुकाना पडेगा। खैर, ममता ने रेल मंत्रालय का प्रभार संभाल लिया यह कांग्रेस के लिए अच्छी खबर है। ममता बनर्जी ने रेल मंत्रालय का प्रभार संभालते ही गरीबों के लिए सिर्फ २० रु. में मासिक पास की घोषणा की। इस घोषणा का लाभ गरीबों तक पहुंचता है या नहीं यह पता नहीं लेकिन इसमें दो राय नहीं कि ममता की यह शुरुआत धमाकेदार है।
जय हिंद

शुक्रवार, 22 मई 2009

मनमोहन सिंह : अर्थशास्त्री से लेकर परिपक्व राजनेता


मनमोहन सिंह का राजनीतिक सफर : मनमोहन सिंह क्रम के मुताबिक देश के 18वें प्रधानमंत्री है जबकि व्यक्तिगत रुप से देश के 14वें प्रधानमंत्री है। मनमोहन सिंह दूसरी टर्म के लिए प्रधानमंत्री पद पर बैठनेवाले पांचवे प्रधानमंत्री है। मनमोहन सिंह से पहले जवाहर लाल नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी ने यह सिध्धि हासिल की है। राजीव गांधी इंदिरा गांधी की हत्या के बाद बहुत कम समय के लिए प्रधानमंत्री पद पर बैठे थे और बाद में तुरंत ही लोकसभा चुनाव आ गए थे जिसमें वे भारी बहुमती से फिर से सत्ता में आए थे। प्रधानमंत्री पद के पांच साल पूरे करने के बाद सतत दूसरी टर्म के लिए प्रधानमंत्री पद पर बैठने वाले मनमोहन सिंह जवाहर लाल नेहरु के बाद दूसरे प्रधानमंत्री है। इंदिरा गांधी १९६७ में प्रधानमंत्री पद पर बैठी थी लेकिन १९७२ में उनकी टर्म पूरी हो उससे पहले ही उन्होंने लोकसभा का विसर्जन करवा कर चुनाव घोषित करवा दिया था और उसमें वे भारी बहुमती के साथ चुनकर आई थी लेकिन उनकी पहले की टर्म पांच साल की नहीं थी। मनमोहन सिंह पहले ऐसे प्रधानमंत्री है जिन्होंने लोकसभा चुनाव नहीं लडा और बाद में प्रधानमंत्री बने हो। इससे पहले इंदिरा गांधी और इन्दरकुमार गुजराल दोनों लोकसभा में बिना चुने ही प्रधानमंत्री पद पर बैठे थे लेकिन मनमोहन सिंह की तरह लोकसभा चुनाव लडे बिना ही प्रधानमंत्री पद पर नहीं बैठे थे। मनमोहन सिंह पांच साल की टर्म पूरी करने वाले जवाहर लाल नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिंहराव और अटल बिहारी वाजपेयी के बाद छठे प्रधानमंत्री है।
आज मनमोहन सिंह की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी होगी उसके साथ ही देश में एक नए युग की शुरुआत होगी और सभी की नजरें इसके बाद मनमोहनसिंह क्या करेंगे इस पर टिकी हुई है।
कांग्रेस को मिली जीत के लिए राहुल गांधी और सोनिया गांधी का जीतना योगदान है उतना ही योगदान मनमोहन सिंह का भी है। भाजपा ने आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था और उसके सामने कांग्रेस ने मनमोहन सिंह को अपना उम्मीदवार घोषित किया था। जनता ने मनमोहन सिंह को पसंद किया क्योंकि मनमोहन सिंह आडवाणी से ज्यादा ईमानदार है, ज्यादा कार्यदक्ष नेता है।
जनता ने मनमोहन सिंह को पसंद किया इसके पीछे एक कारण उनकी अर्थशास्त्र के बारे में समझ है और इस देश में दस में से नौ लोग यह मानते है कि अभी वैश्विक मंदी के माहौल में मनमोहन सिंह ही इस देश को सही मार्गदर्शन दे सकते है। इस देश को विकास की बुलंदियों पर ले जा सकते है। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने उससे पहले ही उन्होंने अपना एजन्डा सेट कर दिया है और आर्थिक बाबत में नौकरियां बढाने से लेकर आर्थिक विकास दर बढाने तक की घोषणाएं की है लेकिन सिर्फ घोषणाएं करने से कुछ नहीं होता, इसके लिए काम करना पडता है। अब देखना यह है कि मनमोहन सिंह इस मामले क्या करते है। मनमोहन सिंह क्या करते है यह तो वक्त आने पर पता चलेगा ही लेकिन कांग्रेस ने चुनावी घोषणा पत्र में दिए वादों को पूरा करने की कवायद शुरु की है और उनकी यह पहल अच्छी शुरुआत है।
कांग्रेस ने यह जिम्मेदारी सीधे मंत्रियों पर डाली है और हरेक मंत्रालय के पास से आगामी १०० दिन में वे क्या करेंगे इसका रिपोर्ट पहले से मांग लिया है। यह पहल दो तरह से महत्वपूर्ण है। एक तो हमारे यहां राजनीतिक पार्टियां उनके चुनावी घोषणापत्र में जो वादे करती है वह सिर्फ घोषणा तक ही सीमित होता है और वे लोग ऐसा मानते है कि उसका अमल नहीं करना होता।
अभी तक ऐसा ही चलता रहा है और कोई भी पार्टी चुनावी घोषणापत्र का पालन करने में मानती नहीं और लोग उसका हिसाब मांगते नहीं। मनमोहन सिंह जो कुछ भी कर रहे है वह सब चुनावी घोषणापत्र और किए वादों की विश्वसनीयता साबित करने की कवायद है और यह जरुरी भी है। दूसरा फायदा सरकारी तंत्र में संचालन है। इस देश में सरकारी कामकाज बैलगाडी की तरह चलता है तब इन कोशिशों से थोडा बहुत फर्क तो पडेगा ही। मनमोहन सिंह के लिए यह समय उनकी परीक्षा का समय है। मनमोहन सिंह से इस देश की जनता को बहुत सारी अपेक्षाएं है लेकिन फिलहाल पूरे देश की ओर से उन्हें मुबारकबाद।
जय हिंद
प्रधानमंत्री का पता :- ७, रेसकोर्स रोड, नई दिल्ली
E-mail:manmohan@sansad.nic.in

गुरुवार, 21 मई 2009

जीत के कदम सावधानी के साथ...

जीत हर किसी का आत्मविश्वास बढा देती है। लोकसभा चुनाव प्रचार चल रहा था तब कांग्रेस सरकार गठित करने के लिए जरुरी बहुमती मिलेगी या नहीं इस असमंजस में थी और उसके कारण कांग्रेस को लालूप्रसाद यादव, रामविलास पासवान और मुलायम सिंह जैसे ब्लेकमेइलर्स से लेकर वामपंथी जैसे गद्दारों तक के सभी के हाथ-पैर जोडने पडते थे। हद तो इस बात कि हो गई कि जिनका इस देश के विकास में कोई हिस्सेदारी नहीं है ऐसे वामपंथियों को कांग्रेस के महामंत्री राहुल गांधी को अपने साथ रहने के लिए बिनती करनी पडती थी।
लोकसभा चुनाव परिणाम आए और कांग्रेस ने जो छलांग लगाई उसके साथ ही कांग्रेस के तेवर ही बदल गए है और अब तक झुककर चलने वाली कांग्रेस मजबूत बन गई है। बुधवार को कांग्रेस ने उसके सहयोगी दलों की बैठक बुलाई और उसमें उसके इस बदले तेवर का मिजाज सबको अच्छी तरह से मिल गया। कांग्रेस की झपट में सबसे पहले लालूप्रसाद यादव और रामविलास पासवान आ गए है। लालूप्रसाद यादव, रामविलास पासवान और मुलायम सिंह ने कांग्रेस को चुनाव प्रचार के समय बहुत सताया और कांग्रेस उसका हिसाब बराबर करने में लगी है। बुधवार को युपीए के सहयोगी दलों की बैठक मिली तब रामविलास पासवान और लालूप्रसाद यादव को अलग रख कांग्रेस ने सबसे पहला झटका मारा। रामविलास पासवान के पास पांच साल तक बैठे-बैठे भजन गाने के अलावा कुछ नहीं रहा इसलिए उन्हें यूपीए की बैठक में आमंत्रण देने का कोई सवाल ही नहीं था लेकिन लालूप्रसाद यादव तो चार बैठक जीतकर आए है और उसके बावजूद कांग्रेस ने उन्हें एक ओर रख दिया। ढीलेढाले लालू अब कांग्रेस के साथ रिश्ता सुधारने में लगे हुए है और चुनाव से पहले यूपीए की बैठक मिलेगी और उसमें नेता चुने जाएंगे ऐसे फाके मारने वाले लालू ने यूपीए को बिना शर्त के समर्थन देने का पत्र राष्ट्रपति को दिया उसके बाद भी सोनिया गांधी एक की दो न हुई। लालू ने सोनिया गांधी और उनके परिवार के साथ अपने रिश्तों की दुहाई भी देकर देखा लेकिन सब पत्थर पर पानी डालने जैसा था। सोनिया गांधी ने एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया। देखना यह है कि लालू अब कौन सा नया खेल खेलेंगे लेकिन सोनिया गांधी लालू को चान्स दे ऐसी संभावना बहुत कम है। अभी तो लालू की हालत ‘धोबी का कुत्ता न घर का न घाट’ का जैसी है। लालू अभी उन पलों को कोसते होंगे जब मुलायम सिंह यादव और रामविलास पासवान जैसे बिना दिमाग वाले लोगों की संगत में उनकी भी मति मारी गई और बिहार में कांग्रेस के साथ नाता तोड पासवान की संगत में चुनाव लडने का निर्णय लिया था। पासवान के दिमाग के दम चलते हुए लालू खुद ही पांच साल के लिए लटक गये है। बिहार में नीतिश कुमार ने जिस तरह सिक्स लगाया और अपने कीले मजबूत किए उसे देख विधानसभा चुनाव में भी लालू का चान्स गया ही समझो। कांग्रेस ने लालू से किनारा किया यह बहुत अच्छी निशानी है और इस पर से उम्मीद जगती है कि कांग्रेस मुलायम सिंह और मायावती जैसे मौकापरस्तों की जमात के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करेगी। कांग्रेस ऐसा व्यवहार करे इसमें कुछ गलत भी नहीं है। उसे ऐसा करने का पूरा हक है। कांग्रेस ने उसके बदले रवैये का चमत्कार ममता बेनर्जी को भी दिखा दिया है। ममता बेनर्जी ने इस बार वामपंथियों के घर में घूस उन्हें घूसे मारे है इससे इंकार नहीं किया जा सकता और अभी तो वे यूपीए में सबसे बडे दल के रुप में है फिर भी कांग्रेस ने उन्हें भी सीमा में रहने को कह दिया है। ममता बेनर्जी ने यूपीए की बैठक में होशियारी दिखा यूपीए सरकार को चलाने के लिए कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बनाना चाहिए ऐसा कहा और कांग्रेस ने ममता की बात को कचरे के डिब्बे में डाल दिया। कांग्रेस की बात साफ है। यूपीए का अपना एजन्डा है ही और इसी एजन्डे के आधार पर कांग्रेस ने चुनाव लडा है और अब जब सरकार बनने वाली है तो उसी एजन्डे को आगे बढाना है तो कॉमन मिनिमम प्रोग्राम की जरुरत ही कहां है। कांग्रेस ने यूपीए के जरिए चुनावी घोषणापत्र में दिए वादों को पूरा करने के लिए हरेक मंत्रालय के मंत्री पर जिम्मेदारी डालने का निर्णय लिया ही है उसे देख और कोई जरुरत है ही नहीं।
कांग्रेस के यह बदले तेवर उसके सहयोगी दलों को पसंद नहीं आयेंगे लेकिन इस देश के लिए यह जरुरी है। इस देश में पिछले एक दशक के दौरान जो राजनीतिक उतार-चढाव देखने को मिले उसमें क्षेत्रीय दलों ने नाक में दम कर रखा है और इस देश के विकास या प्रगति की चिंता करने के बजाय अपने तुच्छ अहम की संतुष्टि में लग गए थे। उन्हें संतुष्टि देने में ही पांच साल पूरे हो जाते थे और आखिर में दोष का ठिकरा जिसकी भी सरकार हो उस पर फोडा जाता था।
इसबार स्थिति बदल गई है और कांग्रेस अपनी ताकत पर फिर से सत्ता में आई है उसे देख वह क्षेत्रीय पार्टियों की अक्ल ठिकाने लाने के लिए जो भी करे वह सब जायज है और माफ भी है।
देश की राजनीति के लिए पांच साल महत्वपूर्ण है और इन पांच साल में देश के बडे-बडे राज्यों में से जितने हो सके उतने क्षेत्रीय दलें खत्म हो जाये यह जरुरी है। कांग्रेस आनेवाले पांच सालों में दूसरा कुछ करे ना करे लेकिन इतना करे यही बहुत है। इस देश में क्षेत्रीय दलों को सिर आंखों पर बिठाने का पाप भाजपा ने शुरु किया था। भाजपा में अपनी ताकत पर सत्ता हासिल करने जितना धैर्य नहीं था इसलिए उसने क्षेत्रीय दलों को कंधे पर बिठाकर सत्ता हासिल की और उसके बाद हालत यह हो गई कि यह लोग कंधे से सिर पर ही बैठ गये। भाजपा ने जिस पाप की शुरुआत की थी उसे कांग्रेस ने भी किया क्योंकि यह राजनीतिक मजबूरी थी। अब कांग्रेस की कोई राजनीतिक मजबूरी नहीं है तब कांग्रेस उसके इस पाप का प्रायश्चित करे यह जरुरी है। भाजपा को तो लोगों ने लगातार १० साल तक सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा उसके पाप की सजा दे दी है।
जय हिंद

बुधवार, 20 मई 2009

माया-मुलायम के बदलते रंग

अभी केन्द्र में कांग्रेस को समर्थन देने के लिए जिस तरह अफरा-तफरी मची है उसे देख कुछ पंक्तियां याद आ रही है कि, चढता सूरज देख सभी लगे नमन की होड, ढलते सूरज से सभी लेते नाता तोड.... लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने जिस तरह हल्ला बोला उसके कारण अधिकांश राजनीतिक पार्टियों के नेतागण बौखला गये थे। कांग्रेस इस तरह सबका काम तमाम कर अकेले सरकार बनाने के इतने करीब पहुंच जाएगी ऐसी किसी को भी कल्पना नहीं थी। कांग्रेस में सोनिया गांधी और मनमोहनसिंह को पायलागु करने के लिए भीड जमी है। अभी पंद्रह दिन पहले ही जिन-जिन नेताओं ने कांग्रेस को बुरा-भला कहा वे सभी कांग्रेस को समर्थन देने के लिए पत्र लेकर दौडते नजर आ रहे है। जो कांग्रेस को औंधे मुंह गिराने के कसमें खाते थे वे सभी अब बिना शर्त के समर्थन देने को आगे आए है। गिरगिट की तरह रंग बदलते राजनीतिज्ञों ने मौसम देख अपना रंग बदल लिया है।
ऐसे मौसम के चलते समर्थन देने की भीड में कांग्रेस को मिटा देने की कसमें खानेवाली मायावती से लेकर मुलायम सिंह, तीसरा मोरचा खोलने वाले देवगौडा से लेकर अजितसिंह जैसे मौकापरस्त भी शामिल है। ऐसे में मौसम देख रंग बदलने वालों में लालू और पासवान की जमात भला पीछे कहा रहती।
कांग्रेस की सरकार बनेगी यह निश्चित है लेकिन सरकार बनाने में उसे थोडे से समर्थन की जरुरत है यह भी एक हकीकत है। ऐसी जमात में से कुछेक को लिए बिना चलेगा भी नहीं। लेकिन कांग्रेस इस मामले थोडी सावधानी बरते यह बेहद जरुरी है। देवगौडा या अजित सिंह छोटे खिलाडी है और उनकी औकात ज्यादा नहीं है और लालूप्रसाद यादव तो पांच साल कांग्रेस के साथ रहे और कांग्रेस की सरकार उनका समर्थन ले तो उसमें ज्यादा दिक्कत नहीं है और कांग्रेस के लिए नुकसान भी नहीं है लेकिन मायावती और मुलायमसिंह के मामले कांग्रेस को बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता है। कांग्रेस इनसे दूरी बनाये रखे यह कांग्रेस और देश दोनों की भलाई में है। मायावती और मुलायम सिंह अभी कांग्रेस को समर्थन देने के लिए जो भागदौड कर रहे है उसके मूल में कांग्रेस का जबरदस्त परफोर्मन्स तो है ही लेकिन उसके साथ-साथ एक प्रकार का डर भी है। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में ८० में से २१ बैठकें जीती है जबकि मायावती और मुलायम का उससे दो-पांच बैठके ज्यादा है। १६ मई को जब परिणाम घोषित हुए तब तक कांग्रेस को भी इतने अच्छे परफोर्मन्स का अंदाजा नहीं था। राहुल गांधी ने पिछले तीन साल से उत्तर प्रदेश में डेरा डाल रखा लेकिन उसके बाद भी कांग्रेस ने पिछले २००७ के विधानसभा चुनाव में कुछ नहीं पाया और मायावती स्पष्ट बहुमती हासिल कर गद्दी पर बैठ गई। उसके कारण कांग्रेसियों को भी ज्यादा उम्मीद नहीं थी। मायावती अपने रुआब-रुतबे में घूमती है इसलिए ऐसे परफोर्मन्स के बाद चने के पेड पर थी। राहुल गांधी अपने चुनाव प्रचार के भाग रुप गरीबो से मिलते, उनके यहां खाना खाते या उनके यहां रुकते और मायावती उसका मजाक उडाती और कहती कि इस तरह झौपडे में रहने से सत्ता नहीं मिलती। राहुल गांधी इन सभी बातों को एक कान से सुनते और दूसरे कान से निकाल देते और आज परिणाम सबके सामने है।
राहुल गांधी ने अपना इरादा घोषित कर ही दिया है कि इसके बाद के चुनाव में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बनाना चाहती है और इस घोषणा ने मायावती-मुलायम सिंह की नींद उडा दी है। अगर राहुल गांधी तीन साल में कांग्रेस को फिर से खडा कर दे और उनके मुकाबले पहुंचे तो उनके लिए उत्तर प्रदेश में फिर से सत्ता हासिल करना मुश्किल नहीं यह अहसास मायावती और मुलायम दोनों को हो गया है। इसलिए यह दोनों कांग्रेस से दोस्ती करने के लिए बैचेन है।
हालांकि कांग्रेस को उनकी दोस्ती नकार देनी चाहिए क्योंकि उसे इन दोनों में से किसी की जरुरत नहीं है। अगर कांग्रेस इन दोनों में से किसी एक को साथ लेगी तो यह उसकी सबसे बडी गलती होगी और उत्तर प्रदेश में फिर से सत्ता पर काबिज होने की उसकी इच्छा पर पानी फिर जायेगा। इस बार लोगों ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को इसलिए पसंद किया कि वह अपनी ताकत पर लडती थी लेकिन अब अगर मायावती-मुलायम सिंह को साथ रखेगी तो लोग कांग्रेस को मत क्यों दे ? मायावती जिस थाली में खाये उसी में छेद करने से बाज नहीं आती और इसका कडवा अनुभव भाजपा को हुआ है। भाजपा उत्तर प्रदेश से मिट गया उसके मूल में मायावती को आगे बढाने की गलती थी। भाजपा के नेताओं को तो उस गलती का अहसास कभी नहीं हुआ और वे तो बार-बार मायावती की पालखी उठा कर घूमते रहे लेकिन कांग्रेस को ऐसी गलती नहीं करनी चाहिए। मायावती और मुलायम सिंह इस देश के लिए खतरा है यह कहने की जरुरत नहीं। दोनों की राजनीति संकुचित है और यह दोनों सत्ता लालसा के लिए इस देश के लोगों को जाति के आधार पर विभाजित कर रहे है। कांग्रेस पर जनता ने भरोसा किया है माया या मुलायम पर नहीं। कांग्रेस ने जिस तरह क्षेत्रीय दलों को उनकी औकात दिखा दी है उसी तरह माया और मुलायम को भी दूर रखे यह इस देश पर एक ओर अहसान होगा।
जय हिंद

मंगलवार, 19 मई 2009

मनमोहन सिंह मध्य वर्ग के हीरो

लोकसभा चुनाव के परिणाम आ गये है और किसी ने सोचा भी ना होगा ऐसे परिणाम आये है। एक्जिट पॉल, राजनीतिक पंडितों के विश्लेषण और भविष्यवाणियां तमाम गलत साबित हुई है। लोकसभा का यह चुनाव परिणाम सबसे ज्यादा भाजपा के लिए आघातजनक है। 2004 में भाजपा ने इन्डिया शाइनिंग का नारा बढा-चढा कर गाया था और उसके बाद भी जनादेश ने उन्हें नकार दिया था। भाजपा वाले मानते थे कि इसबार भी ऐसा ही होगा और कांग्रेस वाले चाहे जितना भी विकास की बाते करेंगे जनता उन्हें नकार देगी और भाजपा को तख्तोताज पर बिठायेगी। आडवाणी ने तो डेढ साल पहले ही खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था और प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने लगे थे। सुषमा स्वराज ने बार-बार समझाया कि एनडीए को बहुमती किसी भी किमत पर नहीं मिलेगी लेकिन उनकी बात सुने कौन? उल्टा उन्हें आंखें दिखाकर एक ओर बिठा दिया गया। हालांकि यह लोकतंत्र है और जनादेश ने अपना फैसला सुना दिया है। जनता की लाठी बेआवाज, धीमी पर असरकारी होती है।
अब भाजपा वाले मनोमंथन करने बैठे है कि चुनाव में उनकी हार के क्या कारण थे और उन्ही कारणों की जांच की कवायत चल रही है। यह कवायत तो सिर्फ नाम का ही है जो भाजपा के नेताओं के शुरुआती बयानों से ही साफ है। भाजपा के नेतागण जो बयान दे रहे है उसमें हार के बारे में गोल-गोल बातें हो रही है। लेकिन मूल कारण की बात कोई नहीं कर रहा। भाजपा की हार का मूल कारण लालकृष्ण आडवाणी है और भाजपा के नेतागण उस बात को न ही स्वीकारने को तैयार है ना ही उस पर कोई चर्चा करने को तैयार है। भाजपा वाले डेढ साल पहले ही आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर बैठे, उसमें ही उनका राम बोलो भाई राम हो गया। भाजपा के लिए आडवाणी सन्मानीय नेता होंगे और भाजपा के विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान है लेकिन इस देश की जनता उनका बोझ क्यों ढोये?
इससे पहले आडवाणी छह साल तक देश के उपप्रधानमंत्री पद पर रहे और इन छह सालों में उन्होंने देश के लिए कुछ नहीं किया। देश के उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री पद पर आडवाणी एकदम असफल रहे। उस समय आतंकवाद का मुद्दा गरम था और पाकिस्तान के आतंकवादियों ने हमारे देश में आतंक मचा रक्खा था। आडवाणी उनके सामने लडने में असफल रहे। उल्टा, कंदहार अपहरण कांड और संसद पर हमले जैसे केसो में तो देश की इज्जत का खुरदा ही हो गया। ऐसा कहा जाता है कि लोगों की याददाश्त बहुत छोटी होती है लेकिन ऐसा बिलकुल भी नहीं है, जनता पांच-सात साल पुरानी बात को इतनी आसानी से नहीं भूलती। आडवाणी ने खुद छह साल में क्या किया यह भूल गये और पूरा का पूरा चुनाव प्रचार मनमोहन को निकम्मा, कमजोर और नाकाम बताने में निकाल दिया और यही दांव आडवाणी को उलटा पड गया। किसने क्या किया और किसने क्या नहीं किया यह सब बातें एक रख देते है लेकिन इस देश की जनता को अगर आडवाणी और मनमोहन सिंह में से किसी एक को चुनने को कहेंगे तो जनता निश्चितरुप से मनमोहन सिंह को ही चुनेगी।
भाजपा की हार के लिए दूसरे भी अनेक कारण है लेकिन आडवाणी सबसे बडा कारण है। नैतिकता का झंडा थामे आडवाणी ने इस हार के बाद प्रतिपक्ष के नेता बनने से इंकार कर दिया यहां तक तो ठीक था लेकिन उनके चमचों ने उन्हें प्रतिपक्ष की नेतागीरी स्वीकारने के लिए बिनती की और आडवाणी ने बडी बेशर्मी के साथ उसे स्वीकार भी कर लिया। भाजपा के नेतागण कांग्रेस पर व्यक्ति पूजा का आरोप लगाते फिरते है तो वे क्या कर रहे है? जो इंसान पार्टी को जीत नहीं दिला सका उसकी इतनी चमचागिरी करने की क्या जरुरत है? आडवाणी के बिना भाजपा का बेडा पार नहीं हो सकता ऐसा बर्ताव भाजपा के नेतागण कर रहे है। ऐसा करना भाजपा को किस ओर ले जाएगा यह पता नहीं। ऐसा कहा जाता है कि आडवाणी भाजपा को दो बैठक पर से ८२ बैठक पर ले गये। अब भाजपा वाले आडवाणी को नहीं हटायेंगे तो यही आडवाणी भाजपा को फिर से दो बैठक पर ले आयेंगे।
कांग्रेस ने इस चुनाव में कमाल किया है और उसकी फेहरिस्त बहुत लंबी है। लेकिन सबसे बडा कमाल उसने जो सबसे ज्यादा उछल-कूद करते थे, सतत ब्लेकमेइलिंग करते थे उन क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं को उनकी औकात समझा दी है और उन्हें उनकी जगह बता दी है। जो इस देश पर सबसे बडा उपकार है। सांप्रदायिक मानसिकता में जीते, सत्ता के लिए किसी भी हद तक जाने वाले, इस देश के हितों के साथ खेलने वाले क्षेत्रीय पार्टियों को कांग्रेस ने ठिकाने लगा दिया है। लालूप्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती, जयललिता, रामविलास पासवान सहित के ढेर सारे नेताओं को कांग्रेस ने कचरे के डिब्बे में डाल दिया है। कांग्रेस का यह कमाल इस देश के लिए उम्मीद की किरन लेकर आया है। पिछले एक दशक में इस देश ने सांप्रदायिक क्षेत्रीय पार्टियों का बोझ ढोया और उनकी दादागिरी को बर्दाश्त किया है। जिनकी औकात सरकारी दफ्तर में मामूली चपरासी की भी नहीं है ऐसे लोगों को इस देश ने मंत्री के रुप में सहा है और यह इस देश की मजबूरी थी। कांग्रेस ने इस देश के लोगों को अब यह मजबूरी नहीं सहनी पडेगी ऐसा ढांढस बंधाया है और यही सबसे बडा कमाल है। इस देश की जनता ने कांग्रेस पर भरोसा कर उसे 206 सीटें दी है और इस भरोसे को बरकरार रखने का काम कांग्रेस का है। बिना संघर्ष के हुकूमत कहां? कांग्रेस आगामी पांच सालों में अगर इस भरोसे को बरकरार रख पायेगी तो पांच साल बाद इस देश की जनता उसे अकेले सरकार बनाने जितनी बैठके देगी और क्षेत्रीय पार्टियों की सांप्रदायिकता से मुक्त होकर चैन की सांस ले सकेगी।
जय हिंद

शुक्रवार, 15 मई 2009

किंगमेकर और अफवाएं

चुनावी नतीजा आने में अब 24 घंटे से भी कम समय बचा है। अफवाएं और अटकलों का बाजार तेजी पकडा हुआ है। इन सभी अफवाएं और अटकलों के मूल में टीवी चैनलों ने किए एक्जिट पॉल है और टीवी चैनलें भी अपना एक्जिट पॉल एकदम विश्वसनीय है ऐसा साबित करने के लिए जैसा ठीक लगे डींग हांक रही है। एक्जिट पॉल के मुताबिक इस चुनाव में तीसरे मोरचे को 100 से भी ज्यादा बैठकें मिलेगी और केन्द्र में किसकी सरकार बनेगी यह तीसरे मोरचे के दल तय करेंगे। टीवी चैनलें तीसरे मोरचे में वामपंथी, चंद्राबाबु नायडू, जयललिता आदि को गिनते है।
इसमें से आधे तो भाजपा या कांग्रेस में से किस ओर लुढकेंगे इसकी फिराक में लग गए है और किसके पास से ज्यादा फायदा मिल सकता है उसके कयास में जुटे हुए है हालांकि यह सब सभी राजनीतिक दलें करती ही है इसलिए उसके सामने आपत्ति नहीं जताई जा सकती और यहां तक तो बात ठीक है लेकिन इसके बाद जो नोंक-झोंक चल रही है उसके मुताबिक शरद पवार प्रधानमंत्री पद की रेस में सबसे आगे है।
टीवी चैनलों के मुताबिक शरद पवार ने तीसरे मोरचे के दलों से साथ समझौता करना भी शुरु कर दिया है और प्रधानमंत्री पद पर खुद की ताजपोशी हो इसके लिए सब कुछ पक्का करने में लगे है। टीवी चैनलों के मुताबिक चौथे मोरचे में मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मायावती, जयललिता, चंद्राबाबु नायडू, नवीन पटनायक, वामपंथी आदि शरद पवार की पालखी उठाकर उनका राज्याभिषेक करने को तैयार ही है। शरद पवार पुराने राजनीतिज्ञ है और इस कारण ही वे प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर बैठ जायेंगे ऐसा तुक्का जिसके दिमाग में आया होगा उस पर मुझे दया आ रही है। उसके साथ जो कोई इस बात को सच मानकर सूर में सूर मिला रहे है उनके बुद्धि की भी जांच की आवश्यकता है।
शरद पवार प्रधानमंत्री पद पर बैठेंगे ऐसी बाते करनेवाले को पवार की राजनीतिक ताकत को जानना चाहिए। पवार बरसों से राजनीति में है और ताकत की राजनीति के चैम्पियन रहे है इसलिए सतत मीडिया में छाये रहते है लेकिन हकीकत यह है कि उनकी औकात एक राज्यकक्षा के नेता से ज्यादा कुछ भी नहीं। पवार ने अभी तक केन्द्र में या महाराष्ट्र में जो कोई सत्ता पद भोगा वो कांग्रेस की मेहरबानी थी। उन्होंने 1998 में सोनिया गांधी के विदेशी कुल के मामले कांग्रेस पार्टी छोडी और अपना नया दल बनाया उस बात को आज 13 साल हुए और इन 13 सालों में पवार अपनी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी भी नहीं बना सके। महाराष्ट्र पवार की कर्मभूमि है और उनका गढ माना जाता है लेकिन पवार में अपनी ताकत पर अपने ही राज्य में अपनी पार्टी को सत्ता दिलाने की ताकत भी नहीं है। पवार की एनसीपी को कांग्रेस के तलवे चाटने पडते है तभी तो उसे महाराष्ट्र में सत्ता मिली है। खुद पवार जिस सोनिया गांधी का विरोध कर अलग हुए वही सोनिया गांधी के आधार पर वापिस खडे हुए है।
2004 के लोकसभा चुनाव में शरद पवार की पार्टी को 9 सीटें मिली थी और उस समय उसमें एक-दो सीट की बढोतरी हो तो भी उनका आंकडा 12 या ज्यादा से ज्यादा 15 पर पहुंचे और पवार कितने ही बडे नेता क्यो ना हो लेकिन लोकसभा में सिर्फ 15 बैठक हासिल कर प्रधानमंत्री पद पर बैठने की बात में कोई दम ही नहीं है।
चैनलवाले जिस तीसरे और चौथे मोरचे की बात कर रहे है उसमें ही मुलायम सिंह यादव, लालूप्रसाद यादव, मायावती, जयललिता, चंद्राबाबु नायडू और प्रकाश करात आदि प्रधानमंत्री पद पर बैठने के लिए कतार में खडे ही है और वे लोग बारह से पंद्रह बैठक हासिल करनेवाले शरद पवार की पालखी उठाकर घूमे यह बात कुछ हजम नहीं हुई।
दूसरी बात यह कि तीसरे मोरचे में ही मायावती, जयललिता आदि ऐसा मानने वाले है कि मेरा नहीं तो किसी का नहीं और खुद के अलावा कोई और कुर्सी पर बैठे उसमें उन्हें जरा भी दिलचस्पी नहीं इसलिए वे लोग भाजपा या कांग्रेस की सरकार बनने देंगे लेकिन पवार या प्रकाश करात जैसे किसी को प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर बैठने नहीं देंगे। क्या मालूम कोई चमत्कार हो जायें, वैसे पवार प्रधानमंत्री बने ऐसे कोई संजोग नहीं है।
जय हिंद

गुरुवार, 14 मई 2009

युपीए-एनडीए : एक्जिट पॉल का तुक्का

बुधवार को पांचवा और अंतिम चरण का मतदान समाप्त हो गया है उसके साथ ही लोकसभा चुनावी जंग भी समाप्त हो गया है और अब दो दिन बाद यानि कि 16 मई को किसकी झोली में क्या आयेगा इसका बडी बेसब्री के साथ इंतजार हो रहा है। परिणाम में किसे क्या मिलेगा यह महत्वपूर्ण है और अभी पूरा देश यह जानने को बेताब है। दूसरी ओर अभी तक चुनाव समिति के प्रतिबंध के कारण चुपचाप बैठी टीवी चैनलें मैदान में आ गई है और एक्जिट पॉल की बममारी शुरु हो गई है। टीवी चैनलों पर बैठे विशेषज्ञ अपने-अपने मुताबिक शेखिया बघार रहे है।
इसमें कुछ नया भी नहीं है और अधिकांश टीवी चैनलें एक बात से सहमत है कि इसबार किसी भी दल को पूर्ण बहुमती नहीं मिलेगी और भाजपा-कांग्रेस दोनों ही दलों को जमकर पसीना बहाना पडेगा। हमारी टीवी चैनलों ने किए सर्वे के मुताबिक इसबार छोटे-छोटे दलों का महत्व एकदम बढ जायेगा और बडे दलों को छोटे दलों के पैर पकडकर उन्हें मनाना पडेगा। यह सर्वविदित हकीकत है कि, जबसे चुनावी घोषणा हुई तब से हम सभी यह जानते है। हमारे यहां जिस तरह प्रादेशिक दलों की ताकत बढती जा रही है उसे देख भाजपा-कांग्रेस दोनों में से किसी की भी 200 का आंकडा पार करने की ताकत नहीं है।
सिर्फ हमारे देश में ही नहीं पूरी दुनिया में एक्जिट पॉल से बडा शायद ही कोई झूठ देखने को नहीं मिलेगा। जिस चुनावी प्रक्रिया के साथ लाखों लोग जुडे हुए हो और उन लाखों लोगों के मतों के आधार पर कौन सत्ता में आयेगा और कौन सत्ता से बाहर जायेगा इसका निर्णय लेना हो उसका फैसला टीवी चैनलें 200-500 लोगों को पूछकर कर देती है और इससे बडा कोई झूठ क्या हो सकता है? हमारे यहां अधिकांश लोकसभा बैठकों पर अब दस लाख जितने वोटर है और टीवी चैनलें जिन 100-200 लोगों से सवाल पूछती है वे इन दस लाख लोगों की आवाज कैसे बन सकते है?
मतलब यह कि यह बहुत बडा धोखा है और इसी वजह से अभी तक हमारे यहां जो भी एक्जिट पॉल हुए है वे सब गलत ही साबित हुए है। चैनलवाले भी यह सारी बातें अच्छी तरह समझते है लेकिन उन्हें भी उनकी दुकान चलानी होती है इसलिए ‘लगा तो तीर, नहीं तो तुक्का’ के दम पर यह सारा खेल खेला जाता है।
दूसरी बात यह कि ऐसे एक्जिट पॉल गलत साबित हो तो भी हम या दूसरा कोई क्या कर सकता है? कोई इसका जवाब मांगने थोडे ही जायेगा। यह बात चैनलवाले अच्छी तरह से जानते है।
अभी तक का हमारा अनुभव ऐसा ही रहा है कि एक्जिट पॉल गलत ही साबित हुए है लेकिन एसबार का जो माहौल है उसे देख ऐसा लग रहा है कि शायद पहलीबार एक्जिट पॉल हकीकत में बदल जाये। इसका मतलब यह नहीं कि टीवी चैनलवाले या जिन लोगों ने सर्वे किया है वे सभी ज्यादा चतुर हो गये है या उनमें ज्यादा अक्ल आ गई है। इसबार का राजनीतिक माहौल ही कुछ ऐसा है और उसके कारण एक्जिट पॉल किए बिना ही कोई भी कह सकता है कि इसबार किसी भी दल को पूर्ण बहुमती नहीं मिलेगी और ना ही कोई दल अपनी ताकत पर सरकार बना पायेगी।
लोकसभा चुनाव परिणाम दो दिन बाद घोषित होनेवाले ही है और उस समय दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा। तब तक के लिए...
जय हिंद

शुक्रवार, 8 मई 2009

माया विरोधी दल का समर्थन करेगी सपा

देश की राजनीति तमाम हदें पार कर चुकी है और सत्ता लालसु राजनेता सत्ता हथियाने के लिए किस हद तक गिर सकते है इसका तमाशा हमें हररोज देखने को मिलता है और हम लाचारी के साथ उसे देखने के अलावा ओर कुछ कर भी नहीं सकते। हम सभी इन तमाशों को चुपचाप देखने के आदि हो चुके है लेकिन कभी-कभार हमारे राजनेता इस हद तक गिर जाते है कि उससे हमारे मन को गंभीर ठेस पहुंचती है। बृहस्पतिवार को समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने जो बयान दिया वह ऐसी ही एक घटना है। लोकसभा चुनाव के चार चरण के मतदान समाप्त हुए है और इन चार चरणों के अंत में जो चित्र उभरकर सामने आया है उस पर से यह साफ हो गया है कि, किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमती नहीं मिलेगी और केन्द्र में फिर से खिचडी सरकार ही बनेगी। इसके कारण जिनकी कोई औकात नहीं है ऐसे छोटे-छोटे दलों के भाव आसमान पर है और कांग्रेस-भाजपा जैसी बडी पार्टियों को अपनी गरज के कारण गधों को भी बाप बनाना पड रहा है। और इसी वजह से ऐसे दलों को मनाने की कवायद शुरु हो गई है। छोटे-छोटे दलों के इतने भाव हो तब यह कहने की जरुरत नहीं कि, जो पार्टियां 25-30 सीटें ले जाएगी उनके पांवों में लोटना ही बाकी है। उत्तर प्रदेश में 16 मई को मतपेटी में से क्या बाहर आयेगा यह पता नहीं लेकिन अभी ऐसा लग रहा है कि समाजवादी पार्टी निश्चितरुप से इस केटेगरी में आ जायेगी और 25-30 सीटें ले जायेगी। यह सामान्य धारणा है और मुलायम सिंह तो उत्तर प्रदेश में 50 सीटें अपनी जेब में डालने के सपने देख रहे है और उसका असर अभी से दिखने लगा है। इसी सपने के बलबूते मुलायम ने यह घोषित किया है कि उनकी पार्टी किसी भी ऐसे गठबंधन को खुलेआम समर्थन देगी जो उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार को बर्खास्त कर देने की गारंटी दे। मुलायम ने स्पष्टता नहीं की है लेकिन उनकी बात का मतलब यह होता है कि अगर भाजपा भी मायावती सरकार को बर्खास्त करने की गारंटी देगी तो उन्हें भाजपा को समर्थन देने में भी कोई ऐतराज नहीं है। हालांकि यह पूरा अलग चर्चा का विषय है लेकिन मुलायम सिंह ने मायावती सरकार को क्यों बर्खास्त करना चाहिए इसके लिए जो कारण दिये है वो भी सुनने जैसे है। मुलायम सिंह के मुताबिक उत्तर प्रदेश की तमाम जनता मायावती सरकार से त्रस्त है और उसे बर्खास्त करना जरुरी है।
मुलायम सिंह के इस शर्त को कौन सी पार्टी स्वीकार करेगी और मुलायम सिंह उस आधार पर किस पाले में बैठेंगे उसका पता तो 16 मई को ही चलेगा।
मायावती की बसपा ने दो साल पहले उत्तर प्रदेश में आयोजित विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमती हासिल की और उसे देख मुलायम सिंह यादव सहित सभी बौखला गये थे और ऐसा लगता है कि, उनकी बौखलाहट अभी तक शांत नहीं हो पाई है। मायावती सरकार लोकशाही पध्धति से संपूर्ण बहुमती से चुनी गई सरकार है और हमें पसंद हो या ना हो लेकिन जनता ने उसे चुनकर उत्तर प्रदेश की गद्दी पर बिठाया है और पांच साल तक उत्तर प्रदेश में राज करने की इजाजत दी है जो एक हकीकत है। मुलामय सिंह जनता के इस निर्णय को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं है और उनका बस चले तो वे मायावती सरकार को अभी के अभी बर्खास्त कर दे लेकिन उनके दुर्भाग्य से और इस देश के सौभाग्य से ऐसा हो नहीं सकता इसलिए वे सीधे ब्लेक मेइलिंग पर ही उतर आये है। मायावती अच्छी मुख्यमंत्री है या नहीं यह अलग चर्चा का मुद्दा है और उनकी भी तारीफ करने जैसी नहीं है लेकिन यह सवाल मायावती अच्छी है या नहीं उसका नहीं, मुलायम सिंह जिस कमीनेपन का प्रदर्शन कर रहे है उसका है।
इस तरह के खुलेआम ब्लेकमेइलिंग के लिए कमीनेपन जैसा शब्द भी छोटा है। मुलायम सिंह के इस बयान से ही साफ है कि वे मायावती सरकार को उखाड फेंक उत्तर प्रदेश की गद्दी पर बैठने के लिए उतावले हो रहे है और सत्ता का विरह उनसे बर्दाश्त नहीं हो रहा।
मुलायम सिंह मायावती सरकार को क्यों उखाड फेंकना चाहते है यह भी समझने जैसी बात है। मायावती और मुलायम सिंह के बीच जो बैर है वह बहुत ही पुराना है। एक जमाने में मायावती और मुलायम सिंह साथ-साथ ही थे। 1992 में बाबरी मस्जिद ढही उसके बाद कल्याण सिंह की भाजपा सरकार गिर गई और 1993 में फिर विधानसभा के चुनाव आए तब भाजपा वापिस सत्ता पर ना आये इसलिए मायावती और मुलायम सिंह ने हाथ मिलाया और समझौता कर चुनाव लडे। हालांकि उस बार भाजपा जोश में थी और मायावती-मुलायम एक होने के बाद भी सत्ता हासिल करने में सफल नहीं हुए। कांग्रेस और जनता दल उस समय उनकी मदद के लिए आये और उनकी मदद से मुलायम सिंह गद्दी पर बैठे। हालाकि मायावती की सत्ता लालसा उस समय ही प्रदर्शित होने लगी थी और उसका फायदा उठाकर भाजपा ने मुलायम को घर भेज मायावती को गद्दी पर बिठा दिया था। मुलायम में दिल से उस बात का डंक अभी गया नहीं है और उन्होंने इस गुस्ताखी के लिए मेडम मायावती को माफ नहीं किया है। उसके बाद मायावती ने कई बार मुलायम से हाथ मिलाने की कोशिश की लेकिन मुलायम इस बात में स्पष्ट है कि काला चोर चलेगा लेकिन मायावती हरगिज नहीं। अब मायावती भी यही बात करती है। मुलायम के दिल में यह डंक तो है ही लेकिन एक ओर वजह है मायावती की बढती ताकत। जिस तरह वामपंथियों से लेकर चंद्राबाबू नायडू तक के सभी मायावती के पैरों में लोटते है और मायावती की आरती उतारकर वह प्रधानमंत्री पद पर बैठने के लायक है ऐसे गुनगान करते है उसे देख मुलायम के पेट में दर्द हो यह स्वाभाविक है। मुलायम का डर गलत भी नहीं है। मायावती अभी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री है और अगर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ गई तो.... यह कल्पना उन्हें भयभीत कर रही है। मुलायम सिंह की शर्त कांग्रेस-भाजपा या दूसरा कोई भी दल ना स्वीकारे ऐसी प्रार्थना करने के अलावा हम कुछ नहीं कर सकते।

जय हिंद

गुरुवार, 7 मई 2009

चुनाव और चुभती जलती गर्मी

लोकसभा चुनाव के तीन चरण का मतदान समाप्त हो चुका है और आज चौथे चरण का मतदान होनेवाला है। प्रथम चरण में चिलचिलाती धूप में भी लोगों ने जिस तरह मतदान किया है उसे देख राजनीतिक विशेषज्ञ भी दंग रह गये है। इन पंद्रह दिनों में भारत के लोगों ने अपने अधिकारों के प्रति सजाग होकर मतदान किया है।
अभी देश में सख्त गर्मी है और दिन-ब-दिन इसका प्रमाण बढता ही जा रहा है। उड़ीसा में गर्मी का तापमान बढा है और गरमी के कारण मृत्युदर भी बढ रहा है। सिर्फ उड़ीसा ही नहीं उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों की यही स्थिति है। बावजूद इसके लोगों ने जिस तरह मतदान किया है वह वाकई काबिलेतारीफ है। ऐसी चिलचिलाती धूप में भी 55 से 60 प्रतिशत मतदान हुआ यह बहुत अच्छी बात है और मुझे अपने देशवासियों पर नाज है।
समग्र देश में राजनीतिक पार्टियों के स्टार प्रचारकों की सभाओं में जनसैलाब उमड रहा है इसके अलावा टीवी पर भी लोगों की राजनीति में दिलचस्पी बढ रही है जो आश्चर्य की बात है। टीवी पर चुनावी चर्चा और समाचार सुपरहिट साबित हो रहे है। टीवी पर अधिकांश पोलिटिकल टोक-शो सुपरहिट होते है। चुनाव के संदर्भ में ब्लॉग जगत में भी तेजी आई है।
मतदान का दूसरा कारण यह है कि इसबार का चुनावी प्रचार होट रहा है और राजनीतिज्ञों ने जिस तरह बेलगाम फटकेबाजी की है उस पर लोग फिदा हुए है। अफरातफरी ही जनता को आकर्षित करती है। इसबार लोगों को चुनाव में दिलचस्पी जगाने के लिए एक कारण राजनीतिक समीकरण भी है।
इसबार चुनाव में ऐसा कोई मुद्दा नहीं कि लोग एकदम से किसी भी पार्टी की ओर खिंचे चले आए और उसी कारण राजनीतिक पार्टियों को भी पसीना बहाना पडा है, ज्यादा से ज्यादा महेनत करनी पडी है, लोगों की दिलचस्पी टिकानी पडी है और लोगों के मनोरंजन के लिए तरह-तरह के खेल भी खेलने पडे है।
मतदान और चुनाव में लोगों की दिलचस्पी बढाने के लिए जो केम्पेइन चले है उसका भी प्रभाव लोगों पर पडा है, खासकर युवा वर्ग अपने अधिकार और मतदान के लिए जागृत हुए है। मैं उम्मीद करती हूं कि यह जागृति बरकरार रहेगी।

जय हिंद